महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-115
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कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति विषुवाख्यपुण्यकालस्य महिमानुवर्णनपूर्वकं तत्र दानादिप्रशंसनम्।। 1 ।। तथा गायत्रीजपमाहात्म्यकथनम्, अश्वत्थमाहात्म्यकथनं च।। 2 ।। तथा नानाधर्मकथनपूर्वकं शिंशुमाराकृतिनिरूपणम्, पञ्चगव्यविधानकथनं च।। 3 ।।
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वैशम्पायन उवाच। | 14-115-1x |
केशवेनैवमाख्याते धर्मपुत्रः पुनःपुनः। पप्रच्छ दानकालस्य विशेषं च विधिं नृप।। | 14-115-1a 14-115-1b |
युधिष्ठिर उवाच। | 14-115-2x |
देव किं फलमाख्यातं विषुवेष्मवरेश्वर। सूर्येन्दूपप्लवे चैव वस्तुमर्हति तत्फलम्।। | 14-115-2a 14-115-2b |
भगवानुवाच। | 14-115-3x |
शृणुष्व राजन्विषुवे सोमार्कग्रहणेषु च। व्यतीपातेऽयने चैव दानं स्यादक्षयं फलम्।। | 14-115-3a 14-115-3b |
राजन्नयनयोर्मध्ये विषुवं सम्प्रचक्षते। समे रात्रिदिने तत्र सन्ध्यायां विषुवे नृप।। | 14-115-4a 14-115-4b |
ब्रह्माऽहं शङ्करश्चापि तिष्ठामः सहिताः सकृत्। क्रियाकरणकार्याणामेकीभावत्वकारणात्।। | 14-115-5a 14-115-5b |
अस्माकमेकीभूतानां निष्कलं परमं पदम्। तन्मुहूर्तं परं पुण्यं राजन्विषुवसंज्ञितम्।। | 14-115-6a 14-115-6b |
तदेवाद्यक्षरं ब्रह्म परं ब्रह्मेति कीर्तितम्। तस्मिन्मुहूर्ते सर्वे तु चिन्तयन्ति परं पदम्।। | 14-115-7a 14-115-7b |
देवाश्च वसवो रुद्राः पितरश्चाश्विनौ तथा। साध्याश्च विश्वे गन्धर्वाः सिद्धा ब्रह्मर्षयस्तथा।। | 14-115-8a 14-115-8b |
सोमादयो ग्रहाश्चैव सरितः सागरास्तथा। मरुतोत्सरसो नागा यक्षराक्षसगुह्यकाः।। | 14-115-9a 14-115-9b |
एते चान्ये च राजेन्द्र विषुवे संयतेन्द्रियाः। सोपवासाः प्रयत्नेन भवन्ति ध्यानतत्पराः।। | 14-115-10a 14-115-10b |
अन्नं गावस्तिलान्भूमिं कन्यादानं तथैव च। गृहमायतनं धान्यं वाहनं शयनं तथा। | 14-115-11a 14-115-11b |
यच्चान्यच्च मया प्रोक्तं तत्प्रयच्छ युधिष्ठिर। दीयते विषुवेष्वेवं श्रोत्रियेभ्यो विशेषतः।। | 14-115-12a 14-115-12b |
तस्य दानस्य कौन्तेय क्षयं नैवोपपद्यते। वर्धतेऽहरहः पुण्यं तद्दानं कोटिसंमितम्।। | 14-115-13a 14-115-13b |
विषुवे स्नपनं यस्तु मम कुर्याद्धरस्य वा। अर्चनां च यतान्यायं तस्य पुण्यफलं शृणु।। | 14-115-14a 14-115-14b |
दशजन्मकृतं पापं तस्य सद्यो विनश्यति। दशानामश्वमेधानामिष्टानां लभते फलम्।। | 14-115-15a 14-115-15b |
विमानं दिव्यमारूढः कामरूपी यथासुखम्। स याति मामकं लोकं रुद्रलोकमथापि वा।। | 14-115-16a 14-115-16b |
