महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-131
← द्रोणपर्व-130 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-131 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-132 → |
भीमेन कर्णस्य पराजयः।। 1 ।।
|
सञ्जय उवाच। | 5-131-1x |
वर्तमाने महाराज सङ्ग्रामे रोमहर्षणे। व्याकुलेषु च सर्वेषु पीड्यमानेषु सर्वशः।। | 5-131-1a 5-131-1b |
राधेयो भीममानर्च्छ युद्धाय भरतर्षभ। यथा नागो वने नागं मत्तो मत्तमभिद्रवेत्।। | 5-131-2a 5-131-2b |
`ततो व्यायच्छतामस्त्रैः पृथक्पृथगरिन्दमौ। मृदुपूर्वं च राधेयो दृढपूर्वं च पाण्डवः'।। | 5-131-3a 5-131-3b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-131-4x |
यौ तौ कर्णश्च भीमश्च सम्प्रयुद्धौ महाबलौ। अर्जुनस्य रथोपान्ते कीदृशः सोऽभवद्रणः।। | 5-131-4a 5-131-4b |
पूर्वं हि निर्जितः कर्णो भीमसेनेन संयुगे। कथं भूयः स राधेयो भीममागान्महारथः।। | 5-131-5a 5-131-5b |
भीमो वा सूततनयं प्रत्युद्यातः कथं रणे। महारथसमाख्यातं पृथिव्यां प्रवरं रथम्।। | 5-131-6a 5-131-6b |
भीष्मद्रोणावतिक्रम्य धर्मराजो युधिष्ठिरः। नान्यतो भयमादत्त विना कर्णान्महारथात्।। | 5-131-7a 5-131-7b |
भयाद्यस्य महाबाहो न शेते बहुलाः समाः। चिन्तयन्नित्यशो वीर्यं राधेयस्य महात्मनः। तं कथं सूतपुत्रं तु भीमोऽयोधयताहवे।। | 5-131-8a 5-131-8b 5-131-8c |
ब्रह्मण्यं वीर्यसम्पन्नं समरेष्वनिवर्तिनम्। कथं कर्णं युधां श्रेष्ठं योधयामास पाण्डवः।। | 5-131-9a 5-131-9b |
यौ तौ समीयतुर्वीरौ वैकर्तनवृकोदरौ। कथं तावत्र युध्येतां महाबलपराक्रमौ।। | 5-131-10a 5-131-10b |
भ्रातृत्वं दर्शितं पूर्वं घृणी चापि स सूतजः। कथं भीमेन युयुधे कुन्त्या वाक्यमनुस्मरन्।। | 5-131-11a 5-131-11b |
भीमो वा सूतपुत्रेण स्मरन्वैरं पुरा कृतम्। अयुध्यत कथं शूरः कर्णेन सह संयुगे।। | 5-131-12a 5-131-12b |
आशास्ते च सदा सूतपुत्रे दुर्योधनो मम। कर्णो जेष्यति सङ्ग्रामे समस्तान्पाण्डवानिति।। | 5-131-13a 5-131-13b |
जयाशा यत्र पुत्रस्य मम मन्दस्य संयुगे। स कथं भीमकर्माणं भीमसेनमयोधयत्।। | 5-131-14a 5-131-14b |
यं समासाद्य पुत्रैर्मे कृतं वैरं महारथैः। तं सूततनयं तात कथं भीमो ह्ययोधयत्।। | 5-131-15a 5-131-15b |
अनेकान्विप्रकारांश्च सूतपुत्रसमुद्भवान्। स्मरमाणः कथं भीमो युयुधे सूतसूनुना।। | 5-131-16a 5-131-16b |
योऽजयत्पृथिवीं सर्वां रथेनैकेन वीर्यवान्। तं सूततनयं युद्धे कथं भीमो ह्ययोधयत्।। | 5-131-17a 5-131-17b |
यो जातः कुण्डलाभ्यां च कवचेन सहैव च। तं सूतपुत्रं समरे भीमः कथमयोधयत्।। | 5-131-18a 5-131-18b |
`अस्त्रहेतोः पुरा तात भार्गवं समपूजयत्। तस्य प्रसादाद्ब्रह्मास्त्रं लब्धवांश्च भृगूत्तमात्'।। | 5-131-19a 5-131-19b |
