महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-002
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कर्णेन पाण्डवोच्छेदनपूर्वकं दुर्योधनाय राज्यदानं प्रतिज्ञाय युद्धायाभियानम्।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-2-1x |
हतं भीष्ममथाधिरथिर्विदित्वा भिन्नां नावं वारिधावत्यगाधे। सोदर्यवद्व्यसनात्सूतपुत्रः संतारयिष्यंस्तव पुत्रस्य सेनाम्।। | 5-2-1a 5-2-1b 5-2-1b 5-2-1c |
श्रुत्वा तु कर्णः पुरुषेन्द्रमच्युतं निपातितं शान्तनवं महारथम्। अथोपयायात्सहसारिकर्षणो धनुर्धराणां प्रवरस्तदा नृप।। | 5-2-2a 5-2-2b 5-2-2c 5-2-2d |
हते तु रथसत्तमे परैर्निमज्जतीं नावमिवार्णवे कुरून्। पितेव पुत्रांस्त्वरितोऽभ्ययात्ततः सन्तारयिष्यंस्तव पुत्रस्य सेनाम्।। | 5-2-3a 5-2-3b |
सम्मृज्य दिव्यं धनुराततज्यं स रामदत्तं रिपुसङ्घहन्ता। बाणांश्च कालानलवायुकल्पानुल्लालयन्वाक्यमिदं बभाषे। | 5-2-4a 5-2-4b |
कर्ण उवाच। | 5-2-4x |
यस्मिन्धृतिर्बुद्धिपराक्रमौजः सत्यं स्मृतिर्वीरगुणाश्च सर्वे। अस्त्राणि दिव्यान्यथ संनतिह्रीः प्रिया च वागनसूया च भीष्मे।। | 5-1-4c 5-1-4d |
सदा कृतज्ञे द्विजशत्रुघातके सनातनं चन्द्रमसीव लक्ष्मीः। स चेत्प्रशान्तः परवीरहन्ता मन्ये हतानेव च सर्ववीरान्।। | 5-2-5a 5-2-5b |
नेह ध्रुवं किङ्चन जातु विद्यते। लोके ह्यस्मिन्कर्मणोऽनित्ययोगात्। सूर्योदये को हि विमुक्तसङ्शयो भावं कुर्वीतार्यमहाव्रते हते।। | 5-2-6a 5-2-6b |
वसुप्रभावे वसुवीर्यसंभवे गते वसूनेव वसुंधराधिपे। वसूनि पुत्रांश्च वसुंधरां तथा कुरूंश्च शोचध्वमिमां च वाहिनीम्।। | 5-2-7a 5-2-7b |
सञ्जय उवाच। | 5-1-8x |
महाप्रभावे वरदे निपातिते लोकेश्वरे शास्तरि चामितौजसि। पराजितेषु भरतेषु दुर्मनाः कर्णो भृशं न्यश्वसदश्रु वर्तयन्।। | 5-2-8a 5-2-8b |
इदं च राधेयवचो निशम्य सुताश्च राजंस्तव सैनिकाश्च ह। परस्परं चुक्रुशुरार्तिजं मुहुस्तदाश्रु नेत्रैर्मुमुचुश्च शब्दवत्।। | 5-2-9a 5-2-9b |
प्रवर्तमाने तु पुनर्महाहवे विगाह्यमानासु चमूषु पार्थिवैः। अथाब्रवीद्धर्षकरं तदा वचो रथर्पभान्सर्वमहारथर्षभः।। | 5-2-10a 5-2-10b |
जगत्यनित्ये सततं प्रधावति प्रचिन्तयन्नस्थिरमद्य लक्षये। भवत्सु तिष्ठत्स्विह पातितो मृधे निरिप्रकाशः कुरुपुङ्गवः कथम्।। | 5-2-11a 5-2-11b |
निपातिते शान्तनवे महारथे दिवाकरे भूतलमास्थिते यथा। न पार्थिवाः सोढुमलं धनंजयं गिरिप्रवोढारमिवानिलं द्रुमाः।। | 5-2-12a 5-2-12b |
हतप्रधानं त्विदमार्तरूपं परैर्हतोत्साहमनाथमद्य वै। मर्या कुख्णां परिपाल्यमाहवे बलं यथा तेन महात्मना तथा।। | 5-2-13a 5-2-13b |
समाहिते चात्मनि भारमीदृशं जगत्तथाऽनित्यमिदं च लक्षये। निपातितं चाहवशौण्डमाहखे कथं नु कुर्यामहमीदृशे भयम्।। | 5-2-14a 5-2-14b |
अहं तु तान्कुरुवृषभानजिह्मगैः प्रवेशयन्यमसदनं चरन्रणे। यशः परं जगति विभाव्य वर्तिता परैर्हतो भुवि शयिताथवा पुनः।। | 5-2-15a 5-2-15b |
युधिष्ठिरो धृतिमतिसत्यसत्ववान् वृकोदरो गजशततुल्यविक्रमः। तथार्जुनस्त्रिदशवरात्मजो युवा न तद्बलं सुजयमिहामरैरपि।। | 5-2-16a 5-2-16b |
यमौ रणे यत्र यमोपमौ बले ससात्यकिर्यत्र च देवकीसुतः। न तद्बलं कापुरुषोऽभ्युपेयिवान्निवर्तते भृत्युमुखादिवासुभृत्।। | 5-2-17a 5-2-17b |
तपोऽभ्युदीर्णं तपसैव बाध्यते बलं बलेनैव तथा मनस्विभिः। मनश्च मे शत्रुनिवारणे ध्रुं स्वरक्षणे चाचलवद्व्यवस्थितम्।। | 5-2-18a 5-2-18b |
