महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-042
← आश्वमेधिकपर्व-041 | महाभारतम् चतुर्दशपर्व महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-042 वेदव्यासः |
आश्वमेधिकपर्व-043 → |
ब्रह्मणा महर्षीन्प्रत्यहङ्कारतत्वाद्भूतादिसृष्टिप्रकारकथनम्।। 1 ।।
|
ब्रह्मोवाच। | 14-42-1x |
अहङ्कारात्प्रसूतानि महाभूतानि पञ्च वै। पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम्।। | 14-42-1a 14-42-1b |
तेषु भूतानि मुह्यन्ति महाभूतेषु पञ्चसु। शब्दस्पर्शनरूपेषु रसगन्धक्रियासु च।। | 14-42-2a 14-42-2b |
महाभूतविकारान्ते प्रलये प्रत्युपस्थिते। सर्वप्राणभूतां धीरा महदुत्पद्यते भयम्।। | 14-42-3a 14-42-3b |
यद्यस्माज्जायते भूतं तत्र तत्प्रविलीयते। लीयन्ते प्रतिलोमानि जायन्ते चोत्तरोत्तरम्।। | 14-42-4a 14-42-4b |
ततः प्रलीने सर्वस्मिन्भूते स्थावरजङ्गमे। स्मृतिमन्तस्तदा धीरा न लीयन्ते कदाचन।। | 14-42-5a 14-42-5b |
शब्दः स्पर्शस्तथा रूपं रसो गन्धश्च पञ्चमः। क्रियाः करणयुक्ताः स्युरनित्या मोहसंज्ञिताः।। | 14-42-6a 14-42-6b |
लोभप्रजनसम्भूता निर्विशेषा ह्यकिञ्चनाः। मांसशोणितसङ्घाता अन्योन्यस्योपजीविनः।। | 14-42-7a 14-42-7b |
बहिरात्मान इत्येते दीनाः कृपणजीविनः। प्राणापानावुदानश्च समानो व्यान एव च।। | 14-42-8a 14-42-8b |
अन्तरात्मनि चाप्येते नियताः पञ्च वायवः। वाङ्मनोबुद्धिरित्येभिः सार्धमष्टात्मकं जगत्।। | 14-42-9a 14-42-9b |
त्वग्घ्राणश्रोत्रचक्षूंषि रसना वाक्च संयताः। विशुद्धं च मनो यस्य बुद्धिश्चाव्यभिचारिणी।। | 14-42-10a 14-42-10b |
अष्टौ यस्याग्नयो ह्येते दहन्तेऽहङ्क्रियाः सदा। स तद्ब्रह्म शुभं याति तस्माद्भूयो न विद्यते।। | 14-42-11a 14-42-11b |
एकादश च यान्याहुरिन्द्रियाणि विशेषतः। अहङ्कारात्प्रसूतानि तानि वक्ष्यामि नामतः।। | 14-42-12a 14-42-12b |
श्रोत्रं त्वक् चक्षुषी जिह्वा नासिका चैव पञ्चमी। पादौ पायुरुपस्थश्च हस्तौ वाग्दशमी भवेत्।। | 14-42-13a 14-42-13b |
इन्द्रियग्राम इत्येष मन एकादशं भवेत्। एतं ग्रामं जयेत्पूर्वं ततो ब्रह्म प्रकाशते।। | 14-42-14a 14-42-14b |
बुद्धीन्द्रियाणि पञ्चाहुः पञ्च कर्मेन्द्रियाणि च। श्रोत्रादीन्यपि पञ्चाहुर्बुद्धियुक्तानि तत्त्वतः।। | 14-42-15a 14-42-15b |
अविशेषाणि चान्यानि कर्मयुक्तानि यानि तु। उभयत्र मनो ज्ञेयं बुद्धिस्तु द्वादशी भवेत्।। | 14-42-16a 14-42-16b |
इत्युक्तानीन्द्रियाण्येतान्येकादश यथाक्रमम्। मन्यन्ते कृतमित्येवं विदित्वा तानि पण्डिताः।। | 14-42-17a 14-42-17b |
`त्रीणि स्थानानि भूतानां चतुर्थं नोपपद्यते।' स्थलमापस्तथाऽ।?काशं जन्म चापि चतुर्विधम्।। | 14-42-18a 14-42-18b |
अण्डजोद्भिज्जसंस्वेदजरायुजमथापि च। चतुर्धा जन्म इत्येतद्भूतग्रामस्य लक्ष्यते।। | 14-42-19a 14-42-19b |
अपराण्यथ भूतानि खेचराणि तथैव च। अण्डजानि विजानीयात्सर्वांश्चैव सरीसृपान्।। | 14-42-20a 14-42-20b |
स्वेदजाः कृमयः प्रोक्ता जन्तवश्च यथाक्रमम्। जन्मद्वितीयमित्येतज्जघन्यतरमुच्यते।। | 14-42-21a 14-42-21b |
