महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-099
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कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति बीजयोन्योः शुद्ध्यशुद्धिनिरूपणम्।। 1 ।। तथा गायत्रीमहिमानुवर्णनम्।। 2 ।। ब्राह्मणमहिमप्रशंसनम्। ब्राह्मणावमन्तॄणां नारकयातनानुवर्णनं च ।। 3 ।।
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वैशंपायन उवाच। | 14-99-1x |
श्रुत्वैवं सात्विकं दानं राजसं तामसं तथा। पृथक्पृथक्त्वेन गतिं फलं चापि पृथक्पृथक्।। | 14-99-1a 14-99-1b |
अवितृप्तः प्रहृष्टात्मा पुण्यं धर्मामृतं पुनः। युधिष्ठिरो धर्मरतः केशवं पुनरब्रवीत्।। | 14-99-2a 14-99-2b |
बीजयोनिविशुद्धानां लक्षणानि वदस्व मे। बीजदोषेण लोकेश जायन्ते च कथं नराः।। | 14-99-3a 14-99-3b |
आचारदोषं देवेशं वक्तुगर्हस्यशेषतः।। ब्राह्मणानां विशेषं च गुणदोषौ च केशव।। | 14-99-4a 14-99-4b |
चातुर्वर्ण्यस्य कुत्स्नस्य वर्तमानाः प्रतिग्रहे। केन विप्रा विशेषेण तरन्ते तारयन्ति च। एतान्कथय देवेश त्वद्भक्तस्य नमोस्तु ते।। | 14-99-5a 14-99-5b 14-99-5c |
भगवानुवाच। | 14-99-6x |
शृणु राजन्यथावृत्तं बीजयोनिं शुभाशुभम्। येन तिष्ठति लोकोयं विनश्यति च पाण्डव।। | 14-99-6a 14-99-6b |
अविप्लुतब्रह्मचर्यो यस्तु विप्रो यथाविधि। स बीजं नाम विज्ञेयं तस्य बीजं शुभं भवेत्।। | 14-99-7a 14-99-7b |
कन्या चाक्षतयोनिः स्यात्कुलीना पितृमातृतः। ब्राह्मणादिषु विवाहेषु परिणीता यथाविधि। सा प्रशस्ता वरारोहा तस्या योनिः प्रशस्यते।। | 14-99-8a 14-99-8b 14-99-8c |
मनसा कर्मणा वाचा या गच्छेत्परपूरुषम्। योनिस्तस्या नरश्रेष्ठ गर्भाधानं न चार्हति।। | 14-99-9a 14-99-9b |
स्वैरिण्या यस्तु पापात्मा संतानार्थमिहेच्छति। स कुलान्पातयत्याशु दशपूर्वान्दशापरान्।। | 14-99-10a 14-99-10b |
दुष्टयोनौ तु यो मोहाद्रेतः सिञ्चति मूढधीः। तद्रेतसा समुत्पन्नः षडङ्गविदपि द्विजः। साधुभिः स बहिष्कार्यः श्वापाक इव पार्थिवा।। | 14-99-11a 14-99-11b 14-99-11c |
कर्मणा मनसा वाचा या भवेत्स्वैरचारिणी। सा कुलघ्रीति विज्ञेया तस्यां जातः श्वपाचकः।। | 14-99-12a 14-99-12b |
दैवे पित्र्ये तथा दाने भोजने सहभाषणे। शयने सहसंबन्धे न योग्या दृष्टयोनिजाः।। | 14-99-13a 14-99-13b |
न तस्माद्दुष्टयोन्यां तु गर्भमुत्पादयेद्बुधः। मोहेन कुरुते यस्तु कुलं हन्ति त्रिपूरुषम्।। | 14-99-14a 14-99-14b |
कानीकनश्च सहोञश्च तथोभौ कुण्डगोलकै। आरूढपतिताज्जातः परितस्यापि यः सुतः। षडेते विप्रचण्डाला निकृष्टाः श्वपचादपि।। | 14-99-15a 14-99-15b 14-99-15c |
यो यत्र तत्र वा रेतः सिक्त्वा शूद्रासु वा चरेत्। कामचारी स पापात्मा बीजं तस्याशुभं भवेत्।। | 14-99-16a 14-99-16b |
अशुद्धं तद्भवेद्बीजं शुद्धां योनि न चार्हति। दूषयत्यपि तां योनिं शुना लीढं हविर्यथा।। | 14-99-17a 14-99-17b |
शूद्रयोनौ पतेद्बीजं हाहाशब्दं द्विजन्मनः। कुर्यात्पुरीषगर्तेषु पतितोऽस्मीति दुःखितः।। | 14-99-18a 14-99-18b |
मामधःपातयन्नेष पापात्मा काममोहितः। अधोगतिं प्रजोत्क्षिप्रमिति शप्त्वा पतेत्तु तत्।। | 14-99-19a 14-99-19b |