तत्रस्थैर्देवगन्धर्वेर्गीयमानो यथासुखम्। दिव्यवर्षसहस्राणि कोटिमेकं तु मोदते।। | 14-115-17a 14-115-17b |
ततश्चापि च्युतः कालादिह लोके द्विजोत्तमः। चतुर्णामपि वेदानां पारगो ब्रह्मिविद्भवेत्।। | 14-115-18a 14-115-18b |
चन्द्रसूर्यग्रहे व्योम्नि मम वा शङ्करस्य वा। गायत्रीं मामिकां वाऽपि जपेद्यः शङ्करस्य वा।। | 14-115-19a 14-115-19b |
शङ्खर्तूर्यस्वनैश्चैव कांस्यघण्टास्वनैरपि। कारयेत्तु ध्वनिं भक्त्या तस्य पुण्यफलं शृणु।। | 14-115-20a 14-115-20b |
गान्धर्वैर्होमजप्यैश्च जप्तैरुत्कृष्टनामभिः। दुर्बलोपि भवेद्राहुः सोमश्च बलवान्भवेत्।। | 14-115-21a 14-115-21b |
सूर्येन्दूपप्लवे चैव श्रोत्रियेभ्यः प्रदीयते। तत्सहस्रगुणं भूत्वा दांतारमुपतिष्ठति।। | 14-115-22a 14-115-22b |
महापातकयुक्तोपि यद्यपि स्यान्नरोत्तम। निष्पापस्तत्क्षणादेव तेन दानेन जायते।। | 14-115-23a 14-115-23b |
चन्द्रसूर्यप्रकाशेन विमानेन विराजता। याति सोमपुरं रम्यं सेव्यमानोप्सरोगणैः।। | 14-115-24a 14-115-24b |
यावदृक्षाणि तिष्ठन्ति गगने शशिना सह। तावत्कालं स रजेन्द्र सोमलोके महीयते।। | 14-115-25a 14-115-25b |
ततश्चापि च्युतः कालादिह लोके युधिष्ठिर। वेदवेदाङ्गविद्विप्रः कोटीधनपतिर्भवेत्।। | 14-115-26a 14-115-26b |
युधिष्ठिर उवाच। | 14-115-27x |
भगवंस्तव गायत्री जप्यते च कथं विभो। किं वा तस्य फळं देव ममाचक्ष्व सुरेश्वर।। | 14-115-27a 14-115-27b |
भगवानुवाच। | 14-115-28x |
द्वादश्यां विषुवे चैव चन्द्रसूर्यग्रहे तथा। अयने श्रवणे चैव व्यतीपाते तथैव च।। | 14-115-28a 14-115-28b |
अश्वत्तदर्शने चैव तथा मद्दर्शनेऽपि च। जप्या तु मम गायत्री चाथवाऽष्टाक्षरं नृप। आर्जितं दुष्कृतं तस्य नाशयेन्नात्र संशयः।। | 14-115-29a 14-115-29b 14-115-29c |
युधिष्ठिर उवाच। | 14-115-30x |
अश्वत्थदर्शनं चैव किं त्वद्दर्शनसंमितम्। एतत्कथय मे देव परं कौतूहलं हि मे।। | 14-115-30a 14-115-30b |
भगवानुवाच। | 14-115-31x |
अहमश्वत्थरूपेण पालयामि जगत्त्रयम्। अस्वत्थो न स्थितो यत्र नाहं तत्र प्रतिष्ठितः।। | 14-115-31a 14-115-31b |
यत्राहं संस्थितो राजन्नस्वत्थश्चापि तिष्ठति। यस्त्वेनमर्चयेद्भक्त्या स मां साक्षात्समर्चति।। | 14-115-32a 14-115-32b |
यस्त्वेनं प्रहरेत्कोपान्मामेव प्रहरेत्तु सः। तस्मात्प्रदक्षिणं कुर्यान्न चिन्द्यादेनमन्वहम्।। | 14-115-33a 14-115-33b |
व्रतस्य पारणं तीर्थमार्जवं तीर्थमुच्यते। देवशुश्रूषणं तीर्तचं गुरुशुश्रूषणं तथा।। | 14-115-34a 14-115-34b |
