महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-111
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अर्जुनम्प्रति गच्छेति युधिष्ठिरचोदितेन सात्यकिना तम्प्रति स्वस्यार्जुनेन तद्रक्षणाय नियोगाभिधानपूर्वकं स्वेन तस्यापरित्याज्यत्वकथनम्।। 1 ।। युधिष्ठिरेण भीमादिभिः स्वस्य रक्षणकथनपूर्वकं पुनः सात्यकेरर्जुनम्प्रति गमने नियोजनम्।। 2 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-111-1x |
प्रीतियुक्तं च हृद्यं च माननीयं च सर्वशः। कालयुक्तं च चित्रं च स्वधिया चाभिभाषितम्।। | 5-111-1a 5-111-1b |
धर्मराजस्य तद्वाक्यं निश्यम्य शिनिपुङ्गवः। सात्यकिर्भरतश्रेष्ठ प्रत्युवाच युधिष्ठिरम्।। | 5-111-2a 5-111-2b |
श्रुतं ते गदतो वाक्यं सर्वमेतन्मयाऽच्युत। न्याययुक्तं च सत्यं च फल्गुनार्थे यशस्करम्।। | 5-111-3a 5-111-3b |
एवंविधे तथा काले मादृशं प्रेक्ष्य सत्तम। वक्तुमर्हसि राजेन्द्र यथा पार्थं तथैव माम्।। | 5-111-4a 5-111-4b |
न मे धनञ्जयस्यार्थे प्राणा रक्ष्याः कथञ्चन। त्वत्प्रयुक्तः पुनरहं किं नकुर्यां महाहवे।। | 5-111-5a 5-111-5b |
लोकत्रयं योधयेयं सदेवासुरमानुषम्। त्वत्प्रयुक्तो नरेन्द्रेन्द्र किम्पुनस्तान्सुदुर्बलान्।। | 5-111-6a 5-111-6b |
सुयोधनबलं त्वद्य योधयिष्ये समन्ततः। विजेष्ये च रणे राजन्सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। | 5-111-7a 5-111-7b |
कुशल्यहं कुंशलिनं समासाद्य धनञ्जयम्। हते जयद्रथे राजन्पुनरेष्यामि तेऽन्तिकम्।। | 5-111-8a 5-111-8b |
अवश्यं तु मया सर्वं विज्ञाप्यस्त्वं नराधिप। वासुदेवस्य यद्वाक्यं फल्गुनस्य च धीमतः।। | 5-111-9a 5-111-9b |
दृढं त्वभिहितश्चाहमर्जुनेन पुनःपुनः। मध्ये सर्वस्य सैन्यस्य वासुदेवस्य शृण्वतः।। | 5-111-10a 5-111-10b |
अद्य माधव राजानमप्रमत्तोऽनुपालय। आर्यां युद्धे मतिं कृत्वा यावद्धन्मि जयद्रथम्।। | 5-111-11a 5-111-11b |
त्वयि चाहं महाबाहो प्रद्युम्ने वा महारथे। नृपं निक्षिप्य गच्छेयं निरपेक्षो जयद्रथम्।। | 5-111-12a 5-111-12b |
जानीषे हि रणे द्रोणं कुरुषु श्रेष्ठसम्मतम्। प्रतिज्ञा चापि ते नित्यं श्रुता द्रोणस्य माधव।। | 5-111-13a 5-111-13b |
ग्रहमे धर्मराजस्य भारद्वाजोऽपि गृध्यति। शक्तश्चापि रणे द्रोणो निग्रहीतुं युधिष्ठिरम्।। | 5-111-14a 5-111-14b |
एवं त्वयि समाघाय धर्मराजं नरोत्तमम्। अहमद्य गमिष्यामि सैन्धवस्य वधाय हि।। | 5-111-15a 5-111-15b |
`स त्वमद्य रणे यत्तो रक्ष माधव पाण्डवम्। रक्षेणे धर्मराजस्य ध्रुवो हि विजयो मम'।। | 5-111-16a 5-111-16b |
जयद्रथं च हत्वाऽहं द्रुतमेष्यामि माधव। धर्मराजं न चेद्द्रोणो निगृह्णीयाद्रणे बलात्।। | 5-111-17a 5-111-17b |
निगृहीते नरश्रेष्ठे भारद्वाजेन माधव। सैन्धवस्य वधो न स्यान्ममाप्रीतिस्तथा भवेत्।। | 5-111-18a 5-111-18b |
