महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-072
← द्रोणपर्व-071 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-072 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-073 → |
अभिमन्युमनुशोच्यार्जुनस्य विलापः।। 1 ।।
|
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-72-1x |
अथ संशप्तकैः सार्धं युध्यमाने धनञ्जये। अभिमन्यौ हते चापि बाले बलवतां वरे।। | 5-72-1a 5-72-1b |
महर्षिसत्तमे याते व्यासे स तु युधिष्ठिरः। पाण्डवाः किमथाऽकार्षुः शोकोपहतचेतसः।। | 5-72-2a 5-72-2b |
कथं संशप्तकेभ्यो वा निवृत्तो वानरध्वजः। केन वा कथितस्तस्य प्रशान्तः सुतपावकः। एतन्मे शंस तत्त्वेन सर्वमेवेह सञ्जय।। | 5-72-3a 5-72-3b 5-72-3c |
सञ्जय उवाच। | 5-72-4x |
शृणु राजन्यथा तेभ्यो निवृत्तः कृष्णसारथिः। ततः सर्वाणि सैन्यानि दहन्कृष्णगतिर्यथा।। | 5-72-4a 5-72-4b |
सम्प्रयातेऽस्तमादित्ये संध्याकाल उपस्थिते। अयातस्यात्मशिबिरं निमित्तैरघशंसिभिः।। | 5-72-5a 5-72-5b |
यच्चासीन्मानसं तस्य यच्च कृष्णेन भाषितम्। यथा च कथितस्तस्य निहतः सुतपावकः। विस्तरेणैव मे सर्वं ब्रुवतः शृणु मारिष'।। | 5-72-6a 5-72-6b 5-72-6c |
तस्मिन्नहनि निर्वृत्ते घोरे प्राणभृतां क्षये। आदित्येऽस्तङ्गते श्रीमान्सन्ध्याकाल उपस्थिते।। | 5-72-7a 5-72-7b |
व्यपयातेषु वासाय सर्वेषु भरतर्षभ। हत्वा संशप्तकव्रातान्दिव्यैरस्त्रैः कपिध्वजः।। | 5-72-8a 5-72-8b |
प्रायात्स्वशिबिरं जिष्णुर्जैत्रमास्थाय तं रथम्। गच्छन्नेव च गोविन्दं साश्रुकण्ठोऽभ्यभाषत।। | 5-72-9a 5-72-9b |
किं तु मे हृदयं त्रस्तं वाक्व सज्जति केशव। स्यन्दने नावतिष्ठामि गात्रैः सीदामि चाच्युत।। | 5-72-10a 5-72-10b |
अनिष्टं चैव मे श्लिष्टं हृदयान्नापसर्पति। भुविये दिक्षु चात्युग्रा उत्पातास्त्रासयन्ति माम्।। | 5-72-11a 5-72-11b |
बहुप्रकारा दृश्यन्ते सर्व एवाघशंसिनः। अपि स्वस्ति भवेद्राज्ञः सामात्यस्य गुरोर्मम।। | 5-72-12a 5-72-12b |
वासुदेव उवाच। | 5-72-13x |
व्यक्तं शिवं सहभ्रातुर्धर्मराजस्य पाण्डव। मा शुचःकिञ्चिदेवान्यत्तत्रानिष्टं भविष्यति।। | 5-72-13a 5-72-13b |
सञ्जय उवाच। | 5-72-14x |
ततः सन्ध्यामुपास्यैव वीरौ वीरावसादने। कथयन्तौ रणे वृत्तं प्रयातौ रथमास्थितौ।। | 5-72-14a 5-72-14b |
ततः स्वशिबिरं प्राप्तौ हतामित्रौ हतद्विषौ। वासुदेवोऽर्जुनश्चैव कृत्वा कर्म सुदुष्करम्।। | 5-72-15a 5-72-15b |
ध्वस्ताकारमिवालेख्यं संवीक्ष्य शिबिरं स्वकम्। बीभत्सुरब्रवीत्कृष्णमस्वस्थहृदयस्ततः।। | 5-72-16a 5-72-16b |