भित्त्वा तु पृथिवीं यानि जायन्ते कालपर्ययात्। उद्भिज्जानि च तान्याहुर्भूतानि द्विजसत्तमाः।। | 14-42-22a 14-42-22b |
द्विपादबहुपादानि तिर्यग्गतिमतीनि च। जरायुजानि भूतानि विकृतान्यपि सत्तमाः।। | 14-42-23a 14-42-23b |
द्विविधा खलु विज्ञेया ब्रह्मयोनिः सनातना। तपः कर्म च यत्पुण्यमित्येष विदुषां नयः।। | 14-42-24a 14-42-24b |
विविधं कर्म विज्ञेयमिज्या दानं च तन्मखे। वेदस्याध्ययनं पुण्यमिति वृद्धानुशासनम्।। | 14-42-25a 14-42-25b |
एतद्यो वेत्ति विधिवत्स मुक्तः स्याद्द्विजर्षभाः। विमुक्तः सर्वपापेभ्य इति चैव निबोधत।। | 14-42-26a 14-42-26b |
`अतः परं प्रवक्ष्यामि सर्वं विविधमिन्द्रियम्।।' | 14-42-27a |
आकाशं प्रथमं भूतं श्रोत्रमध्यात्ममुच्यते। अधिभूतं तथा शब्दो दिशश्चात्राधिदैवतम्।। | 14-42-28a 14-42-28b |
द्वितीयं मारुतं भूतं त्वगध्यात्मं च विश्रुतम्। स्प्रष्टव्यमधिभूतं तु विद्युत्तत्राधिदैवतम्।। | 14-42-29a 14-42-29b |
तृतीयं ज्योतिरित्याहुश्चक्षुरध्यात्ममिष्यते। अधिभूतं ततो रूपं सूर्यस्तत्राधिदैवतम्।। | 14-42-30a 14-42-30b |
चतुर्थमापो विज्ञेयं जिह्वा चाध्यात्ममिष्यते। अधिभूतं रसश्चात्र सोमस्तत्राधिदैवतम्।। | 14-42-31a 14-42-31b |
पृथिवी पञ्चमं भूतं घ्राणश्चाध्यात्ममुच्यते। अधिभूतं तथा गन्धो वायुस्तत्रादिदैवतम्।। | 14-42-32a 14-42-32b |
एषु पञ्चसु भूतेषु चतुष्टयविधिः स्मृतः। अतः परं प्रवक्ष्यामि सर्वं त्रिविधमिन्द्रियम्।। | 14-42-33a 14-42-33b |
पादावध्यात्ममित्याहुर्ब्राह्मणास्तत्वदर्शिनः। अधिभूतं तु गन्तव्यं विष्णुस्तत्राधिदैवतम्।। | 14-42-34a 14-42-34b |
अवाग्गतिरपानश्च पायुरध्यात्ममिष्यते। अधिभूतं विसर्गश्च मित्रस्तत्राधिदैवतम्।। | 14-42-35a 14-42-35b |
प्रजनः सर्वभूतानामुपस्थोऽध्यात्ममुच्यते। अधिभूतं तथा शुक्रं दैवतं च प्रजापतिः।। | 14-42-36a 14-42-36b |
हस्तावध्यात्ममित्याहुरद्यात्मविदुषो जनाः। अधिभूतं च कर्माणि शक्रस्तत्राधिदैवतम्।। | 14-42-37a 14-42-37b |
वैश्वदेवी मनःपूर्वा वागध्यात्ममिहोच्यते। वक्तव्यमधिभूतं च वह्निस्तत्राधिदैवतम्।। | 14-42-38a 14-42-38b |
अध्यात्मं मन इत्याहुः पञ्चभूतात्मचारकम्। अधिभूतं च सङ्कल्पश्चन्द्रमाश्चाधिदैवतम्।। | 14-42-39a 14-42-39b |
अहङ्कारस्तथाऽध्यात्मं सर्वसंसारकारणम्। अभिमानोऽधिभूतं च रुद्रस्तत्राधिदैवतम्।। | 14-42-40a 14-42-40b |
अध्यात्मं बुद्धिरित्याहुः षडिन्द्रियविचारिणी। अधिभूतं तु विज्ञेयमहस्तत्राधिदैवतम्।। | 14-42-41a 14-42-41b |
यथावदध्यात्मविधिरेष वः कीर्तितो मया। ज्ञानमस्य हि धर्मज्ञाः प्राप्तं ज्ञानवतामिह।। | 14-42-42a 14-42-42b |
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थाश्च महाभूतानि पञ्च च। सर्वाण्येतानि संधाय मनसा सम्प्रधारयेत्।। | 14-42-43a 14-42-43b |
क्षीणे मनसि सर्वस्मिन्न जन्मसुखमिष्यते। ज्ञानसम्पन्नसत्त्वानां तत्सुखं विदुषां मतम्।। | 14-42-44a 14-42-44b |
