महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-117
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कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रत्यश्वत्थगोब्राह्मणमहिमप्रशंसनपूर्वकं ब्राह्मणभ्रंशकदुष्कर्मकथनम्।। 1 ।।
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युधिष्ठिर उवाच। | 14-117-1x |
कीदृशानां तु शूद्राणां नानुगृह्णासि चार्चनम्। उद्वेगस्तव कस्माद्धि तन्मे ब्रूहि सुरेश्वर।। | 14-117-1a 14-117-1b |
भगवानुवाच। | 14-117-2x |
अव्रतेनाप्यभक्तेन स्पृष्टां शूद्रेण चार्चनाम्। तां वर्जयामि राजेन्द्र श्वपाकविहितामिव।। | 14-117-2a 14-117-2b |
नन्वहं शङ्करश्चापि गावो विप्रास्तथैव च। अश्वत्थोऽमररूपं हि त्रयमेतद्युधिष्ठिर।। | 14-117-3a 14-117-3b |
एतत्त्रयं हि मद्भक्तो नावमन्येत कर्हिचित्। अवमानितमेतत्तु दहत्यासप्तमं कुलम्।। | 14-117-4a 14-117-4b |
अश्वत्थो ब्राह्मणा गावो मन्मयास्तारयन्ति हि। तस्मादेतत्प्रयत्नेन त्रयं पूजय पाण्डव।। | 14-117-5a 14-117-5b |
युधिष्ठिर उवाच। | 14-117-6x |
ब्राह्मणेनैव देहेन कथं शूद्रत्वमाप्नुयात्। ब्रह्म वा नश्यति कथं वक्तुं देव त्वमर्हसि।। | 14-117-6a 14-117-6b |
भगवानुवाच। | 14-117-7x |
कूपस्नानं तु यो विप्रः कुर्याद्द्वादशवार्षिकम्। स तेनैव शरीरेण शूद्रत्वं यात्यसंशयम्।। | 14-117-7a 14-117-7b |
यस्तु राजाश्रयेणैव जीवेद्द्वादशवार्षिकम्। स शूद्रत्वं व्रजेद्विप्रो वेदानां पारगोपि सन्।। | 14-117-8a 14-117-8b |
पत्तने नगरे वाऽपि यो द्वादशसमा वसेत्। स शूद्रत्वं व्रजेद्विप्रो नात्र कार्या विचारणा।। | 14-117-9a 14-117-9b |
उत्पादयति यः पुत्रं शूद्रायां काममोहितः। तस्य कायगतं ब्रह्म सद्य एव विनश्यति।। | 14-117-10a 14-117-10b |
यः सोमलतिकां विप्रः केवलं भक्षयेद्वृथा। तस्य कायगतं ब्रह्म सद्य एव विनश्यति।। | 14-117-11a 14-117-11b |
मैथुनं कुरुते यस्तु जिह्वायां ब्राह्मणो नृप। तस्य कायगतं ब्रह्म सद्य एव विनश्यति।। | 14-117-12a 14-117-12b |
विप्रत्वं दुर्लभं प्राप्य दुर्मर्गैरेवमादिभिः। विनाशयन्ति ये तत्तु ताञ्शोचामि युधिष्ठिर।। | 14-117-13a 14-117-13b |
तस्मात्सर्वप्रत्नेन मत्प्रियो यो युधिष्ठिर। जातिभ्रंशकरं कर्म न कुर्यादीदृशं द्विजः।। | 14-117-14a 14-117-14b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि वैष्णवधर्मपर्वणि सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः।। |
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