महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-058
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नारदेन सृञ्जयम्प्रति शिबिवैभवशंसनम्।। 1 ।।
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नारद उवाच। | 5-58-1x |
शिबिमौशीनरं चापि मृतं सृञ्जय शुश्रुम। य इमां पृथिवीं सर्वां चर्मवत्पर्यवेष्टयत्।। | 5-58-1a 5-58-1b |
साद्रिद्वीपार्णववनां रथघोषेण नादयन्। स शिबिर्यष्टुमन्विच्छन्मुख्यः सर्वसपत्नजित्।। | 5-58-2a 5-58-2b |
तेन यज्ञैर्बहुविधैरिष्टं पर्याप्तदक्षिणैः। अविहिंस्य जनानन्यानवाप वसु पुष्कलम्।। | 5-58-3a 5-58-3b |
सर्वमूर्धाभिषिक्तानां सम्मतः सोऽभवद्युधि। अजयच्चाश्वमेधैर्यो विजित्य पृथिवीमिमाम्।। | 5-58-4a 5-58-4b |
निरर्गलैर्बहुफलैर्निष्ककोटिसहस्रदः। `बिभर्ति दक्षिणा यस्य गङ्गायाः स्रोत आवृणोत्'।। | 5-58-5a 5-58-5b |
हस्त्यश्वपशुभिर्धान्यैर्मृगैर्गोजाविभिस्तथा। विविधैः पृथिवीं पुण्यां शिबिर्ब्राह्मणसात्करोत्।। | 5-58-6a 5-58-6b |
यावत्यो वर्षतो धारा यावत्यो दिवि तारकाः। यावत्यः सिकता गाङ्ग्यो यावन्मेरोर्महोपलाः।। | 5-58-7a 5-58-7b |
उदन्वति च यावन्ति रत्नानि प्राणिनोऽपि च। तावतीरददद्गा वै शिबिरौशीनरोऽध्वरे।। | 5-58-8a 5-58-8b |
नोद्यन्तारं धुरस्तस्य कञ्चिदन्यं प्रजापतिः। भूतं भव्यं भवन्तं वा नाध्यगच्छन्नरोत्तमम्।। | 5-58-9a 5-58-9b |
तस्यासन्विविधा यज्ञाः सर्वकामैः समन्विताः। हेमयूपासनगृहा हेमप्राकारतोरणाः।। | 5-58-10a 5-58-10b |
शुचिस्वाद्वन्नपानं च ब्राह्मणाः प्रयुतायुताः। नानाभक्ष्यैः प्रियकथाः पयोदधिमहाहदाः।। | 5-58-11a 5-58-11b |
तस्यासन्यज्ञवाटेषु नद्यः शुभ्रान्नपर्वताः। पिबत स्नात खादध्वमिति यत्रोच्यते जनैः।। | 5-58-12a 5-58-12b |
यस्मै प्रादाद्वरं रुद्रस्तुष्टः पुण्येन कर्मणा। अक्षयं ददतो वित्तं श्रद्धा कीर्तिस्तथा क्रियाः।। | 5-58-13a 5-58-13b |
यथोक्तमेव भूतानां प्रियत्वं स्वर्गमुत्तमम्। एताँल्लब्ध्वा वरानिष्टाञ्शिबिः काले दिवं गतः।। | 5-58-14a 5-58-14b |
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया। पुत्रात्पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः। अयज्वानमदक्षिण्यमभि श्वैत्येत्युदाहरत्।। | 5-58-15a 5-58-15b 5-58-15c |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 58 ।। |
5-58-1 पर्यवेष्टयत् स्वाधीनामकरोत्।। 5-58-5 कोटिसहस्रशः इति क.घ.ङ.पाठः।। 5-58-9 तस्य शिबेर्धुरः कार्यभारस्य उयन्तारं वोढारं प्रज्ञापतिः स्रष्टा स्वसृष्टौ नाध्यगच्छत्।। 5-58-13 ददतो राज्ञो वित्तादिकमक्षयमस्त्विति रुद्रो वरं ददाविति सम्बन्धः।। 5-58-58 अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 58 ।।
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