महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-193
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द्रोणधृष्टद्युम्नयोर्युद्धम्।। 1 ।। द्रोणेन सोपालम्भभीमवचः श्रवणेन शस्त्रन्यासपूर्वकं योगेन शीरत्यागः।। 2 ।। शरीरार्न्निर्गच्छतस्तेजोरूपस्य द्रोणस्य सञ्जयादिभिः पञ्चभिरेवावलोकनम्।। 3 ।। धृष्टद्युम्नेन द्रोणशिरश्छेदः।। 4 ।।
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सञ्चय उवाच। | 5-193-1x |
[सात्वतस्य* तु तत्कर्म दृष्ट्वा दुर्योधनादयः। शैनेयं सर्वतः क्रुद्धा वारयामासुरञ्जसा।। | 5-193-1a 5-193-1b |
कृपकर्णौ च समरे पुत्राश्च तव मारिष।। शैनेयं त्वरयाऽभ्येत्य विनिघ्नन्निशितैः शरैः।। | 5-193-2a 5-193-2b |
युधिष्ठिरस्ततो राजा माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ। भीमसेनश्च बलवान्सात्यकिं पर्यवारयन्।। | 5-193-3a 5-193-3b |
कर्णश्च शरवर्षेण गौतमश्च महारथः। दुर्योधनादयस्ते च शैनेयं पर्यवारयन्।। | 5-193-4a 5-193-4b |
तां वृष्टिं सहसा राजन्नुत्थितां घोररूपिणीम्। वारयामास शैनेयो योधयंस्तान्महारथान्।। | 5-193-5a 5-193-5b |
तेषामस्त्राणि दिव्यानि संहितानि महात्मनाम्। वारयामास विधिवद्दिव्यैरस्त्रैर्महामृधे।। | 5-193-6a 5-193-6b |
क्रूरमायोधनं जज्ञे तस्मिन्राजसमागमे। रुद्रस्येव हि क्रुद्धस्य निघ्नतस्तान्पशून्पुरा।। | 5-193-7a 5-193-7b |
हस्तानामुत्तमाङ्गानां कार्मुकाणां च भारत। छत्राणां चापविद्धानां चामराणां च सञ्चयैः। राशयः स्म व्यदृश्यन्त तत्रतत्र रणाजिरे।। | 5-193-8a 5-193-8b 5-193-8c |
भग्नचक्रै रथैश्चापि पातितैश्च महाध्वजैः। सादिभिश्च हतैः शूरैः सङ्कीर्णा वसुधाऽभवत्।। | 5-193-9a 5-193-9b |
बाणपातनिकृत्तास्तु योधास्ते कुरुसत्तम। चेष्टन्तो विविधाश्चेष्टा व्यदृश्यन्त महाहवे।। | 5-193-10a 5-193-10b |
वर्तमाने तथा युद्धे घोरे देवासुरोपमे। अब्रवीत्क्षत्रियांस्तत्र धर्मराजो युधिष्ठिरः।। | 5-193-11a 5-193-11b |
अभिद्रवत संयत्ताः कुम्भयोनिं महारथाः। एषो हि पार्पतो वीरो भारद्वाजेन सङ्गतः।। | 5-193-12a 5-193-12b |
घटते च यथाशक्ति भारद्वाजस्य नाशने। यादृशानि हि रूपाणि दृश्यन्तेऽस्य महारणे।। | 5-193-13a 5-193-13b |
अद्य द्रोणं रणे क्रुद्धो घातयिष्यति पार्पतः। ते यूयं सहिता भूत्वा युध्यध्वं कुम्भसम्भवम्। | 5-193-14a 5-193-14b |
युधिष्ठिरसमाज्ञप्ताः सृञ्जयानां महारथाः। अभ्यद्रवन्त संयत्ता भारद्वाजजिघांसवः।। | 5-193-15a 5-193-15b |
तान्समापततः सर्वान्भारद्वाजो महारथः। अभ्यवर्तत वेगेन मर्तव्यमिति निश्चितः।। | 5-193-16a 5-193-16b |