आत्मा हि शुक्लमुद्दिष्टं दैवतं परमं महत्। तस्मात्सर्वप्रयत्नेन निरुन्ध्याच्छुक्लमात्मनः।। | 14-99-20a 14-99-20b |
आयुस्तेजो बलं वीर्यं प्रज्ञा श्रीश्च महद्यशः। पुण्यं च मत्प्रियत्वं च लभते ब्रह्मचर्यया।। | 14-99-21a 14-99-21b |
अविप्लुतब्रह्मचर्यैर्गृहस्थश्रममाश्रितैः। पञ्चयज्ञपरैर्धर्मः स्थाप्यते पृथिवीतले।। | 14-99-22a 14-99-22b |
सायंप्रातस्तु ये सन्ध्यां सम्यङ्नित्यमुपासते। नावं वेदमयीं कृत्वा तरन्ते तारयन्ति च।। | 14-99-23a 14-99-23b |
यो जपेत्पावनीं देवीं गायत्रीं वेदमातरम्। न सीदेत्प्रतिगृह्णानः पृथिवीं च ससागराम्।। | 14-99-24a 14-99-24b |
ये चास्य दुःस्थिताः केचिद्ग्रहाः सूर्यादयो दिवि। ते चास्य सौम्या जायन्ते शिवाः शुभकरास्तथा।। | 14-99-25a 14-99-25b |
यत्र यत्र स्थिताश्चैव दारुणाः पिशिताशनाः। घोररूपा महाकाया धर्षयन्ति न तं द्विजम्।। | 14-99-26a 14-99-26b |
पुनन्तीह पृथिव्यां च चीर्णवेदव्रता नराः। चतुर्णामपि वेदानां सा हि राजन्गरीयसी।। | 14-99-27a 14-99-27b |
अचीर्णिव्रतवेदा ये विकर्मफलमाश्रिताः। ब्राह्ममा नाममात्रेण तेऽपि पूज्या युधिष्ठिर। किं पुनर्यस्तु सन्ध्ये द्वे नित्यमेवोपतिष्ठते।। | 14-99-28a 14-99-28b 14-99-28c |
शीलमध्ययनं दानं शौचं मार्दवमार्जवम्। तस्माद्वेदाद्विशिष्टानि मनुराह प्रजापतिः।। | 14-99-29a 14-99-29b |
भूर्भुवस्स्वरिति ब्रह्म यो वेदनिरतो द्विजः। स्वदारनिरतो दान्तः स विद्वान्स च भूसुरः।। | 14-99-30a 14-99-30b |
सन्ध्यामुपासते ये वै नित्यमेव द्विजोत्तमाः। ते यान्ति नरशार्दूल ब्रह्मलोकं न संशयः।। | 14-99-31a 14-99-31b |
सावित्रीमात्रसारोपि वरो विप्रः सुयन्त्रितः। नायन्त्रितश्चतुर्वेदी सर्वाशी सर्वविक्रयी।। | 14-99-32a 14-99-32b |
सावित्रीं चैव वेदांश्च तुलयाऽतोलयन्पुरा। सदेवर्षिगणाश्चैव सर्वे ब्रह्मपुरस्सराः। चतुर्णामपि वेदानां सा हि राजन्गरीयसी।। | 14-99-33a 14-99-33b 14-99-33c |
यथा विकसिते पुष्पे मधु गृह्णन्ति षट्पदाः। एवं गृहीता सावित्री सर्ववेदे च पाण्डवः।। | 14-99-34a 14-99-34b |
तस्मात्तु सर्ववेदानां सावित्री प्राण उच्यते। निर्जीवा हीतरे वेदा विना सावित्रिया नृपः।। | 14-99-35a 14-99-35b |
नायन्त्रितश्चतुर्वेदी शीलभ्रष्टः स कुत्सितः। शीलवृत्तसमायुक्तः सावित्रीपाठको वरः।। | 14-99-36a 14-99-36b |
सहस्रपरमां देवीं शतमध्यां दशावराम्। सावित्रीं जप कौतेय सर्वपापप्रणाशिनीम्।। | 14-99-37a 14-99-37b |
युधिष्ठिर उवाच। | 14-99-38x |
त्रैलोक्यनाथ हे कृष्ण सर्वभूतात्मको ह्यसि। नानायोगपर श्रेष्ठ तुष्यसे केन कर्मणा।। | 14-99-38a 14-99-38b |
भागवानुवाच। | 14-99-39x |
यदि भारसहस्रं तु गुग्गुल्वादि प्रधूपयेत्। करोति चेन्नमस्कारमुपहारं च कारयेत्।। | 14-99-39a 14-99-39b |
स्तौति यः स्तुतिभिर्मां च ऋग्यजुस्सामभिः सदा। न तोषयति चेद्धिप्रान्नाहं तुष्यामि भारत।। | 14-99-40a 14-99-40b |
ब्राह्मणे पूजिते नित्यं पूजितोस्मि न संशयः। आक्रुष्टे चाहमाक्रुष्टो भवामि भरतर्षभ।। | 14-99-41a 14-99-41b |
