महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-054
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कृष्णेनोदङ्कंप्रति स्वमाहात्म्यप्रकाशनपूर्वकं कुरूणां स्ववचनातिक्रमणादिरूपस्वापराधेनैव निधनोक्तिः।। 1 ।।
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उदङ्क उवाच। | 14-54-1x |
ब्रूहि केशव तत्त्वेन त्वमध्यात्ममनिन्दितम्। श्रुत्वा श्रेयोऽभिधास्यामि शापं वा ते जनार्दन।। | 14-54-1a 14-54-1b |
वासुदेव उवाच। | 14-54-2x |
तमो रजश्च सत्वं च विद्धि भावान्मदाश्रयान्। `स्थितिसृष्टिलयाध्यक्षो विष्णुब्रह्मेशसंज्ञितः।। | 14-54-2a 14-54-2b |
कदाचित्तमसा रुद्रो विष्णुः सत्त्वगुणे स्थितः। रजस्यपि तथा ब्रह्मा स्वगुणान्यगुणानुभौ।। | 14-54-3a 14-54-3b |
प्रणवात्मा च शब्दादींस्त्रिगुणात्मा चराचरम्।' तथा रुद्रान्वसून्वाऽपि विद्धि मत्प्रभवान्द्विज।। | 14-54-4a 14-54-4b |
मयि सर्वाणि भूतानि सर्वभूतेषु चाप्यहम्। स्थित इत्यभिजानीहि मा ते भूदत्र संशयः।। | 14-54-5a 14-54-5b |
तथा दैत्यगणान्सर्वान्यक्षगन्धर्वराक्षसान्। नागानप्सरसश्चैव विद्धि मत्प्रभवान्द्विज।। | 14-54-6a 14-54-6b |
सदसच्चैव यत्प्राहुरव्यक्तं व्यक्तमेव च। अक्षरं च क्षरं चैव सर्वमेतन्मदात्मकम्।। | 14-54-7a 14-54-7b |
ये चाश्रमेषु वै धर्माश्चतुर्षु विहिता मुने। वैदिकानि च कर्माणि विद्धि सर्वं मदात्मकम्।। | 14-54-8a 14-54-8b |
असच्च सच्चैव च यद्विश्वं सदसतः परम्। ततः परतरं नास्ति देवदेवात्सनातनात्।। | 14-54-9a 14-54-9b |
ओंकारप्रभवान्वेदान्विद्धि मां त्वं भृगूद्वह। यूपं सोमं चरुं होमं त्रिदशाप्यायनं मखे।। | 14-54-10a 14-54-10b |
होतारमपि हव्यं च विद्धिं मां भृगुनन्दन। अध्वर्युः कल्पकृच्चापि हविः परमसंस्कृतम्।। | 14-54-11a 14-54-11b |
उद्गाता चापि मां स्तौति गीतघोषैर्महाध्वरे। प्रायश्चित्तेषु मां ब्रह्मञ्शान्तिमङ्गलवाचकाः।। | 14-54-12a 14-54-12b |
स्तुवन्ति विश्वकर्माणं सततं द्विजसत्तम। मम विद्धि सुतं धर्ममग्रजं द्विजसत्तम।। | 14-54-13a 14-54-13b |
मानसं दयितं विप्र सर्वभूतदयात्मकम्। तत्राहं वर्तमानैश्च निवृत्तैश्चैव मानवैः।। | 14-54-14a 14-54-14b |
बह्वीः संसरमाणो वै योनीर्वर्तामि सत्तम। लोकसरंक्षणार्थाय धर्मसंस्थापनाय च।। | 14-54-15a 14-54-15b |
तैस्तैर्वेषैश्च रूपैश्च त्रिषु लोकेषु भार्गव। अहं विष्णुरहं ब्रह्मा शक्रोऽथ प्रभवाप्ययः।। | 14-54-16a 14-54-16b |
भूतग्रामस्य सर्वस्य स्रष्टा संहार एव च। अधर्मे वर्तमानानां सर्वेषामहमच्युतः।। | 14-54-17a 14-54-17b |
धर्मस्य सेतुं बध्नामि चलिते चलिते युगे। तास्ता योनीः प्रविश्याहं प्रजानां हितकाम्यया।। | 14-54-18a 14-54-18b |
यदा त्वहं देवयोनौ वर्तामि भृगुनन्दन। तदाऽहं देववत्सर्वमाचरामि न संशयः।। | 14-54-19a 14-54-19b |
यदा गन्धर्वयोनौ तु वर्तामि भृगुनन्दन। तदा गन्धर्ववच्चेष्टा सर्वाश्चेष्टामि भार्गव।। | 14-54-20a 14-54-20b |
नागयोनौ यदा चैव तदा वर्तामि नागवत्। यक्षराक्षसयोन्योस्तु यथावद्विचराम्यहम्।। | 14-54-21a 14-54-21b |
मानुष्ये वर्तमाने तु कृपणं याचिता मया। न च ते जातसम्मोहा वचोऽगृह्णन्त मोहिताः।। | 14-54-22a 14-54-22b |
भयं च महदुद्दिश्य त्रासिताः कुरवो मया। क्रुद्धेन भूत्वा तु पुर्यथावदनुदर्शिताः।। | 14-54-23a 14-54-23b |
तेऽधर्मेणेह संयुक्ताः परीताःक कालधर्मणा। धर्मेण निहता युद्धे गताः स्वर्गं न संशयः।। | 14-54-24a 14-54-24b |
लोकेषु पाण्डवाश्चैव गताः ख्यातिं द्विजोत्तम। एतत्ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि।। | 14-54-25a 14-54-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि चतुःपञ्चाशोऽध्यायः।। 54 ।। |
14-54-8 दैवतानि च कर्माणि विद्धि सर्वान्गुणान्ममेति ट.थ.पाठः।।
14-54-10 ओंकारप्रमुखानिति झ.पाठः।।
14-54-11 अध्वर्युः कल्पन इति ट.थ.पाठः।।
14-54-12 गतमोक्षे महाध्वरे इति ट.थ.पाठः।।
14-54-14 सर्वभूतगुणात्मकमिति क.ट.थ. पाठः।।
14-54-19 पुनस्त्वहं देवयोनाविति ट.थ.पाठः।।
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