प्रयाते सत्यसन्धे तु समकम्पत मेदिनी। ववुर्वाताः सनिर्घातास्त्रासयाना वरूथिनीम्।। | 5-193-17a 5-193-17b |
पपात महती चोल्का आदित्यान्निश्चरन्त्युत। दीपयन्ती उभे सेने शंसन्तीव महद्भयम्।। | 5-193-18a 5-193-18b |
जज्वलुश्चैव शस्त्राणि भारद्वाजस्य मारिष। रथाः स्वनन्ति चात्यर्थं हयाश्चाश्रूण्यवासृजन्।। | 5-193-19a 5-193-19b |
हतौजा इव चाप्यासीद्भारद्वाजो महारथः। प्रास्फुरन्नयनं चास्य वामबाहुस्तथैव च।। | 5-193-20a 5-193-20b |
विमनाश्चाभवद्युद्धे दृष्ट्वा पार्षतमग्रतः।। | 5-193-21a |
ऋषीणां ब्रह्मवादानां स्वर्गस्य गमनं प्रति। सुयुद्धेन ततः प्राणानुत्स्रष्टुमुपचक्रमे।।] | 5-193-22a 5-193-22b |
ततश्चतुर्दिशं सैन्यैर्द्रुपदस्याभिसंवृतः। निर्दहन्क्षत्रियव्रातान्द्रोणः पर्यचरद्रणे।। | 5-193-23a 5-193-23b |
हत्वा विंशतिसाहस्रान्क्षत्रियानरिमर्दनः। दशायुतानि करिणामवधीद्विशिखैः शितैः।। | 5-193-24a 5-193-24b |
सोऽतिष्ठदाहवे यत्तो विधूमोऽग्निरिव ज्वलन्। क्षत्रियाणामभावाय ब्राह्ममस्त्रं समास्थितः।। | 5-193-25a 5-193-25b |
पाञ्चाल्यं विरथं भीमो हतसर्वायुधं बली। सुविपण्णं महात्मानं त्वरमाणः समभ्ययात्।। | 5-193-26a 5-193-26b |
ततः स्वरथमारोप्य पाञ्चाल्यमरिमर्दनः। अब्रवीदभिसम्प्रेक्ष्य द्रोणमस्यन्तमन्तिकात्।। | 5-193-27a 5-193-27b |
न त्वदन्य इहाचार्यं योद्धुमुत्सहते पुमान्। त्वरस्व प्राग्वधायैव त्वयि भारः समाहितः।। | 5-193-28a 5-193-28b |
स तथोक्तो महाबाहुः सर्वभारसहं धनुः। अभिपत्याददे क्षिप्रमायुधप्रवरं दृढम्।। | 5-193-29a 5-193-29b |
संरब्धश्च शरानस्यन्द्रोणं दुर्वारणं रणे। विवारयिपुराचार्यं शरवर्षैरवाकिरत्।। | 5-193-30a 5-193-30b |
तौ न्यवारयतां श्रेष्ठौ संरब्धौ रणशोभिनौ। उदीरयेतां ब्राह्माणि दिव्यान्यस्त्राण्यनेकशः।। | 5-193-31a 5-193-31b |
स महास्त्रैर्महाराज द्रोणमाच्छादयद्रणे। निहत्य सर्वाण्यस्त्राणि भारद्वाजस्य पार्षतः।। | 5-193-32a 5-193-32b |
स वसातीञ्शिवींस्चैव वाह्लीकान्कौरवानपि। रक्षिष्यमाणान्सङ्ग्रामे द्रोणं व्यधमदच्युतः।। | 5-193-33a 5-193-33b |
धृष्टद्युम्नस्तथा राजन्गभस्तिभिरिवांशुमान्। वभौ प्रच्छादयन्नाशाः शरजालैः समन्ततः।। | 5-193-34a 5-193-34b |
तस्य द्रोणो धनुश्छित्त्वा विद्ध्वा चैनं शिलीमुखैः। मर्माण्यभ्यहनद्भूयः स व्यथां परमामगात्।। | 5-193-35a 5-193-35b |
ततो भीमो दृढक्रोधो द्रोणस्याश्लिष्य तं रथम्। शनकैरिव राजेन्द्र द्रोणं वचनमब्रवीत्।। | 5-193-36a 5-193-36b |
यदि नाम न युध्येरञ्शिक्षिता ब्रह्मबन्धवः। स्वकर्मभिरसन्तुष्टा न स्म क्षत्रं क्षयं व्रजेत्।। | 5-193-37a 5-193-37b |
