महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-043
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जयद्रथेन रुद्रवरात् व्यूहपथं पिधाय पाण्डवादिनिरोधः।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-43-1x |
यन्मां पृच्छसि राजेन्द्र सिन्धुराजस्य विक्रमम्। शृणु तत्सर्वमाख्यास्ये यथा पाण्डूनयोधयत्।। | 5-43-1a 5-43-1b |
तमूहुर्वाजिनो वश्याः सैन्धवाः साधुवाहिनः। विकुर्वाणा बृहन्तोऽश्वाः श्वसनोपरंहसः।। | 5-43-2a 5-43-2b |
गन्धर्वनगराकारं विधिवत्कल्पितं रथम्। तस्याभ्यशोभयत्केतुर्वाराहो राजतो महान्।। | 5-43-3a 5-43-3b |
श्वेतश्चत्रपताकाभिश्चामरव्यजनेन च। स बभौ राजलिङ्गैस्तैस्तारापतिरिवाम्बरे।। | 5-43-4a 5-43-4b |
मुक्तावज्रमणिस्वर्णैर्भूषितं तदयस्मयम्। वरूथं विबभौ तस्य ज्योतिर्भिः खमिवावृतम्।। | 5-43-5a 5-43-5b |
स विष्फार्य महच्चापं किरन्निषुगणान्बहून। तत्कण्डं पूरयामास यदार्जुनिरदारयत्।। | 5-43-6a 5-43-6b |
स सात्यकिं त्रिभिर्बाणैरष्टभिश्च वृकोदरम्। धृष्टद्युम्नं तथा षष्ट्या विराटं दशभिः शरैः।। | 5-43-7a 5-43-7b |
द्रुपदं पञ्चभिस्तीक्ष्णैः सप्तभिश्च शिखण्डिनम्। केकयान्पञ्चविंशत्या द्रौपदेयांस्त्रिभिस्त्रिभिः।। | 5-43-8a 5-43-8b |
युधिष्ठिरं तु सप्तत्या ततः शेषानपानुदत्। इषुजालेन महता तदद्भुतमिवाभवत्।। | 5-43-9a 5-43-9b |
अथास्य शितपीतेन भल्लेनादिश्य कार्मुकम्। चिच्छेद प्रहसन्राजा धर्मपुत्रः प्रतापवान्।। | 5-43-10a 5-43-10b |
अक्ष्णोर्निमेषमात्रेण सोऽन्यदादाय कार्मुकम्। विव्याध दशभिः पार्थं तांश्चैवान्यांस्त्रिभिस्त्रिभिः।। | 5-43-11a 5-43-11b |
तत्तस्य लाघवं ज्ञात्वा भीमो भल्लैस्त्रिभिस्त्रिभिः। धनुर्ध्वजं च च्छत्रं च क्षितौ क्षिप्रमपातयत्।। | 5-43-12a 5-43-12b |
सोऽन्यदादाय बलवान्सज्जं कृत्वा च कार्मुकम्। भीमस्यापातयत्केतुं धनुरश्वांश्च मारिष।। | 5-43-13a 5-43-13b |
स हताश्वादवप्लुत्य च्छिन्नधन्वा रथोत्तमात्। सोत्यकेराप्लुतो यानं गिर्यग्रमिव केसरी।। | 5-43-14a 5-43-14b |
ततस्त्वदीयाः संहृष्टाः साधुसाध्विति वादिनः। सिन्धुराजस्य तत्कर्म प्रेक्ष्याश्रद्धेयमद्भुतम्।। | 5-43-15a 5-43-15b |
सङ्क्रुद्धान्पाण्डवानेको यद्दधारास्त्रतेजसा। तत्तस्य कर्म भूतानि सर्वाण्येवाभ्यपूजयन्।। | 5-43-16a 5-43-16b |
सौभद्रेण हतैः पूर्वं सोत्तरायोधिभिर्द्विपैः। पाण्डूनां दर्शितः पन्थाः सैन्धवेन निवारितः।। | 5-43-17a 5-43-17b |
यतमानास्तु ते वीरा मात्स्यपाञ्चालकेकयाः। पाण्डवाश्चान्वपद्यन्त प्रतिशेकुर्न सैन्धवम्।। | 5-43-18a 5-43-18b |
यो यो हि यतते भेत्तुं द्रोणानीकं तवाहितः। तत्तमेव वरं प्राप्य सैन्धवः प्रत्यवारयत्।। | 5-43-19a 5-43-19b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभमन्युवधपर्वणि त्रयोदशदिवसयुद्धे त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः।। 43 ।। |
5-43-5 वरूथं रथवेष्टनम्।। 5-43-10 आदिश्य एष च्छिनद्मीत्युद्दिश्य।। 5-43-43 त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः।।
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