नदन्ति नाद्य तूर्याणि मङ्गल्यानि जनार्दन। मिश्रा दुन्दुभिनिर्धोषैः शङ्खाश्चाडम्बरैः सह।। | 5-72-17a 5-72-17b |
वीणा नैवाद्य वाद्यन्ते शम्यातालस्वनैः सह। मङ्गल्यानि च गीतानि न गायन्ति पठन्ति च।। | 5-72-18a 5-72-18b |
स्तुतियुक्तानि रम्याणि ममानीकेषु बन्दिनः। योधाश्चापि हि मां दृष्ट्वा निवर्तन्ते ह्यधोमुखाः।। | 5-72-19a 5-72-19b |
कर्माणि च यथापूर्वं कृत्वा नाभिवदन्ति माम्। अपि स्वस्ति भवेदद्य भ्रातृभ्यो मम माधव।। | 5-72-20a 5-72-20b |
न हि शुद्ध्यति मे भावो दृष्ट्वा स्वजनमाकुलम्। अपि पाञ्चालराजस्य विराटस्य च मानद।। | 5-72-21a 5-72-21b |
सर्वेषां चैव योधानां सामग्र्यं स्यान्ममाच्युत। न च मामद्य सौभद्रः प्रहृष्टो भ्रातृभिः सह। रणादायान्तमुचितं प्रत्युद्याति हसन्निव।। | 5-72-22a 5-72-22b 5-72-22c |
सञ्जय उवाच। | 5-72-23x |
एवं सङ्कथयन्तौ तौ प्रविष्टौ शिबिरं स्वकम्। ददृशाते भृशास्वस्थान्पाण्डवान्नष्टचेतसः।। | 5-72-23a 5-72-23b |
दृष्ट्वा भ्रातृंश्च पुत्रांश्च विमना वानरध्वजः। अपश्यंश्चैव सौभद्रमिदं वचनमब्रवीत्।। | 5-72-24a 5-72-24b |
मुखवर्णोऽप्रसन्नो वः सर्वेषामेव लक्ष्यते। न चाभिमन्युं पश्यामि न च मां प्रतिनन्दथ।। | 5-72-25a 5-72-25b |
मया श्रुतश्च द्रोणेन पद्मव्यूहो विनिर्मितः। न च वस्तस्य भेत्ताऽस्ति विना सौभद्रमर्भकम्।। | 5-72-26a 5-72-26b |
न चोपदिष्टस्तस्यासीन्मयानीकाद्विनिर्गमः। कच्चिन्न बालो युष्माभिः परानीकं प्रवेशितः।। | 5-72-27a 5-72-27b |
भित्त्वाऽनीकं महेष्वासः परेषां बहुभिर्युधि। कच्चिन्न निहतः सङ्ख्ये सौभद्रः परवीरहा।। | 5-72-28a 5-72-28b |
लोहिताक्षं महाबाहुं जातं सिंहमिवाद्रिषु। उपेन्द्रसदृशं ब्रूत कथमायोधने हतः।। | 5-72-29a 5-72-29b |
सुकुमारं महेष्वासं वासवस्यात्मजात्मजम्। सदा मम प्रियं ब्रूत कथमायोधने हतः।। | 5-72-30a 5-72-30b |
सुभद्रायाः प्रियं पुत्रं द्रौपद्याः केशवस्य च। अम्बायाश्च प्रियं नित्यं कोवधीत्कालमोहितः।। | 5-72-31a 5-72-31b |
सदृशो वृष्णिवीरस्य केशवस्य महात्मनः। विक्रमश्रुतमाहात्म्यैः कथमायोधने हतः।। | 5-72-32a 5-72-32b |
वार्ष्णेयीदयितं शूरं मया सततलालितम्। यदि पुत्रं न पश्यामि यास्यामि यमसादनम्।। | 5-72-33a 5-72-33b |
मृदुकुञ्चितकेशान्तं बालं बालमृगेक्षणम्। मत्तद्विरदविक्रान्तं सिंहपोतमिवोद्गतम्।। | 5-72-34a 5-72-34b |
स्मिताभिभाषिणं दान्तं गुरुवाक्यकरं सदा। बाल्येऽप्यतुलकर्माणं प्रियवाक्यममत्सरम्।। | 5-72-35a 5-72-35b |
महोत्साहं महाबाहुं दीर्घराजीवलोचनम्। भक्तानुकम्पिनं दान्तं न च नीचानुसारिणम्।। | 5-72-36a 5-72-36b |
कृतज्ञं ज्ञानसम्पन्नं कृतास्त्रभनिवर्तिनम्। युद्धाभिनन्दिनं नित्यं द्विषतां भयवर्धनम्।। | 5-72-37a 5-72-37b |