अहिंसां सर्वभूतेषु धर्मं ज्यायस्तरं विदुः। तस्य च ब्राह्मणो मूलं भवांश्च ब्रह्मवित्तमः।। | 5-193-38a 5-193-38b |
श्वपाकवन्म्लेच्छगणान्हत्वा चान्यान्पृथग्विधान्। `भरन्ति हि सुतान्दारांस्तद्वदज्ञानमोहिताः'।। | 5-193-39a 5-193-39b |
अज्ञानान्मूढवद्ब्रह्मन्पुत्रदारधनेप्सया। एकस्यार्थे बहून्हत्वा पुत्रस्याधर्मविद्यया। स्वकर्मस्थान्विकर्मस्थो न व्यपत्रपसे कथम्।। | 5-193-40a 5-193-40b 5-193-40c |
`आचारहीन निर्लज्ज ब्रह्मवन्धो वरायुध। इदानीं तिष्ठ दुर्बुद्धे न मे जीवन्विमोक्ष्यसे।। | 5-193-41a 5-193-41b |
यस्यार्थे शस्त्रमादाय यमपेक्ष्य च जीवसि। स चाद्य पतितः शेते पृष्टेनावेदितस्तवः।। | 5-193-42a 5-193-42b |
`स वै च निहतः शेते तव पुत्रः सुमन्दधीः'। धर्मराजस्य तद्वाक्यं नाभिशङ्कितुमर्हसि।। | 5-193-43a 5-193-43b |
एवमुक्तस्ततो द्रोणो भीमेनोत्सृज्य तद्वनुः। `सन्न्यासाय शरीरस्य योक्ष्यमाणः स वै द्विजः'। सर्वाण्यस्त्राणि धर्मात्मा हातुकामोऽभ्यभापत।। | 5-193-44a 5-193-44b 5-193-44c |
`कर्णं दुर्योधनं राजंस्त्वरमाणः पराक्रमम्'। कर्णकर्ण महेष्वास कृप दुर्योधनेति च।। | 5-193-45a 5-193-45b |
सङ्ग्रामे क्रियतां यत्नो ब्रवीम्येष पुनःपुनः। पाण्डवेभ्यः शिवं वोस्तु शस्त्रमभ्युत्सृजाम्यहम्। इति तत्र महाराज प्राक्रोशद्द्रौणिमेव च।। | 5-193-46a 5-193-46b 5-193-46c |
उत्सृज्य च रणे शस्त्रं रथोपस्थे निविश्य च। अभयं सर्वभूतानां प्रददौ योगमीयिवान्।। | 5-193-47a 5-193-47b |
तस्य तच्छिद्रनाज्ञाय धृष्टद्युम्नः प्रतापवान्। सशरं तद्वनुर्घोरं सन्न्यस्याथ रथे ततः। खङ्गी रथादवप्लुत्य सहसा द्रोणमभ्ययात्।। | 5-193-48a 5-193-48b 5-193-48c |
`प्रद्रुते त्वथ द्रोणाय धृष्टद्युम्ने महारथे'। हाहाकृतानि भूतानि मानुषाणीतराणि च।। | 5-193-49a 5-193-49b |
द्रोणं तथागतं दृष्ट्वा धृष्टद्युम्नवशं गतम्। हाहाकारं भृशं चक्रुरहो धिगिति चाबुवन्।। | 5-193-50a 5-193-50b |
द्रोणोऽपि शस्त्राण्युत्सृज्य परमं साङ्ख्यमास्थितः। तथोक्त्वा योगमास्थाय ज्योतिर्भूतो महातपाः।। | 5-193-51a 5-193-51b |
पुराणं पुरुषं विष्णुं जगाम मनसा परम्। मुखं किञ्चित्समुन्नाम्य विष्टब्योरस्तथाग्रतः।। | 5-193-52a 5-193-52b |
निमीलिताक्षः सत्वस्थो निक्षिप्य हृदि धारणाम्। ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म ज्योतिर्भूतो महातपाः।। | 5-193-53a 5-193-53b |
स्मरित्वा देवदेवेशमक्षरं परमं प्रभुम्। दिवमाक्रामदाचार्यः साक्षात्सद्भिर्दुराक्रमाम्।। | 5-193-54a 5-193-54b |