एवङ्गते नरश्रेष्ठे पाण्डवे सत्यवादिति। अस्माकं गमनं व्यक्तं वनं प्रति भवेत्पुनः।। | 5-111-19a 5-111-19b |
सोऽयं मम जयो व्यक्तं व्यर्थ एव भविष्यति। यदि द्रोणो रणे क्रुद्धो निगृह्णीयाद्युधिष्ठिरम्।। | 5-111-20a 5-111-20b |
स त्वमद्य महाबाहो प्रियार्थं मम माधव। जयार्थं च यशोर्थं च रक्ष राजानमाहवे।। | 5-111-21a 5-111-21b |
स भवान्मयि निक्षेपो निक्षिप्तः सव्यसाचिना। भारद्वाजाद्भयं नित्यं मन्यमानेन वै प्रभो।। | 5-111-22a 5-111-22b |
तस्यापि च महाबाहो नित्यं पश्यामि संयुगे। नान्यं हि प्रतियोद्धारं रौक्मिणेयादृते प्रभो।। | 5-111-23a 5-111-23b |
मां चापि मन्यते युद्धे भारद्वाजस्य धीमतः। सोऽहं संभावनानं चैतामाचार्यवचनं च तत्। पृष्ठतो नोत्सहे कर्तुं त्वां वा त्यक्तुं महीपते।। | 5-111-24a 5-111-24b 5-111-24c |
आचार्यो लघुहस्तत्वादभेद्यकवचावृतः। उपलभ्य रणे क्रीडेद्यथा शकुनिना शिशुः।। | 5-111-25a 5-111-25b |
यदि कार्ष्णिर्धनुष्पाणिरिह स्यान्मकरध्वजः। तस्मै त्वां विसृजेयं वै स त्वां रक्षेद्यथाऽर्जुनः।। | 5-111-26a 5-111-26b |
कुरु त्वमात्मनो गुप्तिं कस्ते गोप्ता गते मयि। यः प्रतीयाद्रमे द्रोणं यावद्गच्छामि पाण्डवम्।। | 5-111-27a 5-111-27b |
मा च ते भयमद्यास्तु राजन्नर्जुनसम्भवम्। न स जातु महाबाहुर्भारमुद्यम्य सीदति।। | 5-111-28a 5-111-28b |
ये च सौवीरका योधास्तथा सैन्धवपौरवाः। उदीच्या दाक्षिणात्याश्च ये चान्येऽपि महारथाः।। | 5-111-29a 5-111-29b |
ये च कर्णमुखा राजन्रथोदाराः प्रकीर्तितः। एतेऽर्जुनस्य क्रुद्धस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।। | 5-111-30a 5-111-30b |
उद्युक्ताः पृथिवीपाल ससुरासुरमानुषाः। सराक्षसगणा राजन्सकिन्नरमहोरगाः।। | 5-111-31a 5-111-31b |
जङ्गमस्थावरैः सार्धं नालं पार्थस्य संयुगे। एवं ज्ञात्वा महाराज व्येतु ते भीर्धनञ्जये।। | 5-111-32a 5-111-32b |
एवं वीरौ महेष्वासौ कृष्णौ सत्यपराक्रमौ। न तत्र कर्मणो व्यापत्कथंचिदपि विद्यते। | 5-111-33a 5-111-33b |
दैवं कृतास्त्रतां योगममर्षं शौर्यमाहवे। कृतज्ञतां दयां चैव भ्रातुस्त्वमनुचिन्तय।। | 5-111-34a 5-111-34b |
मयि चापि सहाये ते गच्छमानेऽर्जुनं प्रति। द्रोणे चित्रास्त्रतां सह्ख्ये राजंस्त्वमनुचिन्तय।। | 5-111-35a 5-111-35b |
आचार्यो हि भृशं राजन्निग्रहे तव गृध्यति। प्रतिज्ञामात्मनो रक्षन्सत्यां कर्तुं च भारत।। | 5-111-36a 5-111-36b |
कुरुष्वाद्यात्मनो गुप्तिं कस्ते गोप्ता गते मयि। यस्याहं प्रत्ययात्पार्थं गच्छेयं फल्गुनं प्रति।। | 5-111-37a 5-111-37b |
न ह्यहं त्वां महाराज अनिक्षिप्य महाहवे। क्वचिद्यास्यामि कौरव्य सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। | 5-111-38a 5-111-38b |
