महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-004
← आश्वमेधिकपर्व-003 | महाभारतम् चतुर्दशपर्व महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-004 वेदव्यासः |
आश्वमेधिकपर्व-005 → |
व्यासेन युधिष्ठिरंप्रति संवर्तमरुत्तीयोपाख्यानकथनारम्भः।। 1 ।।
|
मरुत्तेन राज्ञा हिमवदुत्तरपार्श्वे सौवणैंरेव कुण्डभाडाद्युपकरणैर्यज्ञारम्भः।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 14-4-1x |
शुश्रूषे तस्य धर्मज्ञ राजर्षेः परिकीर्तनम्। द्वैपायन मरुत्तस्य कथां प्रब्रूहि मेऽनघ।। | 14-4-1a 14-4-1b |
व्यास उवाच। | 14-4-2x |
आसीत्कृतयुगे तात मनुर्दण्डिधरः प्रभुः। तस्य पुत्रो महोष्वासः प्रजातिरभवन्नृपः।। | 14-4-2a 14-4-2b |
प्रजातेरभवत्पुत्रः क्षुत इत्यभिविश्रुतः। क्षुतस्य पुत्र इक्ष्वाकुर्महीपालोऽभवत्प्रभुः।। | 14-4-3a 14-4-3b |
तस्य पुत्रशतं राजन्नासीत्परमधार्मिकम्। तांस्तु सर्वान्महीपालानिक्ष्वाकुरकरोत्प्रभुः।। | 14-4-4a 14-4-4b |
तेषां ज्येष्ठस्तु विंशोऽभूत्प्रतिमानं धनुष्मताम्। विंशस्य पुत्रः कल्याणो विविंशो नाम भारत।। | 14-4-5a 14-4-5b |
विविंशस्य सुता राजन्बभूवुर्दश पञ्च च। सर्वे धनुषि विक्रान्ता ब्रह्मण्याः सत्यवादिनः।। | 14-4-6a 14-4-6b |
दानधर्मरताः शान्ताः सततं प्रियवादिनः। तेषां ज्येष्ठः खनीनेत्रः स तान्सर्वानपीडयत्।। | 14-4-7a 14-4-7b |
खनीनेत्रस्तु विक्रान्तो जित्वा राज्यमकण्टकम्। नाशकद्रक्षितुं राज्यं नान्वरज्यन्त तं प्रजाः।। | 14-4-8a 14-4-8b |
तमपास्य च तद्राज्ये तस्य पुत्रं सुवर्चसम्। अभ्यषिञ्चन्त राजेन्द्र मुदिता ह्यभवंस्तदा।। | 14-4-9a 14-4-9b |
स पितुर्विक्रियां दृष्ट्वा राज्यान्निरसनं च तत्। नियतो वर्तयामास प्रजाहितचिकीर्षया।। | 14-4-10a 14-4-10b |
ब्रह्मण्यः सत्यवादी च शुचिः शमदमान्वितः। प्रजास्तं चान्वरज्यन्त धर्मनित्यं मनस्विनम्।। | 14-4-11a 14-4-11b |
तस्य धर्मप्रवृत्तस्य व्यशीर्यत्कोशवाहनम्। तं क्षीणकोशं सामन्ताः समन्तात्पर्यपीडयन्।। | 14-4-12a 14-4-12b |
स पीड्यमानो बहुभिः क्षीणकोशाश्ववाहनः। आर्तिमार्च्छत्परां राजा सह भृत्यैः पुरेण च।। | 14-4-13a 14-4-13b |
न चैनमभिहन्तुं ते शक्नुवन्ति बलक्षये। सम्यग्वृत्तो हि राजा स धर्मनित्यो युधिष्ठिर।। | 14-4-14a 14-4-14b |
यदा तु परमामार्तिं गतोऽसौ सपुरो नृपः। ततः प्रदध्मौ स करं प्रादुरासीत्ततो बलम्।। | 14-4-15a 14-4-15b |
ततस्तानजयत्सर्वान्प्रातिसीमान्नराधिपान्। एतस्मात्कारणाद्राजन्विश्रुतः स करंधमः।। | 14-4-16a 14-4-16b |
आवीक्षित्तस्य पुत्रोऽभूत्त्रेतायुगमुखे पुरा। इन्द्रादनवरः श्रीमान्देवैरपि सुदुर्जयः।। | 14-4-17a 14-4-17b |
`कारंधम इति ख्यातो बभूव जगतीपतिः।' तस्य सर्वे महीपाला वर्तन्ते स्म वशे तदा। स हि सम्राडभूत्तेषां वृत्तेन च बलेन च।। | 14-4-18a 14-4-18b 14-4-18c |
अविक्षिन्नाम धर्मात्मा शौर्येणेन्द्रसमोऽभवत्। यज्ञशीलो धर्मरतिर्धृतिमान्संयतेन्द्रियः।। | 14-4-19a 14-4-19b |
तेजसाऽऽदित्यसदृशः क्षमया पृथिवीसमः। बृहस्पतिसमो बुद्ध्या हिमवानिव सुस्थिरः।। | 14-4-20a 14-4-20b |
कर्मणा मनसा वाचा दमेन प्रशमेन च। मनांस्याराधयामास प्रजानां स महीपतिः।। | 14-4-21a 14-4-21b |
य ईजे हयमेधानां शतेन विधिवत्प्रभुः। याजयामास यं विद्वान्स्वयमेवाङ्गिराः प्रभुः।। | 14-4-22a 14-4-22b |
तस्य पुत्रोऽतिचक्राम पितरं गुणवत्तया। मरुत्तो नाम धर्मज्ञश्चक्रवर्ती महायशाः। नागायुतसमप्राणः साक्षाद्विष्णुरिवापरः।। | 14-4-23a 14-4-23b 14-4-23c |
स यक्ष्यमाणो धर्मात्मा शातकुम्भमयान्युत। कारयामास शुभ्राणि भाजनानि सहस्रशः।। | 14-4-24a 14-4-24b |
मेरुं पर्वतमासाद्य हिमवत्पार्श्व उत्तरे। काञ्चनः सुमहान्पादस्तत्र कर्म चकार सः।। | 14-4-25a 14-4-25b |
ततः कुण्डानि पात्रीश्च पिठराण्यासंनानि च। चक्रुः सुवर्णकर्तारो येषां सङ्ख्या न विद्यते।। | 14-4-26a 14-4-26b |
तस्यैव च समीपे तु यज्ञवाटो बभूव ह। ईजे तत्र स धर्मात्मा विदिवत्पृथिवीपतिः। मरुत्तः सहितैः सर्वैः प्रजापालैर्नराधिपः।। | 14-4-27a 14-4-27b 14-4-27c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अश्वमेधपर्वणि चतुर्थाऽध्यायः।। 4 ।। |
14-4-1 शुश्रूषे श्रोतुमिच्छामि।। 14-4-21 पूर्वजानां महीपतिरिति क.थ.पाठः।। 14-4-25 दैवं तत्र समासाद्येति क.थ.पाठः।।
आश्वमेधिकपर्व-003 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-005 |