`मूर्धानं तस्य निर्भिद्य ज्योती राजन्महात्मनः। जगाम परमं स्थानं देहं न्यस्य रथोत्तमे'।। | 5-193-55a 5-193-55b |
द्वौ सूर्याविति नो बुद्धिरासीत्तस्मिंस्तथागते। एकरूपमिवाभासीज्योतिर्भिः पूरितं नभः।। | 5-193-56a 5-193-56b |
समपद्यत चोल्काभं द्रोणस्य निधने तदा। निमेषमात्रेण च तज्ज्योतिरन्तरधीयत।। | 5-193-57a 5-193-57b |
आसीत्किलकिलाशब्दः प्रहृष्टानां दिवौकसाम्। ब्रह्मलोकगते द्रोणे धृष्टद्युम्ने च मोहिते।। | 5-193-58a 5-193-58b |
वयमेव तदाऽद्राक्ष्म पञ्च मानुषयोनयः। योगयुक्तं महात्मानं गच्छन्तं परमां गतिम्।। | 5-193-59a 5-193-59b |
अहं धनञ्जयः पार्थः कृपः शारद्वतो द्विजः। वासुदेवश्च वार्ष्णेयो धर्मपुत्रश्च पाण्डवः।। | 5-193-60a 5-193-60b |
अन्ये तु सर्वे नापश्यन्भारद्वाजस्य धीमतः। महिमानं महाराज योगयुक्तस्य गच्छतः। ब्रह्मलोकं महद्दिव्यं देवगुह्यं हि तत्परम्।। | 5-193-61a 5-193-61b 5-193-61c |
गतिं परमिकां प्राप्तमजानन्तो नृयोनयः। नापश्यन्गच्छमानं हि तं सार्धमृषिपुङ्गवैः। आचार्यं योगमास्थाय ब्रह्मलोकमरिन्दमम्।। | 5-193-62a 5-193-62b 5-193-62c |
वितुन्नाङ्गं शरव्रातैरन्यस्तायुधमसृक्क्षरम्। विकृष्य पार्षतः खङ्गं क्रोधामर्षवशं गतः। दृश्यमानः सर्वभूतैः केशपक्षे परामृशत्।। | 5-193-63a 5-193-63b 5-193-63c |
तस्य मूर्धानमालम्ब्य गतसत्वस्य देहिनः। किञ्चिदब्रुवतः कायाद्विचकर्तासिना शिरः।। | 5-193-64a 5-193-64b |
हर्षेण महता महता युक्तो भारद्वाजे निपातिते। सिंहनादरवं चक्रे भ्रामयन्खङ्गमाहवे।। | 5-193-65a 5-193-65b |
आकर्णपलितः श्यामो वयसाऽशीतिपञ्चकः। त्वत्कृते व्यचरत्सङ्ख्ये स तु षोडशवर्षवत्।। | 5-193-66a 5-193-66b |
उक्तवाश्च महाबाहुः कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः। जीवन्तमानयाचार्यं मा वधीर्द्रुपदात्मज।। | 5-193-67a 5-193-67b |
न हन्तव्यो न हन्तव्य इति ते सैनिकाश्च ह। उत्क्रोशन्नर्जुनश्चैव सानुक्रोशस्तमाव्रजत्।। | 5-193-68a 5-193-68b |
क्रोशमानेऽर्जुने चैव पार्थिवेषु च सर्वशः। धृष्टद्युम्नोऽवधीद्द्रोणं रथतल्पे नरर्षभम्।। | 5-193-69a 5-193-69b |
शोणितेन परिक्लिन्नो रथाद्भूमिमथापतत्। लोहिताङ्ग इवादित्यो दुर्धर्षः समपद्यत।। | 5-193-70a 5-193-70b |
एवं तं निहतं सङ्ख्ये ददृशे सैनिको जनः। धृष्टद्युम्नस्तु तद्राजन्भारद्वाजशिरोऽहरत्।। | 5-193-71a 5-193-71b |
तावकानां महेष्वासः प्रमुखे तत्समाक्षिपत्। ते तु दृष्ट्वा शिरो राजन्भारद्वाजस्य तावकाः।। | 5-193-72a 5-193-72b |
पलायनकृतोत्साहा दुद्रुवः सर्वतोदिशम्। द्रोणस्तु दिवमास्थाय नक्षत्रपथमाविशत्।। | 5-193-73a 5-193-73b |