यथा तयोर्युद्धमभूद्यश्चासीद्विजयी तयोः। तन्ममाचक्ष्व तत्त्वेन कुशलो ह्यसि सञ्जय।। | 5-131-20a 5-131-20b |
सञ्चय उवाच। | 5-131-21x |
भीमसेनस्तु राधेयमुत्सृज्य रथिनां वरम्। इयेष गन्तुं यत्रास्तां वीरौ कृष्णधनञ्चयौ।। | 5-131-21a 5-131-21b |
तं प्रयान्तमभिद्रुत्य राधेयः कङ्कपत्रिभिः। अभ्यवर्षन्महाराज मेघो वृष्ट्येव पर्वतम्।। | 5-131-22a 5-131-22b |
फुल्लता पङ्कजेनेव वक्त्रेण विहसन्बली। आजुहाव रणे यान्तं भीममाधिरथिस्तदा।। | 5-131-23a 5-131-23b |
कर्ण उवाच। भीमाहितैस्तव रणः स्वप्नेऽपि न विभावितः। | 5-131-24a 5-131-24b |
तद्दर्शयसि कस्मान्मे पृष्ठं पार्थदिदृक्षया।। कुन्त्याः पुत्रस्य सदृशं नेदं पाण्डवनन्दन। | 5-131-25a 5-131-25b |
तेन मामभितः स्थित्वा शरवर्षैरवाकिर।। | 5-131-26a |
सञ्जय उवाच। | 5-131-26x |
भीमसेनस्तदाह्वानं कर्णान्नामर्षयद्युधि। अर्धमण्डलमावृत्य सूतपुत्रमयोधयत्।। | 5-131-26b 5-131-26c |
अवक्रगामिभिर्बाणैरभ्यवर्षन्महायशाः। दंशितं द्वैरथे यत्तं सर्वशस्त्रविशारदम्।। | 5-131-27a 5-131-27b |
विधित्सुः कलहस्यान्तं जिघांसुः कर्णमक्षिणोत्।। | 5-131-28a |
हत्वा तस्यानुगांस्तं च हन्तुकामो महाबलः। तस्मै व्यसृजदुग्राणि विविधानि परन्तपः। अमर्षात्पाण्डवः क्रुद्धः शरवर्षाणि मारिष।। | 5-131-29a 5-131-29b 5-131-29c |
तस्य तानीषुवर्षाणि मत्तद्विरदगामिनः। सूतपुत्रोऽस्त्रमायाभिरग्रसत्परमास्त्रवित्।। | 5-131-30a 5-131-30b |
स यथावन्महाबाहुर्विद्यया वै सुपूजितः। आचार्यवन्महेष्वासः कर्णः पर्यचरद्बली।। | 5-131-31a 5-131-31b |
युध्यमानं तु संरम्भाद्भीमसेनं हसन्निव। अभ्यपद्यत कौन्तेयं कर्णो राजन्वृकोदरम्।। | 5-131-32a 5-131-32b |
तन्नामृष्यत कौन्तेयः कर्णस्य स्मितमाहवे। युध्यमानेषु वीरेषु पश्यत्सु च समन्ततः।। | 5-131-33a 5-131-33b |
तं भीमसेनः सङ्ग्राप्तं वत्सदन्तैः स्तनान्तरे। विव्याध बलवान्क्रुद्धस्तोत्रैरिव महाद्विपम्।। | 5-131-34a 5-131-34b |
पुनश्च सूतपुत्रं तु स्वर्णपुङ्खैः शिलाशितैः। सुमुक्तैश्चित्रवर्माणं निर्बिभेद त्रिसप्तभिः।। | 5-131-35a 5-131-35b |
कर्णो जाम्बूनदैर्जालैः सञ्छन्नान्वातरंहसः। हयान्विव्याध भीमस्य पञ्चभिः पञ्चभिः शरैः।। | 5-131-36a 5-131-36b |
ततो बाणमयं जलं भीमसेनरथं प्रति। कर्णेन विहितं राजन्निमेषार्धाददृश्यत।। | 5-131-37a 5-131-37b |
सरथः सध्वजस्तत्र ससूतः पाण्डवस्तदा। प्राच्छाद्यत महाराज कर्णचापच्युतैः शरैः।। | 5-131-38a 5-131-38b |
तस्य कर्णश्चतुःषष्ट्या व्यधमत्कवचं दृढम्। क्रुद्धश्चाप्यहनत्पार्थं नाराचैर्मर्मभेदिभिः।। | 5-131-39a 5-131-39b |
ततोऽचिन्त्य महाबाहुः कर्णकार्मुकनिःसृतान्। समाश्लिष्यदसम्भ्रान्तः सूतपुत्रं वृकोदरः।। | 5-131-40a 5-131-40b |
स कर्णचापप्रभवानिषूनाशीविषोपमान्। बिभ्रद्भीमो महाराज न जगाम व्यथां रणे।। | 5-131-41a 5-131-41b |
