महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-015
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वैशंपायेन जनमेजयंप्रति युधिष्ठिरस्य प्रजापालनकाले प्रजादीनामभ्युदयप्रकारवर्णनम्।। 1 ।।
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`वैशम्पायन उवाच। | 14-15-1x |
स समाश्वास्य पितरं प्रज्ञाचक्षुषमीश्वरम्। अन्वशासत धर्मात्मा पृथिवीं भ्रातृभिः सह।। | 14-15-1a 14-15-1b |
यथा मनुर्महाराजो रामो दाशरथिर्यथा। तथा भरतसिंहोऽपि पालयामास मेदिनीम्।। | 14-15-2a 14-15-2b |
नाधर्म्यमभवत्तत्र सर्वो धर्मरुचिर्जनः। बभूव नरशार्दूल यथा कृतयुगे तथा।। | 14-15-3a 14-15-3b |
कलिमासन्नमाविष्टं निवार्य नृपनन्दनः। भ्रातृभिः सहितो धीमान्बभौ धर्मबलोद्धतः।। | 14-15-4a 14-15-4b |
ववर्ष भगवान्देवः काले देशे यथेप्सितम्। निरामयं जगदभूत्क्षुत्पिपासे न किञ्चन।। | 14-15-5a 14-15-5b |
आधिर्नास्ति मनुष्याणां व्यसने नाभवन्मतिः। ब्राह्म्णप्रमुखा वर्णास्ते स्वधर्मोत्तराः शुभाः।। | 14-15-6a 14-15-6b |
धर्मसत्यप्रधानाश्च सत्यं सद्विषयान्वितम्। धर्मासनस्थः सद्भिः स स्त्रीबालातुरवृद्धकान्। वर्णक्रमान्पूर्णभृतान्साकल्याद्रक्षणोद्यतः।। | 14-15-7a 14-15-7b 14-15-7c |
अवृत्तिवृत्तिदानाद्यैर्यज्ञाद्यैर्व्याधितैरपि। आमुष्मिकं भयं नास्ति लौकिकं कृतमेव।। | 14-15-8a 14-15-8b |
स्वर्गलोकोपमो लोकस्तदा तस्मिन्प्रशासति। बभूव सुखमेवाग्रं तद्विशिष्टतरं परम्।। | 14-15-9a 14-15-9b |
नार्यः पतिव्रताः सर्वा रूपवत्यः स्वलंकृताः। यथोक्तवृत्ताः स्वगुणैर्बभूवुः प्रीतिहेतवः।। | 14-15-10a 14-15-10b |
पुमांसः पुण्यशीलाढ्याः स्वंस्वं धर्ममनुव्रताः। सुखिनः सूक्ष्ममप्येनो न कुर्वन्ति कदाचन।। | 14-15-11a 14-15-11b |
सर्वे नरांश्च नार्यश्च सततं प्रियवादिनः। अजिह्ममनसः शुक्ला बभूवुः श्रमवर्जिताः।। | 14-15-12a 14-15-12b |
भूषिताः कुण्डलैर्हारैः कटकैः कटिसूत्रकैः। सुवाससः सुगन्धाढ्याः प्रायशः पृथिवीतले।। | 14-15-13a 14-15-13b |
सर्वे ब्रह्मविदो विप्राः सर्वत्र परिनिष्ठिताः। वलीपलितहीनास्तु सुखिनो दीर्घदर्शिनः।। | 14-15-14a 14-15-14b |
इच्छा न जायतेऽन्यत्र वर्णेषु न च सङ्करः। मनुष्याणां महाराज मर्यादा सुव्यवस्थिता।। | 14-15-15a 14-15-15b |
तस्मिञ्शासति राजेन्द्रे मृगव्यालसरीसृपाः। अन्योन्यमपि चान्येषु न बाधन्ते कदाचन।। | 14-15-16a 14-15-16b |
गावः सुक्षीरभूयिष्ठाः सुस्ववालमुखोदराः। अपीडिताः कर्षकाद्यैर्हृतव्याधिकवत्सकाः।। | 14-15-17a 14-15-17b |
अवन्ध्यकाला मनुजाः पुरुषार्थेषु च क्रमात्। विषयेष्वनिषिद्धेषु वेदशास्त्रेषु चोद्यताः।। | 14-15-18a 14-15-18b |
सुवृत्ता वृषभाः पुष्टा रसनाभाः सुखोदयाः।। | 14-15-19a |
अतीव मधुरः शब्दः स्पर्शश्चातिसुखं रसम्। करूपं दृष्टिक्षमं रम्यं मनोज्ञं गन्धवद्बभौ।। | 14-15-20a 14-15-20b |
धर्मार्थकामसंयुक्तं मोक्षाभ्युदयसाधनम्। प्रह्लादजननं पुण्यं सम्बभूवाथ मानसम्।। | 14-15-21a 14-15-21b |
स्थावरा बहुपुष्पाढ्याः फलच्छायावहास्तथा। सुस्पर्शा विषहीनाश्च सुपत्रत्वक्प्ररोहिणः।। | 14-15-22a 14-15-22b |
मनोनुकूलाः सर्वेषां चेष्टाभूतापवर्जिताः। तथा बभूव राजर्षिस्तद्वृत्तमभवद्भुवि।। | 14-15-23a 14-15-23b |
सर्वलक्षणसम्पन्नाः पाण्डवा धर्मचारिणः। ज्येष्ठानुवर्तिनः सर्वे बभूवुः प्रियदर्शनाः।। | 14-15-24a 14-15-24b |
सिंहोरस्का जितक्रोधास्तेजोबलसमन्विताः। आजानुबाहवः सर्वे दानशीला जितेन्द्रियाः।। | 14-15-25a 14-15-25b |
तेषु शासत्सु धरणीमृतवः स्वगुणैर्बभुः। सुखोदयाय वर्तन्ते ग्रहास्तारागणैः सह।। | 14-15-26a 14-15-26b |
मही च सस्यबहुला सर्वरत्नगुणोदया। कामधुग्धेनुवद्भोगान्फलन्ति स्म सहस्रधा।। | 14-15-27a 14-15-27b |
मन्वादिभिः कृताः पूर्वं मर्यादा मानवेषु याः। अनतिक्रम्य ताः सर्वाः कुलेषु समयानि च। अन्वशासत राजानो धर्मपुत्रप्रियंकराः।। | 14-15-28a 14-15-28b 14-15-28c |
महाकुलानि धर्मिष्ठा वर्धयन्तो विशेषतः। मनुप्रणीतया वृत्त्या तेऽन्वशासनसुन्धराम्।। | 14-15-29a 14-15-29b |
राजवृत्तिर्हि सा शश्वद्धर्मिष्ठाऽभून्महीतले। प्रायो लोकमतिस्तान राजवृत्तानुगामिनी।। | 14-15-30a 14-15-30b |
एवं भारतवर्षं स्वं राजा स्वर्गं सुरेन्द्रवत्। शशास जिष्णुना सार्धं गोत्रां गाण्डीवधन्वन'।। | 14-15-31a 14-15-31b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अश्वमेधपर्वणि पञ्चदशोऽध्यायः।। 15 ।। |
14-15-31 शशास विष्णुना सार्धं गुप्तो गाण्डीवधन्वनेति थ.पाठः।।
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