महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-085
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अर्जुनेन शकुनितनयपराजयपूर्वकं तत्सेनावमर्दनम्।। 1 ।। ततः शकुनिभार्यया तेन स्वसुतवधसंभावनया रणाङ्गणमेत्यार्जुनस्य प्रसादनम्।। 2 ।। अर्जुनेन गान्धारीगौरवात्तत्संमाननपूर्वकं तत्तनयसमाश्वासनम्।। 3 ।।
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वैशम्पायन उवाच। | 14-85-1x |
शकुनस्तनयो वीरो गान्धाराणां महारथः। प्रत्युद्ययौ गुडाकेशं सैन्येन महता वृतः। हस्त्यश्वरथयुक्तेन पताकाध्वजमालिना।। | 14-85-1a 14-85-1b 14-85-1c |
अमृष्यमाणास्ते योधा नृपस्य शकुनेर्वधम्। अभ्ययुः सहिताः पार्थं प्रगृहीतशरासनाः।। | 14-85-2a 14-85-2b |
स तानुवाच धर्मात्मा बीभत्सुरपराजितः। युधिष्टिरस्य वचनं न च ते जगृहुर्हितम्।। | 14-85-3a 14-85-3b |
वार्यमाणास्तु पार्थेन सान्त्वपूर्वममर्षिताः। परिवार्य हयं जग्मुस्ततश्चुक्रोध पाण्डवः।। | 14-85-4a 14-85-4b |
ततः शिरांसि दीप्ताग्रैस्तेषां चिच्छेद पाण्डवः। क्षुरैर्गाण्डीवनिर्मुक्तैर्नातियत्नादिवार्जुनः।। | 14-85-5a 14-85-5b |
ते वध्यमानाः पार्थेनि हयमुत्सृज्य संप्रमात्। न्यवर्तन्त महाराज शरवर्षार्दिता भृशम्।। | 14-85-6a 14-85-6b |
वितुद्यमानस्तैश्चापि गान्धारैः पाण्डुनन्दनः। आदिस्यादिश्य तेजस्वी परानेतानवारयत्।। | 14-85-7a 14-85-7b |
वध्यमानेषु तेष्वाजौ गान्धारेषु समन्ततः। स राजा शकुनेः पुत्रः पाण्डवं प्रत्यवारयत्।। | 14-85-8a 14-85-8b |
तं युध्यमानं राजानं क्षत्रधर्मे व्यवस्थितम्। पार्थोऽब्रवीन्न मे वध्या राजानो राजसासनात्।। | 14-85-9a 14-85-9b |
अलं युद्धेन ते वीर न तेऽस्त्वद्य पराजयः। इत्युक्तस्तदनादृत्य वाक्यमज्ञानमोहितः। स शक्रसमकर्माणं समावाकिरदाशुगैः।। | 14-85-10a 14-85-10b 14-85-10c |
तस्य् पार्थः शिरस्त्राणमर्धचन्द्रेण पत्रिणा। अपाहरदमेयात्मा जयद्रथशिरो यथा।। | 14-85-11a 14-85-11b |
तं दृष्ट्वा विस्मयं जग्मुर्गान्धाराः सर्व एव ते। इच्छता तेन न हतो राजेत्यपि च ते विदुः।। | 14-85-12a 14-85-12b |
गान्धारराजपुत्रस्तु पलायनकृतक्षणः। ययौ तैरेव सहितस्त्रस्तैः क्षुद्रमृगैरिव। | 14-85-13a 14-85-13b |
तेषां तु तरसा पार्थस्तत्रैव परिदावताम्। प्रजहारोत्तमाङ्गानि भल्लैः सन्नतपर्वभिः।। | 14-85-14a 14-85-14b |
उच्छ्रितांस्तु भुजान्केचिन्नाबुध्यन्त शरैर्हृतान्। शरैर्गाण्डीवनिर्मुक्तैः पृथुभिः पार्थचोदितैः।। | 14-85-15a 14-85-15b |
सम्भ्रान्तनरनागाश्वमपतद्विद्रुतं बलम्। हतविद्रुतभूयिष्ठमावर्तत मुहुर्मुहुः।। | 14-85-16a 14-85-16b |
नाभ्यदृस्यन्त वीरस्य केचिदग्रेऽग्र्यकर्मणः। रिपवः पात्यमाना वै ये सहेरन्महाशरान्।। | 14-85-17a 14-85-17b |
ततो गान्धारराजस्य मन्त्रिवृद्धपुरःसरा। जननी निर्ययौ भीता पुरस्कृत्यार्घ्यमुत्तमम्।। | 14-85-18a 14-85-18b |
सा न्यवारयदव्यग्रा तं पुत्रं युद्धदुर्मदम्। प्रसादयामास च तं जिष्णुमक्लिष्टकारिणम्।। | 14-85-19a 14-85-19b |
तां पूजयित्वा बीभत्सुः प्रसादमकरोत्प्रभुः। शकुनेश्चापि तनयं सान्त्वयन्निदमब्रवीत्।। | 14-85-20a 14-85-20b |
न मे प्रियं महाबाहो यत्ते बुद्धिरियं कृता। प्रतियोद्धुममित्रघ्न भ्रातैव त्वं ममानघ।। | 14-85-21a 14-85-21b |
गान्धारीं मातरं स्मृत्वा धृतराष्ट्रकृतेन च। तेन जीवसि राजंस्त्वं निहतास्त्वनुगास्तव।। | 14-85-22a 14-85-22b |
मैवं भूः शाम्यतां वैरं मा तेऽभूद्बुद्धिरीदृशी आगन्तव्यं परां चैत्रीमश्वमेधे नृपस्य नः।। | 14-85-23a 14-85-23b |
इत्युक्त्वाऽनुययौ पार्थो हयं तं कामचारिणम्। ते न्यवर्तन्त गान्धारा हतशिष्टाः स्वकं पुरम्।। | 14-85-24a 14-85-24b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि पञ्चाशीतितमोऽध्यायः।। 85 ।। |
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