स्वेषां प्रियहिते युक्तं पितॄणां जयगृद्धिनम्। न च पूर्वं प्रहर्तारं सम्प्रमे नष्टसम्भ्रमम्। यदि पुत्रं न पश्यामि यास्यामि यमसादनम्।। | 5-72-38a 5-72-38b 5-72-38c |
रथेषु गण्यमानेषु गणितं तं महारथम्। मयाऽध्यर्धगुणं सङ्ख्ये तरुणं बाहुशालिनम्।। | 5-72-39a 5-72-39b |
प्रद्युम्नस्य प्रियं नित्यं केशवस्य ममैव च। यदि पुत्रं न पश्यामि यास्यामि यमसादनम्।। | 5-72-40a 5-72-40b |
सुनसं सुललाटान्तं स्वक्षिभ्रूदशनच्छदम्। अपश्यतस्तद्वदनं का शान्तिर्हृदयस्य मे।। | 5-72-41a 5-72-41b |
तन्त्रीस्वनसुखं रम्यं पुंस्कोकिलसमध्वनिम्। अशृण्वतः स्वनं तस्य का शान्तिर्हृदयस्य मे।। | 5-72-42a 5-72-42b |
रूपं चाप्रतिमं तस्य त्रिदशैश्चापि दुर्लभम्। अपश्यतो हि वीरस्य का शान्तिर्हृदयस्य मे।। | 5-72-43a 5-72-43b |
अभिवादनदक्षं तं पितॄणां वचने रतम्। नाद्याहं यदि पश्यामि का शान्तिर्हृदयस्य मे।। | 5-72-44a 5-72-44b |
सुकुमारः सदा वीरो महार्हशयनोचितः। भूमावनाथवच्छेते नूनं नाथवतां वरः।। | 5-72-45a 5-72-45b |
शयानं समुपासन्ति यं पुरा परमस्त्रियः। तमद्य विप्रविद्धाङ्गमुपासन्त्यशिवाः शिवाः।। | 5-72-46a 5-72-46b |
यः पुरा बोध्यते सुप्तः सूतमागधबन्दिभिः। बोधयन्त्यद्य तं नूनं श्वापदा विकृतैः स्वनैः।। | 5-72-47a 5-72-47b |
छत्रच्छायासमुचितं तस्य तद्वदनं शुभम्। नूनमद्य रजोध्वस्तं रणरेणुः करिष्यति।। | 5-72-48a 5-72-48b |
हा पुत्रकावितृप्तस्य सततं पुत्रदर्शने। भाग्यहीनस्य कालेन यथा मे नीयसे बलात्।। | 5-72-49a 5-72-49b |
सा च संयमनी नूनं सदा सुकृतिनां गतिः। स्वभाभिर्मोहिता रम्या त्वयाऽत्यर्थं विराजते।। | 5-72-50a 5-72-50b |
नूनं वैवस्वतश्च त्वां वरुणश्च प्रियातिथिम्। शतक्रतुर्धनेशश्च प्राप्तमर्चन्त्यभीरुकम्।। | 5-72-51a 5-72-51b |
सञ्जय उवाच। | 5-72-52x |
एवं विलप्य बहुधा भिन्नपोतो वगिग्यथा। दुःखेन महताऽविष्टो युधिष्ठिरमपृच्छत।। | 5-72-52a 5-72-52b |
`कथं त्वयि च भीमे च धृष्टद्युम्ने च जीवति। सात्यके शक्रविक्रान्ते सौभद्रो निहतः परैः'।। | 5-72-53a 5-72-53b |
कच्चित्स कदनं कृत्वा परेषां कुरुनन्दन। स्वर्गतोऽभिमुखः सङ्ख्ये युध्यमानो नरर्षभैः।। | 5-72-54a 5-72-54b |
स नूनं बहुभिर्यत्तैर्युध्यमानो नरर्षभैः। असहायः सहायार्थी मामनुध्यातवान्ध्रुवम्।। | 5-72-55a 5-72-55b |
पीड्यमानः शरैर्बालस्तात साध्वभिधाव माम्। इति विप्रलपन्मन्ये नृशंसैर्भुवि पातितः।। | 5-72-56a 5-72-56b |
अथवा मत्प्रसूतः स स्वस्रीयो माधवस्य च। सुभद्रायां च सम्भूतो न चैवं वक्तुमर्हति।। | 5-72-57a 5-72-57b |
