महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-097

← आश्वमेधिकपर्व-096 महाभारतम्
चतुर्दशपर्व
महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-097
वेदव्यासः
आश्वमेधिकपर्व-098 →

कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति चातुर्वर्ण्यधर्मनिरूपणम्।। 1 ।।

  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103
  104. 104
  105. 105
  106. 106
  107. 107
  108. 108
  109. 109
  110. 110
  111. 111
  112. 112
  113. 113
  114. 114
  115. 115
  116. 116
  117. 117
  118. 118
वैशंपायन उवाच। 14-97-1x
एवमात्मोद्भवं सर्वं यगदुद्दिश्य केशवः।
धर्मान्धर्मात्मजस्याथ पुण्यानकथयत्प्रभुः।।
14-97-1a
14-97-1b
शृणु पाण्डव तत्वेन पवित्रं पापनाशनम्।
कथ्यमानं मया पुण्यं धर्मशास्त्रफलं महत्।।
14-97-2a
14-97-2b
यः शृणोति शुचिर्भूत्वा एकचित्तस्तपोयुतः।
स्वर्ग्यं यशस्यामायुष्यं धर्मं ज्ञेयं युधिष्ठिर।।
14-97-3a
14-97-3b
श्रद्दधानस्य तस्येह यत्पापं पूर्वसंचितम्।
विनश्यत्याशु तत्सर्वं मद्भक्तस्य विशेषतः।।
14-97-4a
14-97-4b
वैशंपायन उवाच। 14-97-5x
एवं श्रुत्वा वचः पुण्यं सत्यं केशवभाषितम्।
प्रहृष्टमनसो भूत्वा चिन्तयन्तोऽद्भुतं परम्।।
14-97-5a
14-97-5b
देवब्रह्मर्षयः सर्वे गन्धर्वाप्सरसस्तथा।
भूता यक्षग्रहाश्चैव गुह्यका भुजगास्तथा।।
14-97-6a
14-97-6b
वालखिल्या महात्मानो योगिनस्तत्वदर्शिनः।
तथा भागवताश्चापि पञ्चकालमुपासकाः।।
14-97-7a
14-97-7b
कौतूहलसमाविष्टाः प्रहृष्टैन्द्रियमानसाः।
श्रोतुकामाः परं धर्मं वैष्णवं धर्मशासनम्।
हृदि कर्तुं च तद्वाक्यं प्रणेमुः शिरसा नताः।।
14-97-8a
14-97-8b
14-97-8c
ततस्तान्वासुदेवेन दृष्टान्दिव्येन चक्षुषा।
विमुक्तपापानालोक्य प्रणम्य शिरसा हरिम्।
पप्रच्छ केशवं धर्मं धर्मपुत्रः प्रतापवान्।।
14-97-9a
14-97-9b
14-97-9c
युधिष्ठिर उवाच। 14-97-10x
कीदृशी ब्राह्मणस्याथ क्षत्रियस्यापि कीदृशी।
वैश्यस्य कीदृशी देव गतिः शूद्रस्य कीदृशी।।
14-97-10a
14-97-10b
कथं बध्येत पाशेन ब्राह्मणस्तु यमालये।
क्षत्रियो वाथ वैश्यो वा शूद्रो वा बध्यते कथम्।
एतत्कर्मफलं ब्रूहि लोकनाथ नमोस्तु ते।।
14-97-11a
14-97-11b
14-97-11c
वैशंपायन उवाच। 14-97-12x
पृष्टोऽथ केशवो ह्येवं धर्मपुत्रेण धीमता।
उवाच संसारगतिं चातुर्वर्ण्यस्य कर्मजाम्।।
14-97-12a
14-97-12b
भगवानुवाच। 14-97-13x
शृणु वर्णक्रमेणैव धर्मं धर्मभृतां वर।
नास्ति किंचिन्नरश्रेष्ठ ब्राह्मणस्य तु दुष्कृतम्।।
14-97-13a
14-97-13b
शिखांयज्ञोपवीता ये सन्ध्यां ये चाप्युपासते।
यैश्च पूर्णाहुतिः प्राप्ता विधिवज्जुह्वते च ये।।
14-97-14a
14-97-14b
वैश्वदेवं च ये चक्रुः पूजयन्त्यतिथींश्च ये।
नित्यं स्वाध्यायशीलाश्च जपयज्ञपराश्च ये।।
14-97-15a
14-97-15b
सायंप्रातर्हुताशाश्च शूद्रभोजनवर्जिताः।
डंभानृतविमुक्ताश्च स्वदारनिरताश्च ये।
पञ्चयज्ञपरा ये च येऽग्निहोत्रमुपासते।।
14-97-16a
14-97-16b
14-97-16c
दहन्ति दुष्कृतं येषां हूयमानास्त्रयोऽग्नयः।
नष्टदुष्कृतकर्माणो ब्रह्मलोकं व्रजन्ति ते।।
14-97-17a
14-97-17b
ब्रह्मलोके पुनः कामं गन्धर्वैर्ब्रह्मगायकैः।
उद्गीयमानाः प्रयतैः पूज्यमानाः स्वयंभुवा।
ब्रह्मिलोके प्रमोदन्ते यावदाभूतसंप्लुवम्।।
14-97-18a
14-97-18b
14-97-18c
क्षत्रियोपि स्थितो राज्ये स्वधर्मपरिपालकः।
सम्यक्प्रजाः पालयिता षड्भागनिरतः सदा।।
14-97-19a
14-97-19b
यज्ञदानरतो धीरः स्वदारनिरतः सदा।
शास्त्रानुसारी तत्वज्ञः प्रजाकार्यपरायणः।।
14-97-20a
14-97-20b
