महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-025

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ब्राह्मण उवाच।
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
नारदस्य च संवादमृषेर्देवमतस्य च।। 1

देवमत उवाच।
जन्तोः संजायमानस्य किंनु पूर्वं प्रवर्तते।
प्राणोऽपानः समानो वा व्यानो वोदान एव च।। 2

नारद उवाच।
येनायं सृज्यते जन्तुस्ततोऽन्यः पूर्वमेति तम्।
प्राणद्वन्द्वं हि विज्ञेयं तिर्यगूर्ध्वमधश्च यत्।। 3

देवमत उवाच।
केनायं सृज्यते जन्तुः कश्चान्यः पूर्वमेति तम्।
प्राणद्वन्द्वं च मे ब्रूहि तिर्यगूर्ध्वमधश्च यत्।। 4

नारद उवाच।
सङ्कल्पाज्जायते हर्षः शब्दादपि च जायते।
रसात्संजायते चापि रूपादपि च जायते।। 5

स्पर्शात्संजायते चापि गन्धादपि च जायते।
शुक्राच्छोणितसंसृष्टात्पूर्वं प्राणः प्रवर्तते।
प्राणेन विकृते शुक्रे ततोऽपानः प्रवर्तते।। 6

शुक्रात्संजायते चापि रसादपि च जायते।
एतद्रूपमुदानस्य हर्षो मिथुनमन्तरा।। 7

कामात्संजायते शुक्रं शुक्रात्संजायते रजः।
समानव्यानजनिते सामान्ये शुक्रशोणिते।। 8

प्राणापानाविदं द्वन्द्वमवाक् चोर्ध्वं च गच्छतः।
व्यानः समानश्चैवोभौ तिर्यग्द्वन्द्वत्वमुच्यते।। 9

अग्निर्वै देवताः सर्वा इति देवस्य शासनात्।
संजायते हि प्राणेषु ज्ञानं बुद्धिसमन्वितम्।। 10

तस्य धूमस्तमोरूपं रजो भस्म सुतेजसः।
सर्वं संजायते तस्य यत्र प्रक्षिप्यते हविः।। 11

हविः समानो व्यानश्च इति यज्ञविदो विदुः।
प्राणापानावाज्यभागौ तयोर्मध्ये हुताशनः।। 12

एतद्रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः।
निर्द्वन्द्वमिति यत्त्वेतत्तन्मे निगदतः शृणुः।। 13

अहोरात्रमिदं द्वन्द्वं तयोर्मध्ये हुताशनः।
एतद्रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः।। 14

उभे सत्यानृते द्वन्द्वं तयोर्मध्ये हुताशनः।
एतद्रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः।। 15

सच्चासच्चैव तद्द्वन्द्वं तयोर्मध्ये हुताशनः।
एतद्रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः।। 16

उभे शुभाशुभे द्वन्द्वं तयोर्मध्ये हुताशनः।
एतद्रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः।। 17

ऊर्ध्वं समानो व्यानश्च व्यस्यते कर्म तेन तत्।
द्वितीयं तु समानेन पुनरेव व्यवस्यते।। 18

शान्त्यर्थं वामदेव्यं च शान्तिर्ब्रह्म सनातनम्।
एतद्रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः।। 19

।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि पञ्चविशोऽध्यायः।। 25 ।।

18 पूर्वंसमानो व्यानोऽथ व्यस्यते तेन कर्मकृत् इति क.ट.पाठः।।

आश्वमेधिकपर्व-024 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्वमेधिकपर्व-026