ततो द्वात्रिंशता भल्लैर्निशितैस्तिग्मतेजनैः। विव्याध समरे कर्णं भीमसेनः प्रतापवान्।। | 5-131-42a 5-131-42b |
अयत्नेनैव तं कर्णः शरैर्भृशमवाकिरत्। भीमसेनं महाबाहुं सैन्धवस्य वधैषिणम्।। | 5-131-43a 5-131-43b |
मृदुपूर्वं तु राधेयो भीममाजावयोधयत्। क्रोधपूर्वं तथा भीमः पूर्ववैरमनुस्मरन्।। | 5-131-44a 5-131-44b |
तं भीमसेनो नामृष्यदवमानममर्षणः। स तस्मै व्यसृजत्तूर्णं शरवर्षममित्रहा।। | 5-131-45a 5-131-45b |
ते शराः प्रेषितास्तेन भीमसेनेन संयुगे। निपेतुः सर्वतो वीरे कूजन्त इव पक्षिणः।। | 5-131-46a 5-131-46b |
हेमपुङ्खा महावेगा भीमसेनधनुश्च्युताः। प्राच्छादयंस्ते राधेयं शलभा इव पावकम्।। | 5-131-47a 5-131-47b |
कर्णस्तु रथिनां श्रेष्ठश्छाद्यमानः समन्ततः। राजन्व्यसृजदुग्राणि शरवर्षाणि भारत।। | 5-131-48a 5-131-48b |
तस्य तानशनिप्रख्यानिषून्समरशोभिनः। चिच्छेद बहुभिर्भल्लैरसम्प्राप्तान्वृकोदरः।। | 5-131-49a 5-131-49b |
पुनश्च शरवर्षेण च्छादयामास भारत। कर्णो वैकर्तनो युद्धे भीमसेनमरिन्दमः।। | 5-131-50a 5-131-50b |
तत्र भारत भीमं तु दृष्टवन्तः स्म सायकैः। समाचिततनुं सङ्ख्ये श्वाविधं शललैरिव।। | 5-131-51a 5-131-51b |
हेमपुङ्खाञ्छिलाधौतान्कर्णचापच्युताञ्छरान्। दधार समरे वीरः स्वरश्मीनिव रश्मिमान्'।। | 5-131-52a 5-131-52b |
रुधिरोक्षितसर्वाङ्गो भीमसेनो व्यराजत। समृद्धकुसुमापीडो वसन्तेऽशोकवृक्षवत्।। | 5-131-53a 5-131-53b |
तत्तु भीमो महाबाहोः कर्णस्य चरितं रणे। नामृष्यत महाबाहुः क्रोधादुद्वृत्तलोचनः।। | 5-131-54a 5-131-54b |
स कर्णं पञ्चविंशत्या नाराचानां समार्पयत्। महीधरमिव श्वेतं गूढपादैर्विषोल्बणैः।। | 5-131-55a 5-131-55b |
पुनरेव च विव्याध षङ्भिरष्टाभिरेव च। मर्मस्वमरविक्रान्तः सूतपुत्रं तनुत्यजम्।। | 5-131-56a 5-131-56b |
पुनरन्येन बाणेन भीमसेनः प्रतापवान्। चिच्छेद कार्मुकं तूर्णं कर्णस्य प्रहसन्निव।। | 5-131-57a 5-131-57b |
जघान चतुरश्चाश्वान्सूतं च त्वरितः शरैः। नाराचैरर्करश्म्याभैः कर्णं विव्याध चोरसि।। | 5-131-58a 5-131-58b |
ते जग्मुर्धरणीमाशु कर्णं निर्भिद्य पत्रिणः। यथा जलधरं भित्त्वा दिवाकरमरीचयः।। | 5-131-59a 5-131-59b |
स वैक्लव्यं महत्प्राप्य च्छिन्नधन्वा शराहतः। तथा पुरुषमानी स लज्जामुत्सृज्य भारत। भीमसेनभयात्कर्णः प्रत्यपायाद्रथान्तरम्।। | 5-131-60a 5-131-60b 5-131-60c |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे एकत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 131 ।। |
5-131-11 पूर्वमुद्योगे दर्शितमुद्भाविवं भ्रातूत्वं कुन्त्या वाक्यं च चतुर्णमवध्यत्वलक्षणं चानुस्मरन्नित्यन्वयः।। 5-131-25 अभितः सम्मुखे।। 5-131-131 एकत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-130 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-132 |