विप्रेभ्यः कामदो नित्यं भृत्यानां भरणे रतः।
सत्यसन्धः शुचिर्नित्यं लोभडंभविवर्जितः।
क्षत्रियोप्युत्तमां याति गतिं देवनिषेविताम्।।
14-97-21a
14-97-21b
14-97-21c
तत्र दिव्याप्सरोभिस्तु गन्धर्वैश्च विशेषतः।
सेव्यमानो महातेजाः क्रीडते शक्रपूजितः।।
14-97-22a
14-97-22b
चतुर्थगानि वै त्रिंशत्क्रीडित्वा तत्र देववत्।
इह मानुष्यलोके तु चतुर्वेदी द्विजो भवेत्।।
14-97-23a
14-97-23b
कृषिगोपालनिरतो धर्मानवेषणतत्परः। 14-97-24a
दानधर्मेपि निरतो विप्रशुश्रूषकस्तथा।। 14-97-24a
सत्यसन्धः शुचिर्नित्यं लोभडंभविवर्जितः।
ऋजुः स्वदारनिरतो हिंसाद्रोहविवर्जितः।।
14-97-25a
14-97-25b
वणिग्धर्मान्नमुञ्चन्वै देवब्राह्मणपूजकः।
वैश्यः स्वर्गतिमाप्नोति पूज्यमानोप्सरोगणैः।।
14-97-26a
14-97-26b
चतुर्युगानि वै त्रिंशत्क्रीडित्वा दश पञ्च च।
इह मानुष्यलोके च राजा भवति वीर्यवान्।।
14-97-27a
14-97-27b
सुवर्णकोट्यः पञ्चाशद्रत्नानां च शतं तथा।
हस्त्यश्वरश्वसंयुक्तो महाभोगांश्च सेवते।।
14-97-28a
14-97-28b
त्रयाणामपि वर्णानां शुश्रूषानिरतः सदा।
विशेषतस्तु विप्राणां दासवद्यस्तु तिष्टति।।
14-97-29a
14-97-29b
अयाचितप्रदाता च सत्यशौचसमन्वितः।
गुरुदेवार्चनरतः परदारविवर्जितः।।
14-97-30a
14-97-30b
परपीडामकृत्वैव भत्यवर्गं बिभर्ति यः।
शूद्रोपि स्वर्गमाप्नोति जीवानामभयप्रदः।।
14-97-31a
14-97-31b
स स्वर्गकलोके क्रीडित्वा वर्षकोटिं महातपाः।
इह मानुषलोके तु वैश्यो धनपतिर्भवेत्।।
14-97-32a
14-97-32b
एवं धर्मात्परं नास्ति महत्संसारमोक्षणम्।
न च धर्मात्पर किंचित्पापकर्मव्यपोहनम्।।
14-97-33a
14-97-33b
तस्माद्धर्मः सदा कार्यो मानुष्यं प्राप्य दुर्लभम्।
न हि धर्मानुरक्तानां लोके किंचन दुर्लभम्।।
14-97-34a
14-97-34b
स्वयंभुविहितो धर्मो यो यस्येह नरेश्वर।
स तेन क्षपयेत्पापं सम्यगाचरितेन च ।।
14-97-35a
14-97-35b
सहजं यद्भदेत्कर्म न तत्त्याज्यं हि केनचित्।
स एव तस्य धर्मो हि तेन सिद्धिं स गच्छति।।
14-97-36a
14-97-36b
विगुणोपि स्वधर्मस्तु पापकर्म व्यपोहति।
एवमेव तु धर्मोपि क्षीयते पापवर्धनात्।।
14-97-37a
14-97-37b
युधिष्ठिर उवाच। 14-97-38x
भगवन्देवदेवेश श्रोतुं कौतूहलं हि मे।
शुभस्याप्यशुभस्यापि क्षयवृद्धी यथाक्रमम्।।
14-97-38a
14-97-38b
भगवानुवाच। 14-97-39x
शृणु पार्थिव तत्सर्वं धर्मसूक्ष्मं सनातनम्।
दुर्विज्ञेयतमं नित्यं यत्र मग्ना महाजनाः।।
14-97-39a
14-97-39b
यथैव शीतमुदकमुष्णेन बहुना वृतम्।
भवेत्तु तत्क्षणादुष्णं शीतत्वं च विनश्यति।।
14-97-40a
14-97-40b
यथोष्णं वा भवेदल्पं शीतेन बहुना वृतम्।
शीतलं च भवेत्सर्वमुष्णत्वं च विनश्यति।।
14-97-41a
14-97-41b
एवं च यद्भवेद्भूरि सुकृतं वाऽपि दुष्कृतम्।
तदल्पं क्षपयेच्छीघ्रं नात्र कार्या विचारणा।।
14-97-42a
14-97-42b
समत्वे सति राजेन्द्र तयोः सुकृतपापयोः।
गूहितस्य भवेद्वृद्धिः कीर्तितस्य भवेत्क्षयः।।
14-97-43a
14-97-43b
ख्यापनेनानुतापेन प्रायः पापं विनश्यति।
तथा कृतस्तु राजेन्द्र धर्मो नश्यति मानद।।
14-97-44a
14-97-44b
तावुभौ गूहितौ सम्यग्वृद्धिं यातो न संशयः।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन न पापं गूहयेद्बुधः।।
14-97-45a
14-97-45b
तस्मादेतत्प्रयत्नेनि कीर्तयेत्क्षयकारणात्।
तस्मात्संकीर्तयेत्पापं नित्यं धर्मं च गूहयेत्।।
14-97-46a
14-97-46b
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
वैष्णवधर्मपर्वणि सप्तनवतितमोऽध्यायः।। 97 ।।
आश्वमेधिकपर्व-096 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्वमेधिकपर्व-098