महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-063
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युधिष्ठिरेण व्यासाज्ञया भीमादिभिः सहालोच्य यज्ञार्थं धनाहरणाय सहभ्रात्रादिभिर्हिमवत्पार्श्वप्रति प्रस्थानम्।। 1 ।।
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जनमेजय उवाच। | 14-63-1x |
श्रुत्वैतद्वचनं ब्रह्मन्व्यासेनोक्तं महात्मना। अश्वमेधं प्रति तदा किं भूयः प्रचकार ह।। | 14-63-1a 14-63-1b |
रत्नं च यन्मरुत्तेनि निहितं वसुधातले। तदवाप कथं चेति तन्मे ब्रूहि द्विजोत्तम।। | 14-63-2a 14-63-2b |
वैशम्पायन उवाच। | 14-63-3x |
श्रुत्वा द्वैपायनवचो धर्मिराजो युधिष्ठिरः। भ्रातॄन्सर्वान्समानाय्य काले वचनमब्रवीत्।। | 14-63-3a 14-63-3b |
अर्जुनं भीमसेनं च माद्रीपुत्रौ यमावपि। श्रुतं वो वचनं वीराः सौहृदाद्यन्महात्मना।। | 14-63-4a 14-63-4b |
कुरूणां हितकामेन प्रोक्तं कृष्णेन धीमता। तपोवृद्धेनि महता सुहृदां भूतिमिच्छता।। | 14-63-5a 14-63-5b |
गुरुणा धर्मशीलेन व्यासेनाद्भुतकर्मणा। भीष्मेण च महाप्राज्ञ गोविन्देनि च धीमता।। | 14-63-6a 14-63-6b |
संस्मृत्य तदहं सम्यक्कर्तुमिच्छामि पाण्डवाः। आयत्यां च तदात्वे च सर्वेषां तद्धि नो हितम्।। | 14-63-7a 14-63-7b |
अनुबन्धे च कल्याणं यद्वचो ब्रह्मवादिनः। इयं हि वसुधा सर्वा क्षीणरत्ना कुरूद्वहाः।। | 14-63-8a 14-63-8b |
तच्चाचष्ट तदा व्यासो मरुत्तस्य धनं नृपाः। यद्येतद्वो बहुमतं मन्यध्वं वा क्षमं यदि। तदानयामहे सर्वे कतं वा भीम मन्यसे।। | 14-63-9a 14-63-9b 14-63-9c |
इत्युक्तवाक्ये नृपतौ तदा कुरुकुलोद्वह। भीमसेनो नृपश्रेष्ठं प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत्।। | 14-63-10a 14-63-10b |
रोचते मे महाबाहो यदिदं भाषितं त्वया। व्यासाख्यातस्य वित्तस्य समुपानयनं प्रति।। | 14-63-11a 14-63-11b |
तत्प्राप्नुयामहे धर्माद्यद्धनं काङ्क्षितं प्रभो। कृतमेव महाराज भवेदिति मतिर्मम।। | 14-63-12a 14-63-12b |
ते वयं प्रणिपातेन गिरीशस्य महात्मनः। तदानयामि भद्रं ते समभ्यर्च्य कपर्दिनम्।। | 14-63-13a 14-63-13b |
`तं विभुं देवदेवेशं शूलपाणिं त्रिलोचनम्। अनादिनिधनं शंभुं नमस्यामि महेश्वरम्।।' | 14-63-14a 14-63-14b |
लोकनाथं गणाध्यक्षं तस्यैवानुचरांश्चि तान्। प्रसाद्यार्थमवाप्स्यामो नूनं वाग्बुद्धिकर्मभिः।। | 14-63-15a 14-63-15b |
रक्षन्ते ये च तद्द्रव्यं किन्नरा रौद्रदर्शनाः। ते च वश्या भविष्यन्ति प्रसन्ने वृषभध्वजे।। | 14-63-16a 14-63-16b |
`स हि देवः प्रसन्नात्मा भक्तानां परमेश्वरः। ददात्यमरतां चापि किं पुनः काञ्चनं प्रभुः।। | 14-63-17a 14-63-17b |
वनस्थास्य पुरा जिष्णोरस्त्रं पाशुपतं महत्। रौद्रं ब्रह्मसिरश्चादात्प्रसन्नः किं पुनर्धनम्।। | 14-63-18a 14-63-18b |
वयं सर्वे हि तद्भक्ताः स चास्माकं प्रसीदति। तत्प्रसादादिदं राज्यं प्राप्तं कौरवनन्दन।। | 14-63-19a 14-63-19b |
अभिमन्योर्वधे वृत्ते प्रतिज्ञाते धनञ्जये। जयद्रथवधार्थाय स्वप्ने लोकगुरुर्निशि। प्रसाद्य लब्धवानस्त्रमर्जुनः सहकेशवः।। | 14-63-20a 14-63-20b 14-63-20c |
तत्र प्रभातां रजनीं फल्गुनस्याग्रतः प्रभुः। जघान सैन्यं शूलेन प्रत्यक्षं सव्यसाचिनः।। | 14-63-21a 14-63-21b |
कस्तां सेनां महाराज मनसाऽपि प्रधर्षयेत्। द्रोणिकर्णबलैर्युक्तां महेष्वासैः प्रहारिभिः। ऋते देवान्महेष्वासाद्बहुरूपान्महेश्वरात्।। | 14-63-22a 14-63-22b 14-63-22c |
तस्यैव च प्रसादेव निहतास्तव शत्रवः। अश्वमेधस्य संसिद्धिं तव सम्पादयिष्यति।' | 14-63-23a 14-63-23b |
श्रुत्वैवं वदतस्तस्य वाक्यं भीमस्य भारत। प्रीतो धर्मात्मजो राजा बभूवातीव भारत। अर्जुनप्रमुखाश्चापि तथेत्येवाब्रुवन्वचः।। | 14-63-24a 14-63-24b 14-63-24c |
कृत्वा तु पाण्डवाः सर्वे रत्नाहरणनिश्चयम्। सेनामाज्ञापयामासुर्नक्षत्रेऽहनि च ध्रुवे।। | 14-63-25a 14-63-25b |
ततो ययुः पाण्डुसुता ब्राह्मणान्स्वस्ति वाच्य च। अर्चयित्वा सुरश्रेष्ठं पूर्वमेव महेश्वरम्।। | 14-63-26a 14-63-26b |
मोदकैः पायसेनाथ मांसापूपैस्तथैव च। आशास्य च महात्मानं प्रययुर्मुदिता भृशम्।। | 14-63-27a 14-63-27b |
तेषां प्रयास्यतां तत्र मङ्गलानि शुभान्यथ। प्राहुः प्रहृष्टमनसो द्विजाग्र्या नागराश्च ते।। | 14-63-28a 14-63-28b |
ततः प्रदक्षिणीकृत्य शिरोभिः प्रणिपत्य च। ब्राह्मणानग्निसहितान्प्रययुः पाण्डुनन्दनाः।। | 14-63-29a 14-63-29b |
समनुज्ञाप्य राजानं पुत्रशोकसमाहतम्। धृतराष्ट्रं सभार्यं वै पृथां च पृथुलोचनाम्।। | 14-63-30a 14-63-30b |
मूले निक्षिप्य कौरव्यं युयुत्सुं धृतराष्ट्रजम्। सम्पूज्यमानाः पौरैश्च ब्राह्मणैश्च मनीषिभिः। `प्रययुः पाण्डवा वीरा नियमस्थाः शुचिव्रताः' | 14-63-31a 14-63-31b 14-63-31c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि त्रिषष्टितमोऽध्यायः।। 63 ।। |
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