परा मयि गतिस्तेषां पूजयन्ति द्विजं हि ये। यदहं द्विजरूपेण वसामि वसुधातले।। | 14-99-42a 14-99-42b |
यस्तान्पूजयति प्राज्ञो मद्गतेनान्तरात्मना। तमहं स्वेन रूपेण पश्यामि नरपुङ्गव।। | 14-99-43a 14-99-43b |
कुब्जाः काणा वामनाश्च दरिद्रा व्याधितास्तथा। नावमान्या द्विजाः प्राज्ञैर्मम रूपा हि ते द्विजाः।। | 14-99-44a 14-99-44b |
ये केचित्सागरान्तायां पृथिव्यां द्विजसत्तमाः। मम रूपं हि तेष्वेवमर्चितेष्वर्चितोऽस्म्यहम्।। | 14-99-45a 14-99-45b |
बहवस्तु न जानन्ति नरा ज्ञानबहिष्कृताः। यदहं द्विजरूपेण वसामि वसुधातले।। | 14-99-46a 14-99-46b |
अवमन्यन्ति ये विप्रान्स्वधर्मान्पातयन्ति ते। प्रेषणैः प्रेषयन्ते च शुश्रूषां कारयन्ति च।। | 14-99-47a 14-99-47b |
मृतांश्चात्र परत्रेमान्यमदूता महाबलाः। निकृन्तन्ति यथाकामं सूत्रमार्गेण शिल्पिनः।। | 14-99-48a 14-99-48b |
आक्रोशपरिवादाभ्यां ये रमन्ते द्विजातिषु। तान्मृतान्यमलोकस्थान्निपात्य पृथिवीतले।। | 14-99-49a 14-99-49b |
आक्रम्योरसि पादेन क्रूरः संरक्तलोचनः। अग्निवर्णैस्तु संदंशैर्यमो जिह्वां समुद्धरेत्।। | 14-99-50a 14-99-50b |
ये च विप्रान्निरीक्षन्ते पापाः पापेन चक्षुषा। अब्रह्मण्याः श्रुतेर्बाह्या नित्यं ब्रह्मद्विषो नराः।। | 14-99-51a 14-99-51b |
तेषां घोरा महाकाया वक्रतुण्डा महाबलाः। उद्धरन्ति मुहूर्तेन स्वगाश्चक्षुर्यमाज्ञया।। | 14-99-52a 14-99-52b |
यः प्रहारं द्विजेन्द्राय दद्यात्कुर्याच्च शोणितम्। अस्थिभङ्गं च यः कुर्यात्प्राणैर्वा विप्रयोजयेत्। सोनुपूर्व्येण यातीमान्नरकानेकविंशतिम्।। | 14-99-53a 14-99-53b 14-99-53c |
शूलमारोप्यते पश्चाज्ज्वलने परिपच्यते। बहुवर्षसहस्राणि पच्यमानस्त्ववाक्छिराः। नावमुच्येत दुर्मेदा न तस्य क्षीयते गतिः।। | 14-99-54a 14-99-54b 14-99-54c |
ब्राह्मणान्वा विचार्यैव व्रजन्तै वधकाङ्क्षया। शतर्वषसहस्राणि तामिस्रे परिपच्यते।। | 14-99-55a 14-99-55b |
उत्पाद्य शोणितं गात्रात्संरंभमतिपूर्वकम्। सपर्ययेण यातीमान्नरकानेकविंशतिम्।। | 14-99-56a 14-99-56b |
तस्मान्नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां गतिमीरयेत्। न ब्रूयात्परुषां वाणीं न चैवैनानतिक्रमेत्।। | 14-99-57a 14-99-57b |
ये विप्राञ्श्लक्ष्णया वाचा पूजयन्ति नरोत्तमाः। अर्चितश्च स्तुतश्चैव तैर्भवामि न संशयः।। | 14-99-58a 14-99-58b |
तर्जयन्ति च ये विप्रान्क्रोशयन्ति च भारत। आक्रुष्टस्तर्जितश्चाहं तैर्भवामि न संशयः।। | 14-99-59a 14-99-59b |
यश्चन्दनैश्चागरुधूपदीपै- रभ्यर्चयेत्काष्ठमयीं ममार्चाम्। तेनार्चितो नैव भवामि सम्य- ग्विप्रार्चनादस्मि समर्चितोऽहम्।। | 14-99-60a 14-99-60b 14-99-60c 14-99-60d |
विप्रप्रसादाद्धरणीधरोऽहं विप्रप्रसादादसुराञ्जयामि। विप्रप्रसादाच्च सदक्षिणोऽहं विप्रप्रसादादजितोऽहमस्मि।। | 14-99-61a 14-99-61b 14-99-61c 14-99-61d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि वैष्णवधर्मपर्वणि एकोनशततमोऽध्यायः।। 99 ।। |
आश्वमेधिकपर्व-098 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-100 |