अतः परं प्रवक्ष्यामि सूक्ष्मभावकरीं शिवाम्। निवृत्तिं सर्वभूतेषु मृदुना दारुणेन वा।। | 14-42-45a 14-42-45b |
गुणागुणमनासङ्गमेकचर्यमनन्तरम्। एतद्ब्राह्मणजं वृत्तमाहुरेकपदं सुखम्।। | 14-42-46a 14-42-46b |
विद्वान्कूर्म इवाङ्गानि कामान्संहृत्य सर्वशः। विरजाः सर्वतो मुक्तो यो नरः स सुखी सदा।। | 14-42-47a 14-42-47b |
कामानात्मनि संयम्य क्षीणतृष्णः समाहितः। सर्वभूतसुहृन्मैत्रो ब्रह्मभूयाय कल्पते।। | 14-42-48a 14-42-48b |
इन्द्रियाणां निरोधेन सर्वेषां विषयैषिणाम्। मुनेर्जनपदत्यागादध्यात्माग्निः समिध्यते।। | 14-42-49a 14-42-49b |
यथाऽग्निरिन्धनैरिद्धो महाज्योतिः प्रकाशते। तथेन्द्रियनिरोधेन महानात्मा प्रकाशतदे।। | 14-42-50a 14-42-50b |
यदा पश्यति भूतानि प्रसन्नात्माऽत्मनो हृदि। स्वयंज्योतिस्तदासूक्ष्मात्सूक्ष्मं प्राप्नोत्यनुत्तमम्।। | 14-42-51a 14-42-51b |
अग्नी रूपं रसं स्रोतो वायुः स्पर्शनमेव च। मही गन्धधरा घ्राणमाकाशः श्रवणं तथा। `दृश्यमादित्यमेवाहुरध्यात्मविदुषो जनाः।।' | 14-42-52a 14-42-52b 14-42-53c |
रोगशोकसमाविष्टं पञ्चस्रोतःसमावृतम्। पञ्चभूतसमायुक्तं नवद्वारं द्विदैवतम्।। | 14-42-53a 14-42-53b |
रजस्वलमथादृश्यं त्रिगुणं सप्तधातुकम्। संसर्गाभिरतं मूढं शरीरमिति धारणा।। | 14-42-54a 14-42-54b |
दुश्चरं जीवलोकेऽस्मिन्सत्वं प्रति समाश्रितम्। एतदेव हि लोकेऽस्मिन्कालचक्रं प्रवर्तते।। | 14-42-55a 14-42-55b |
एतन्महार्णवं घोरमगाधं मोहसंझितम्। विसृजन्संक्षिपेच्चैव मोहयन्स्वापयञ्जगत्।। | 14-42-56a 14-42-56b |
कामं क्रोधं भयं लोभमभिद्रोहमथानृतम्। इन्द्रियाणां निरोधेन सतस्त्यजति दुस्त्यजान्।। | 14-42-57a 14-42-57b |
यस्यैते निर्जिता लोके त्रिगुणाः पञ्चधातवः। व्योम्नि तस्य परं स्थानमानन्तमथ लक्ष्यते।। | 14-42-58a 14-42-58b |
पञ्चेन्द्रियमहाकूलां मनःस्रोतोभयावहाम्। नदीं मोहह्रदां तीर्त्वा कामक्रोधावुभौ जयेत्।। | 14-42-59a 14-42-59b |
स सर्वदोषनिर्मुक्तस्ततः पश्यति तत्परम्। मनो मनसि सन्धाय पश्यन्नात्मानमात्मनि।। | 14-42-60a 14-42-60b |
सर्ववित्सर्वभूतेषु द्रक्ष्यत्यात्मानमात्मनि। एकधा बहुधा चैव विकुर्वाणस्ततस्ततः।। | 14-42-61a 14-42-61b |
ध्रुवं पश्यति रूपाणि दीपाद्दीपशतं यथा। स वै विष्णुश्च मित्रश्च वरुणोऽग्निः प्रजापतिः।। | 14-42-62a 14-42-62b |
स हि धाता विधाता च स प्रभुः सर्वतोमुखः। हृदयं सर्वभूतानां महानात्मा प्रकाशते।। | 14-42-63a 14-42-63b |
तं विप्रसङ्घाश्च सुरासुराश्च यक्षाः पिशाचाः पितरो वयांसि। रक्षोगणा भूतगणाश्च सर्वे महर्षयश्चैव सदा स्तुवन्ति।। | 14-42-64a 14-42-64b 14-42-64c 14-42-64d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि द्विचत्वारिंशोऽध्यायः।। 42 ।। |
14-42-7 लोकप्रजनसंयुक्ता इति क.ट.पाठः।। 14-42-9 इत्युक्ता इति क.पाठः।। 14-42-25 जातस्याध्ययनं पुण्यमिति झ.पाठः।। 14-42-64 पितरश्च सिद्धा इति क.पाठः।।
आश्वमेधिकपर्व-041 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-043 |