पितृशुश्रूषणं तीर्थं मातृशुश्रूषणं तथा। दाराणां तोषणं तीर्तं गार्हस्थ्यं तीर्थमुच्यते।। | 14-115-35a 14-115-35b |
आतिथेयः परं तीर्थं ब्रह्मतीर्थं सनातनम्। ब्रह्मिचर्यं परं तीर्तं त्रेताग्निस्तीर्थमुच्यते।। | 14-115-36a 14-115-36b |
मूलं धर्मं तु विज्ञाय मनस्तत्रावधार्यताम्।। गच्छ तीर्थानि कौन्तेय धर्मो धर्मेण वर्धते।। | 14-115-37a 14-115-37b |
द्विविधं तीर्थमित्याहुः स्थावरं जङ्गमं तथा। स्तावराज्जङ्गमं तीर्थं ततो ज्ञानपरिग्रहः।। | 14-115-38a 14-115-38b |
कर्म्णाऽपि विशुद्धस्य पुरुषस्येह भारत। हृदये सर्वतीर्थानि तीर्थभूतः स उच्यते।। | 14-115-39a 14-115-39b |
गुरुतीर्थं परं ज्ञानमतस्तीर्तं न विद्यते। ज्ञानतीर्तं परं तीर्तं ब्रह्मतीर्तं सनातनम्।। | 14-115-40a 14-115-40b |
क्षमा तु परमं तीर्तं सर्वतीर्थेषु पाण्डव। क्षमावतामयं लोकः परश्चैव क्षमावताम्।। | 14-115-41a 14-115-41b |
मानितोऽमानितो वाऽपि पूजितोऽपूजितोपि वा। आक्रुष्टस्तर्जितो वाऽपि क्षमावांस्तीर्थमुच्यते।। | 14-115-42a 14-115-42b |
क्षमा यशः क्षमा दानं क्षमा यज्ञः क्षमा दमः। क्षमाऽहिंसा क्षमा धर्मः क्षमा चेन्द्रियनिग्रहः।। | 14-115-43a 14-115-43b |
क्षमा दया क्षमा यज्ञः क्षमयैव धृतं जगत्। क्षमावान्ब्राह्मणो देवः क्षमावान्ब्राह्मणो वरः।। | 14-115-44a 14-115-44b |
क्षमावानाप्नुयात्स्वर्गं क्षमावानाप्नुयाद्यशः। क्षमावान्प्राप्नुयान्मोक्षं तस्मात्साद्युः स उच्यते।। | 14-115-45a 14-115-45b |
आत्मा नदी भारतपुण्यतीर्थ- मात्मा तीर्थं सर्वतीर्थप्रधानम्। आत्मा यज्ञः सततं मन्यते वै स्वर्गो मोक्षः सर्वमात्मन्यधीनम्।। | 14-115-46a 14-115-46b 14-115-46c 14-115-46d |
आचारनैर्मल्यमुपागतेन सत्यक्षमानिस्तुलशीतलेन। ज्ञानांबुना स्नाति हि नित्यमेवं किं तस्य भूयः सलिलेन तीर्थम्।। | 14-115-47a 14-115-47b 14-115-47c 14-115-47d |
युधिष्ठिर उवाच। | 14-115-48x |
भगवन्सर्वपापघ्नं प्रायश्चित्तमदुष्करम्। त्वद्भक्तस्य सुरश्रेष्ठ मम त्वं वक्तुमर्हसि।। | 14-115-48a 14-115-48b |
भगवानुवाच। | 14-115-49x |
रहलस्यमिदमत्यर्थमश्राव्यं पापकर्मणाम्। अधार्मिकाणामश्राव्यं प्रायश्चित्तं ब्रवीमि ते।। | 14-115-49a 14-115-49b |
पावनं ब्राह्ममं दृष्ट्वा मद्गतेनान्तरात्मना। नमो ब्रह्मण्यदेवायेत्यभिवादनमाचरेत्।। | 14-115-50a 14-115-50b |
प्रदक्षिणं च यः कुर्यात्पुनरष्टाक्षरेण तु। तेन तुष्टेन विप्रेणि तत्पापं क्षपयाम्यहम्।। | 14-115-51a 14-115-51b |
पोत्रकृष्टां वराहस्य मृत्तिकां शिरसा वहन्। प्राणायामशतं कृत्वा नरः पापैः प्रमुच्यते।। | 14-115-52a 14-115-52b |
