महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-082
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उलूप्यार्जुनंप्रति चित्राङ्गदादीनां समराङ्गणागमने कारणाभिधानम्।। 1 ।। तथा बभ्रुवाहनेन तस्य पराजये विस्तरेण हेतुकथनम्।। 2 ।।
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अर्जुन उवाच। | 14-82-1x |
किमागमनकृत्यं ते कौरव्यकुलनन्दिनि। मणलूरपतेर्मातुस्तथैव च रणाजिरे।। | 14-82-1a 14-82-1b |
कच्चित्कुशलकामासि राज्ञोऽस्य भुजगात्मजे। मम वा चपलापाङ्गि कच्चित्वं शुभमिच्छसि।। | 14-82-2a 14-82-2b |
कच्चित्ते पृथुलश्रोणि नाप्रियं प्रियदर्शने। अकार्षमहमज्ञानादयं वा बभ्रुवाहनः।। | 14-82-3a 14-82-3b |
कच्चिन्नु राजपूत्री ते सपत्नी चैत्रवाहनी। चित्राङ्गदा वरारोहा नापराध्यति किञ्चन।। | 14-82-4a 14-82-4b |
तमुवाचोरगपतेर्दुहिता प्रहसन्त्यथ। न मे त्वमपराद्धोसि न हि मे बभ्रुवाहनः। न जनित्री तथाऽस्येयं मम यो प्रेष्यवत्थिता।। | 14-82-5a 14-82-5b 14-82-5c |
श्रूयतां यद्यथा चेदं मया सर्वं विचेष्टितम्। न मे कोपस्त्वया कार्यः शिरसा त्वां प्रसादये।। | 14-82-6a 14-82-6b |
त्वत्प्रियार्थं हि कौरव्य कृतमेतन्मया विभो। यत्तच्छृणु महाबाहो निखिलेन धनंजय।। | 14-82-7a 14-82-7b |
महाभारतयुद्धे यत्त्वया शान्तनवो नृपः। अधर्मेण हतः पार्थ तस्यैषा निष्कृतिः कृता।। | 14-82-8a 14-82-8b |
न हि भीष्मस्त्वया वीर युद्ध्यमानो हि पातितः। शिखण्डिना तु संयुक्तस्तमाश्रित्य हतस्त्वया।। | 14-82-9a 14-82-9b |
तस्य शान्तिमकृत्वा त्वं त्यजेथा यदि जीवितम्। कर्मणा तेन पापेन पतेथा निरये ध्रुवम्। एषा तु विहिता शान्तिः पुत्राद्यां प्राप्तवानसि।। | 14-82-10a 14-82-10b 14-82-10c |
वसुभिर्वसुधापाल गङ्गया च महामते। पुरा हि श्रुतमेतत्ते वसुभिः कथितं मया।। | 14-82-11a 14-82-11b |
गङ्गायास्तीरमाश्रित्य हते शान्तनवे नृप। आप्लुत्य देवा वसवः समेत्य च महानदीम्। इदमूचुर्वचो घोरं भागीरथ्या मते तदा।। | 14-82-12a 14-82-12b 14-82-12c |
एष शान्तनवो भीष्मो निहतः सव्यसाचिना। अयुद्ध्यमानः सङ्ग्रामे संसक्तोऽन्येन भामिनि।। | 14-82-13a 14-82-13b |
तदनेनानुषङ्गेण वयमद्य धनञ्जयम्। शापेन योजयामेति तथाऽस्त्विति च साऽब्रवीत्।। | 14-82-14a 14-82-14b |
तदहं पितुरावेद्य प्रविश्य व्यथितेन्द्रिया। अभवं स च तच्छ्रुत्वा विषादमगमत्परम्।। | 14-82-15a 14-82-15b |
पिता तु मे वसून्गत्वा त्वदर्थे समयाचत। पुनः पुनः प्रसाद्यैतांस्त एनमिदमब्रुवन्।। | 14-82-16a 14-82-16b |
पुत्रस्तस्य महाभाग मणलूरेश्वरो युवा। स एनं रणमध्यस्थः शरैः पातयिता भुवि।। | 14-82-17a 14-82-17b |
एवं कृते स नागेन्द्र मुक्तशापो भविष्यति। गच्छेति वसुभिश्चोक्तो मम चेदं शशंस सः।। | 14-82-18a 14-82-18b |
तच्छ्रुत्वा त्वं मया तस्माच्छापादसि विमोक्षितः। न हि त्वां देवराजोऽपि समरेषु पराजयेत्।। | 14-82-19a 14-82-19b |
आत्मा पुत्रः स्मृतस्तस्मात्तेनेहासि पराजितः। न हि दोषो मम मतः कथं वा मन्यसे विभो।। | 14-82-20a 14-82-20b |
इत्येवमुक्तो विजयः प्रसन्नात्माऽब्रवीदिदम्। सर्वं मे सुप्रियं देवि यदेतत्कृतवत्यसि।। | 14-82-21a 14-82-21b |
इत्युक्त्वा सोऽब्रवीत्पुत्रं मणलूरपतिं जयः। चित्राङ्गदायाः शृण्वन्त्याः कौरव्यदुहितुस्तदा।। | 14-82-22a 14-82-22b |
युधिष्ठिरस्याश्वमेधः परिचैत्रीं भविष्यति। तत्रागच्छेः सहामात्यो मातृभ्यां सहितो नृप।। | 14-82-23a 14-82-23b |
इत्येवमुक्तः पार्थेन स राजा बभ्रुवाहनः। उवाच पितरं धीमानिदमस्राविलेक्षणः।। | 14-82-24a 14-82-24b |
उपयास्यामि धर्मज्ञ भवतः सासनादहम्। अश्वमेधे महायज्ञे द्विजातिपरिवेषकः।। | 14-82-25a 14-82-25b |
मम त्वनुग्रहार्थाय प्रविशस्व पुरं स्वकम्। भार्याभ्यां सह धर्मज्ञ माभूत्तेऽत्र विचारणा।। | 14-82-26a 14-82-26b |
उषित्वेह निशामेकां सुखं स्वभवने प्रभो। पुनरश्वानुगमनं कर्तासि जयतांवर।। | 14-82-27a 14-82-27b |
इत्युक्ताः स तु प्रत्रेण तदा वानरकेतनः। स्मयन्प्रोवाच कौन्तेयस्तदा चित्राङ्गदासुतम्।। | 14-82-28a 14-82-28b |
विदितं ते महाबाहो यथा दीक्षां चराम्यहम्। न स तावत्प्रवेक्ष्यामि पुरं ते पृथुलोचन।। | 14-82-29a 14-82-29b |
यथाकामं व्रजत्येष यज्ञियाश्वो नरर्षभ। स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि न स्थानं विद्यते मम।। | 14-82-30a 14-82-30b |
वैशम्पायन उवाच। | 14-82-31x |
स तत्र विधिवत्तेन पूजितः पाकशासनिः। | 14-82-31a |
भार्याभ्यामभ्यनुज्ञातः प्रायाद्भरतसत्तमः।। | 14-82-32a |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि द्व्यशीतितमोऽध्यायः।। 82 ।। |
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