एवं चैषां बाधमानः प्रभावं गत्वैवाहं ताञ्जयाम्यद्य सूत। मित्रद्रोहो मर्षणीयो न मेऽयं भग्ने सैन्ये यः समेयात्स मित्रम्।। | 5-2-19a 5-2-19b |
कर्तास्म्येतत्सत्पुरुषार्यकर्म त्यक्त्वा प्राणाननुयास्यामि भीष्मम्। सर्वान्सङ्ख्ये शत्रुशङ्घान्हनिष्ये हतस्तैर्वा वीरलोकं प्रपत्स्ये।। | 5-2-20a 5-2-20b |
संप्राक्रुष्टे रुदितस्त्रीकुमारे पराहते पौरुषे धार्तराष्ट्रे। मया कृत्यमिति जानामि सूत तस्माद्राज्ञस्त्वद्य शत्रून्विजेष्ये।। | 5-2-21a 5-2-21b |
कुरून्रक्षन्पाण्डुपुत्राञ्जिघांसंस्त्यक्त्वा प्राणान्घोररूपे रणेऽस्मिन्। सर्वान्सङ्ख्ये शत्रुसङ्घान्निहत्य दास्याम्यहं धर्मxxxxxxxx | 5-2-22a 5-2-22b |
निबध्यतां मे कवचं विचित्रं हैमं शुभ्रं मणिरत्नावभासि। शिरस्त्राणं चार्कसमानभासं धनुः शरांश्चाग्निविपाहिकल्पान्।। | 5-2-23a 5-2-23b |
उपासङ्गान्पोडश योजयन्तु धनूम्पि दिव्यानि तथाऽऽहरन्तु। असींश्च शक्तीश्च गदाश्च गुर्वीः शङ्खं च जाम्बूनदचित्रनालम्।। | 5-2-24a 5-2-24b |
इमां रौक्मीं नागकक्ष्यां विचित्रां ध्वजं जैत्रं दिव्यमिन्दीवराङ्कम्। श्लक्ष्णैर्वस्त्रैर्विप्रमृज्यानयन्तु चित्रां मालां चारुबद्धां सलाजाम्।। | 5-2-25a 5-2-25b |
अश्वानग्र्यान्पाण्डुराभ्रप्रकाशान् पुष्टान्स्नातान्मन्त्रपूताभिरद्भिः। तप्तैर्भाण्डैः काञ्चनैरभ्युपेतान् शीघ्राञ्शीघ्रं सूतपुत्रानयस्व।। | 5-2-26a 5-2-26b |
रथं चाग्र्यं हेममालावनद्धं रत्नैश्चित्रं सूर्यचन्द्रप्रकाशैः। द्रव्यैर्युक्तं सम्प्रहारोपपन्नैर्बाहैर्युक्तं तूर्णमावर्तयस्व।। | 5-2-27a 5-2-27b |
चित्राणि चापानि च वेगवन्ति ज्याश्चोत्तमाः सन्नहनोपपन्नाः। तूणांश्च पूर्णान्महतः शराणामासाद्य गात्रावरणानि चैव।। | 5-2-28a 5-2-28b |
प्रायात्रिकं चानयताशु सर्वं पूर्णं कान्त्या वीरकांस्यां च हैमम्। आनीय मालामवबध्य चाङ्गे प्रवादयन्त्वाशु जयाय भेरीः।। | 5-2-29a 5-2-29b |
प्रयाहि मूताशु यतः किरीटी वृकोदरो धर्मसुतो यमौ च। तान्वा हनिष्यामि समेत्य सङ्ख्ये भीष्मो यथैष्यामि हतो द्विषद्भिः।। | 5-2-30a 5-2-30b |
यस्मिन्राजा सत्यधृतिर्युधिष्ठिरः समास्थितो भीमसेनार्जुनौ च। वासुदेवः सात्यकिः सृंजयाश्च मन्ये बलं तदजय्यं महीपैः।। | 5-2-31a 5-2-31b |
तं चेन्मृत्युः सर्वहरोऽभिरक्षेत्सदाऽप्रमत्तः समरे किरीटिनम्। तथापि हन्तास्मि समेत्य सङ्ख्ये यास्यामि वा भीष्ममुखो यमाय।। | 5-2-32a 5-2-32b |
न त्वेवाहं न गमिष्यामि तेषां मध्ये शराणां तत्र चाहं ब्रवीमि। मित्रद्रुहो दुर्बलभक्तयो ये पापात्मानो न ममैते सहायाः।। | 5-2-33a 5-2-33b |
सञ्जय उवाच। | 5-2-34x |
समृद्धिमन्तं रथमुत्तमं दृढं सकूबरं हेमपरिष्कृतं शुभम्। पताकिनं वातजवैर्हयोत्तमैर्युक्तं समास्थाय ययौ जयाय।। | 5-2-34a 5-2-34b |
सम्पूज्यमानः कुरुभिर्महात्मा रथर्षभो देवगणैर्यथेन्द्रः। ययौ तदायोधनमुग्रधन्वा यत्रावसानं भरतर्षभस्य।। | 5-2-35a 5-2-35b |
वरूथिना महता सध्वजेन सुवर्णमुक्तामणिरत्नमालिना। सदश्वयुक्तेन रथेन कर्णो मेघस्वनेनार्क इवामितौजाः।। | 5-2-36a 5-2-36b |
हुताशनाभः स हुताशनप्रभे शुभः शुभे वै स्वरथे धनुर्धरः। स्थितो रराजाधिरथिर्महारथः स्वयं विमाने सुरराडिवास्थितः।। | 5-2-37a 5-2-37b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः।। 2 ।। |
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