अहमेव तदाऽद्राक्षं द्रोणस्य निधनं नृप। ऋषेः प्रसादात्कृष्मस्य सत्यवत्याः सुतस्य च।। | 5-193-74a 5-193-74b |
विधूमामिह संयान्तीमुल्कां प्रज्वलितामिव। अपश्याम दिवं स्तब्ध्वा गच्छन्तं तं महाद्युतिम्।। | 5-193-75a 5-193-75b |
हते द्रोणे निरुत्साहाः कुरुपाण्डवसृञ्जयाः। अभ्यद्रवन्महावेगास्ततः सैन्यं व्यदीर्यत।। | 5-193-76a 5-193-76b |
निहता हतभूयिष्ठाः सङ्ग्रामे निशितैः शरैः। तावका निहते द्रोणे गतासव इवाभवन्।। | 5-193-77a 5-193-77b |
पराजयमथावाप्य परत्र च महद्भयम्। उभयेनैव ते हीना व्यनिन्दन्मतिमात्मनः।। | 5-193-78a 5-193-78b |
अन्विच्छन्तः शरीरं तु भारद्वाजस्य पार्थिवाः। नान्वगच्छन्महाराज कबन्धायुतसङ्कुले।। | 5-193-79a 5-193-79b |
`पतिते त्वथ संरब्धे सेनायां तत्र भारत। उदिष्ठन्कबन्धानां सहस्राण्येकविंशतिः।। | 5-193-80a 5-193-80b |
शोणितेन परिक्लिन्ना रणभूमिश्च भारत। लोहितार्द्र इवादित्यो दुर्दर्शश्चाभवत्तदा'।। | 5-193-81a 5-193-81b |
पाण्डवास्तु जयं लब्ध्वा परत्र च महद्यशः। बाणशङ्खरवांश्चक्रुः सिंहनादांश्च पुष्कलान्।। | 5-193-82a 5-193-82b |
भीमसेनस्ततो राजन्धृष्टद्युम्नश्च पार्षतः। वरूथिन्यामनृत्येतां परिष्वज्य परस्परम्।। | 5-193-83a 5-193-83b |
अब्रवीच्च तदा भीमः पार्षतं शत्रुतापनम्। भूयोऽहं त्वां परिष्वज्य परिवक्ष्यामि पार्षत। सूतपुत्रे हते पापे धार्तराष्ट्रे च संयुगे।। | 5-193-84a 5-193-84b 5-193-84c |
एतावदुक्त्वा भीमस्तु हर्षेण महता युतः। बाहुशब्देन पृथिवीं कम्पयामास पाण्डवः।। | 5-193-85a 5-193-85b |
तस्य शब्देन वित्रस्ताः प्राद्रवंस्तावका युधि। क्षत्रधर्मं समुत्सृज्य पलायनपरायणाः।। | 5-193-86a 5-193-86b |
पाण्डवास्तु जयं लब्धा हृष्टा ह्यासन्विशाम्पते। अरिक्षयं च सङ्ग्रामे तेन ते सुखमाप्नुवन्।। | 5-193-87a 5-193-87b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणवधपर्वणि पञ्चदशदिवसयुद्धे त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 193 ।। |
5-193-12 एषो हीति सन्धिरार्षः।। 5-193-22 ब्रह्मवादानां वेदतुल्यानां वचनानाम्। द्वितीयार्थे षष्ठी। श्रुत्येति शेषः।। 5-193-* कुण्डलिताः 22 श्लोकाः झपुस्तकएव दृश्यन्ते। 5-193-42 पृष्ठेन त्वया पृष्ठेन युधिष्ठिरेण आवेदितः हत इति निवेदितः।। 5-193-78 परत्र च महद्भयमिति पलायनस्य परलोकविरुद्धत्वात्। उभयेन लोकद्वयेन हीना रहिताः।। 5-193-193 त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-192 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-194 |