दक्षिणावर्तशङ्खाद्वा कपिलाशृङ्गतोपि वा। प्राक्स्रोतसं नदीं गत्वा ममायतनसंनिधौ।। | 14-115-53a 14-115-53b |
सलिलेन तु यः स्नायात्सकृदेव रविग्रहे। तस्य यत्संचितं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।। | 14-115-54a 14-115-54b |
मस्तकान्निस्सृतैस्तोयैः कपिलाया युधिष्ठिर। गोमूत्रेणापि यः स्नायाद्रोहिण्यां मम वा दिने। विप्रपादच्युतैर्वाऽपि तोयैः पापं प्रणश्यति।। | 14-115-55a 14-115-55b 14-115-56c |
नमस्येद्यस्तु मद्भक्त्या शिंशुमारं प्रजापतिम्। चतुर्दशाङ्गसंयुक्तं तस्य पापं प्रणस्यति।। | 14-115-56a 14-115-56b |
ततश्चतुर्दशाङ्गानि शृणु तस्य युधिष्ठिर। शिरो धर्मो हनुर्ब्रह्मा वृषावुत्तरदक्षिणौ।। | 14-115-57a 14-115-57b |
हृदयं तु भवेद्विष्णुरंसौ स्यातां तथाऽश्विनौ। अत्रिर्मध्यं भवेद्राजँल्लिङ्गं संवत्सरं भवेत्।। | 14-115-58a 14-115-58b |
मित्रावरुणकौ पादावूरुद्वन्द्वं हुताशनः। ततः पश्चाद्भवेदिन्द्रस्ततः पश्चात्प्रजापतिः।। | 14-115-59a 14-115-59b |
अभयं च ततः पश्चात्स एव ध्रुवसंज्ञिकः। एतान्यङ्गानि सर्वाणि शिंशुमारप्रजापतेः।। | 14-115-60a 14-115-60b |
विबेत्तु पञ्चगव्यं यः पौर्णमास्यामुपोष्य तु। तस्य नश्यति यत्पापं तत्पापं पूर्वसंचितम्।। तथैव ब्रह्मकूर्च तु समन्त्रं तु पृथक्पृथक्। | 14-115-61a 14-115-61b 14-115-61c |
मासिमासि विबेद्यस्तु तस्य पापं प्रणश्यति।। पात्रं च ब्रह्मकूर्चं च शृणु तत्र च भारत। | 14-115-62a 14-115-62b |
पालाशं पद्मपत्रं च ताम्रं वाऽथ हिरण्ययम्। सादयित्वा तु गृह्णीयात्तत्तु पात्रमुदाहृतम्।। | 14-115-63a 14-115-63b |
गायत्र्या गृह्णते मूत्रं गन्धद्वारेति गोमयम्। आप्यायस्वेति च क्षीरं दधिक्राण्वेति वै दधि।। | 14-115-64a 14-115-64b |
तेजोसिशुक्लमित्याज्यं देवस्यत्वेति कुशोदकम्। आपोहिष्ठेत्यृचा गृह्यि यवचूर्णं यथाविधि।। | 14-115-65a 14-115-65b |
ब्रह्मणे च यथा हुत्वा समिद्धे च हुताशने। आलोड्य प्रणवेनैव निर्मथ्य प्रणवेन तु।। | 14-115-66a 14-115-66b |
उद्धृत्य प्रणवेनैव पिबेतु प्रणवेन तु। महताऽपि स पापेन त्वचेवाहिर्विमुच्यते।। | 14-115-67a 14-115-67b |
भद्रं न हति यः पादं पठन्नृक्सहितां तदा। अन्तर्जले वाऽभ्यादित्ये तस्य पापं प्रणश्यति।। | 14-115-68a 14-115-68b |
मम सूक्तं जपेद्यस्तु नित्यं मद्गतमानसः। न पापेन स लिप्येत पद्मपत्रमिवांभसा।। | 14-115-69a 14-115-69b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकप्रर्वणि वैष्णवधर्मपर्वणि पञ्चदशाधिकशततमोऽध्यायः।। |
आश्वमेधिकपर्व-114 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-116 |