वज्रसारमयं नूनं हृदयं सुदृढं मम। अपश्यतो दीर्घबाहुं रक्ताक्षं यन्न दीर्यते।। | 5-72-58a 5-72-58b |
कथं बाले महेष्वासा नृशंसा मर्मभेदिनः। स्वस्रीये वासुदेवस्य मम पुत्रेऽक्षिपञ्शरान्।। | 5-72-59a 5-72-59b |
यो मां नित्यमदीनात्मा प्रत्युद्गम्याभिनन्दति। उपयान्तं रिपून्हत्वा सोऽद्य मां किं न पश्यति।। | 5-72-60a 5-72-60b |
नूनं स पातितः शेते धरण्यां रुधिरोक्षितः। शोभयन्मेदिनीं गात्रैरादित्य इव पातितः।। | 5-72-61a 5-72-61b |
सुभद्रामनुशोचामि या पुत्रमपलायिनम्। रणे विनिहतं श्रुत्वा शोकार्ता वै विनङ्क्षति।। | 5-72-62a 5-72-62b |
सुभद्रा वक्ष्यते किं मामबिमन्युमपश्यती। द्रौपदीं चैव दुःखार्तां किं वा वक्ष्यामि तामहम्।। | 5-72-63a 5-72-63b |
वज्रसारमयं नूनं हृदयं यन्न यास्यति। सहस्रधा वधूं दृष्ट्वा रुदतीं शोककर्शिताम्।। | 5-72-64a 5-72-64b |
हृष्टानां धार्तराष्ट्राणां सिंहनादो मया श्रुतः। युयुत्सुश्चापि कृष्णेन श्रुतो वीरानुपालभन्।। | 5-72-65a 5-72-65b |
अशक्नुवन्तः पार्थस्य बालं हत्वा महाबलम्। किं न लज्जन्त्यधर्मज्ञाः पार्थिवा दृश्यतां बलम्।। | 5-72-66a 5-72-66b |
किं तयोर्विप्रियं कृत्वा केशवार्जुनयोर्मृधे। सिंहवन्नदथ प्रीताः शोककाल उपस्थिते।। | 5-72-67a 5-72-67b |
आगमिष्यति वः क्षिप्रं फलं पापस्य कर्मणः। अधर्मो हि कृतस्तीव्रः कथं स्यादफलश्चिरम्।। | 5-72-68a 5-72-68b |
इति तान्परिभाषन्वै वैश्यापुत्रो महामतिः। अपायाच्छस्त्रमुत्सृज्य कोपदुःखसमन्वितः।। | 5-72-69a 5-72-69b |
किमर्थमेतन्नाख्यातं त्वया कृष्ण रणे मम। अधक्ष्यं तानहं क्रूरांस्तदा सर्वान्महारथान्।। | 5-72-70a 5-72-70b |
सञ्जय उवाच। | 5-72-71x |
पुत्रशोकार्दितं पार्थं ध्यायन्तं साश्रुलोचनम्। निगृह्य वासुदेवस्तं पुत्राधिभिरभिप्लुतम्। मैवमित्यब्रवीत्कृष्णस्तीव्रशोकसमन्वितम्।। | 5-72-71a 5-72-71b 5-72-71c |
सर्वेषामेष वै पन्थाः शूराणामनिवर्तिनाम्। क्षत्रियाणां विशेषेण येषां नः शस्त्रजीविका।। | 5-72-72a 5-72-72b |
एषा वै युध्यमानानां शूराणामनिवर्तिनाम्। विहिता सर्वशास्त्रज्ञैर्गतिर्मतिमतां वर।। | 5-72-73a 5-72-73b |
ध्रुवं हि युद्धे मरणं शूरामामनिवर्तिनाम्। गतः पुण्यकृतां लोकानभिमन्युर्न संशयः।। | 5-72-74a 5-72-74b |
एतच्च सर्ववीराणां काङ्क्षितं भरतर्षभ। सङ्ग्रामेऽभिमुखा मृत्युं प्राप्नुयामेति मानद।। | 5-72-75a 5-72-75b |
स च वीरान्रणे हत्वा राजपुत्रान्महाबलान्। वीरैराकाङ्क्षितं मृत्युं सम्प्राप्तोऽभिमुखं रणे।। | 5-72-76a 5-72-76b |
मा शुचः पुरुषव्याघ्र पूर्वैरेष सनातनः। धर्मकृद्भिः कृतो धर्मः क्षत्रियाणां रणे क्षयः।। | 5-72-77a 5-72-77b |