`न पश्यामि रथं कञ्चिद्यस्ते गोप्ता भवेदिह। शक्तं यं मन्यसे राजन्गोप्तारं प्रति पाण्डव'।। | 5-111-39a 5-111-39b |
एतद्विचार्य बहुशो बुद्ध्या बुद्धिमतां वर। दृष्ट्वा श्रेयः परं बुद्ध्या ततो राजन्प्रशाधि माम्।। | 5-111-40a 5-111-40b |
युधिष्ठिर उवाच। | 5-111-41x |
एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि माधव। न तु मे शुद्ध्यते भावः श्वेताश्वं प्रति मारिष।। | 5-111-41a 5-111-41b |
करिष्ये परमं यत्नमात्मनो रक्षणे ह्यहम्। गच्छ त्वं समनुज्ञातो यत्र यातो धनञ्जयः।। | 5-111-42a 5-111-42b |
आत्मसंरक्षणं सङ्ख्ये गमनं चार्जुनं प्रति। विचार्यैतत्स्वयं बुद्ध्या गमनं तत्र रोचये।। | 5-111-43a 5-111-43b |
स त्वमातिष्ठ यानाय यत्र यातो धनञ्जयः। ममापि रक्षणं भीमः करिष्यति महाबलः।। | 5-111-44a 5-111-44b |
पार्षतश्च ससोदर्यः पार्थिवाश्च मबाहलाः। द्रौपदेयाश्च मां तात रक्षिष्यन्ति न संशयः।। | 5-111-45a 5-111-45b |
केकया भ्रातरः पञ्च राक्षसश्च घटोत्कचः। विराटो द्रुपदश्चैव शिखण्डी च महारथः।। | 5-111-46a 5-111-46b |
धृष्टकेतुश्च बलवान्कुन्तिभोजश्च मातुलः। नकुलः सहदेवश्च पाञ्चालाः सृञ्जयास्तथा। एते समाहितास्तात रक्षिष्यन्ति न संशयः।। | 5-111-47a 5-111-47b 5-111-47c |
न द्रोणः सह सैन्येन कृतवर्मा च संयुगे। समासादयितुं शक्तो न च मां धर्षयिष्यति।। | 5-111-48a 5-111-48b |
धृष्टद्युम्नश्च समरे द्रोणं क्रुद्धं परन्तपः। वारयिष्यति विक्रम्य वेलेव मकरालयम्।। | 5-111-49a 5-111-49b |
यत्र स्थास्यति सङ्ग्रामे पार्षतः परवीरहा। न द्रोणस्य बलं तात क्रमेत्तत्र कथञ्चन।। | 5-111-50a 5-111-50b |
एष द्रोणविनाशाय समुत्पन्नो हुताशनात्। कवची स शरी खङ्गी धन्वी च वरभूषणः।। | 5-111-51a 5-111-51b |
`एष द्रोणं रणे क्रुद्धं वारयेत स वै प्रभो। पाञ्चालः सहितैः सर्वैः पाण्डवानां च धन्विभिः'।। | 5-111-52a 5-111-52b |
विक्रुधं गच्छ शैनेय मा कार्षीर्मयि सम्भ्रमम्। धृष्टद्युम्नो रणे क्रुद्धं द्रोणमावारयिष्यति।। | 5-111-53a 5-111-53b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे एकादशाधिकशततमोऽध्यायः।। 111 ।। |
5-111-15 एवमीदृश्यामपि कार्यगतौ। समाधाय निक्षिप्य।। 5-111-19 एवङ्गते ग्रहणं प्राप्ते। अस्माकं चिन्तितं व्यक्तं व्यर्थमेव भवेद्युधि इति. क.ख.ङ.पाठः।। 5-111-27 यावद्रच्छामि गमिष्यामि।। 5-111-28 अर्जुनसम्भवमर्जुनविषयम्।। 5-111-34 दैवममानुषताम्। योगमभिज्ञानम्।। 5-111-38 क्वचित्कस्मिंश्चित् अनिक्षिप्येत्यन्वयः।। 5-111-40 दृष्ट्वा निश्चित्य।। 5-111-44 आतिष्ठ प्रक्रमस्व।। 5-111-47 मातुलः पुरुजित्।। 5-111-53 मयि मामधिकृत्य। सम्भ्रममुद्वेगम्।। 5-111-111 एकादशाधिकशततमोऽध्यायः।।
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