इमे ते भ्रातरः सर्वे दीना भरतसत्तम। त्वयि शोकसमाविष्टे नृपाश्च सुहृदस्तव।। | 5-72-78a 5-72-78b |
एतांश्च वचसा साम्ना समाश्वासय मानद। विदितं वेदितव्यं ते न शोकं कर्तुमर्हसि।। | 5-72-79a 5-72-79b |
सञ्जय उवाच। | 5-72-80x |
एवमाश्वासितः पार्थः कृष्णेनाद्भुतकर्मणा। ततोऽब्रवीत्तदा भ्रातॄन्सर्वान्पार्थः सगद्गदम्।। | 5-72-80a 5-72-80b |
स दीर्घबाहुः पृथ्वंसो दीर्घराजीवलोचनः। अभिमन्युर्यथा वृत्तः श्रोतुमिच्छाम्यहं तथा।। | 5-72-81a 5-72-81b |
सनागस्यन्दनहयान्सङ्ग्रामे निहतान्मया। क्षिप्रं द्रक्ष्यन्ति ते नूनं मम पुत्रं निहत्य वै।। | 5-72-82a 5-72-82b |
कथं च वः कृतास्त्राणां सर्वेषां शस्त्रपाणिनाम्। सौभद्रो निधनं गच्छेद्वज्रिणापि समागतः।। | 5-72-83a 5-72-83b |
यद्येवमहमज्ञास्यमशक्तान्रक्षणे मम। सूनोः पाण्डवपाञ्चालानगोप्स्यं तं महारणे।। | 5-72-84a 5-72-84b |
कथं च वो रथस्यानां शरवर्षाणि मुञ्चताम्। नीतोऽभिमन्युर्निधनं कदर्थीकृत्य वः परैः।। | 5-72-85a 5-72-85b |
अहो वः पौरुषं नास्ति न च वोऽस्ति पराक्रमः। यत्राभिमन्युः समरे पश्यतां वो निपातितः।। | 5-72-86a 5-72-86b |
आत्मानमेव गर्हेयं यदहं वै सुदुर्बलान्। युष्मानाज्ञाय निर्यातो भीरूनकृतनिश्चयान्।। | 5-72-87a 5-72-87b |
आहोस्विद्भूषणार्थाय वर्मशस्त्रायुधानि वः। वाचस्तु वक्तुं संसत्सु मम पुत्रमरक्षताम्।। | 5-72-88a 5-72-88b |
सञ्जय उवाच। | 5-72-89x |
एवमुक्त्वा ततो वाक्यमतिष्ठद्वै वरासिमान्। न स्माशक्यत बीभत्सुः केनचित्प्रसमीक्षितुम्।। | 5-72-89a 5-72-89b |
तमन्तकमिव क्रुद्धं निःश्वसन्तं मुहुर्मुहुः। `महेन्द्रमिव तिष्ठन्तं वज्रोद्यतमहाभुजम्'। पुत्रशोकाभिसन्तप्तमश्रुपूर्णमुखं तदा।। | 5-72-90a 5-72-90b 5-72-90c |
न भाषितुं शक्नुवन्ति द्रष्टुं वा सुहृदोऽर्जुनम्। अन्यत्र वासुदेवाद्वा ज्येष्ठाद्वा पाण्डुनन्दनात्।। | 5-72-91a 5-72-91b |
सर्वास्ववस्थासु हितावर्जुनस्य मनोनुगौ। बहुमानात्प्रियत्वाच्च तावेनं वक्तमर्हतः।। | 5-72-92a 5-72-92b |
ततस्तं पुत्रशोकेन भृशं पीडितमानसम्। राजीवलोचनं क्रुद्धं राजा वचनमब्रवीत्।। | 5-72-93a 5-72-93b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि द्विसप्ततितमोऽध्यायः।। 72 ।। |
5-72-11 श्लिष्टमनुबद्धम्।। 5-72-17 आडम्बरैस्तूर्यरवैः।। 5-72-49 यथेति कथमर्थे।। 5-72-70 वासुदेव उवाच। किमर्थमेतन्नाख्यातं त्वया पार्थ रणे मम इति ट.पाठः।। 5-72-72 द्विसप्ततितमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-071 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-073 |