महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-060
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नारदेन सृञ्जयम्प्रति भगीरथचरित्रकथनम्।। 1 ।।
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नारद उवाच। | 5-60-1x |
भगीरथं च राजानं मृतं सृञ्जय शुश्रुम। `परित्राणाय पूर्वेषां येन गङ्गाऽवतारिता।। | 5-60-1a 5-60-1b |
यस्येन्द्रो बाहुवीर्येण प्रीतो राज्ञो महात्मनः। सोऽश्वमेधशतैरीजे समाप्तवरदक्षिणैः।। | 5-60-2a 5-60-2b |
हविर्मन्त्रान्नसम्पन्नैर्देवानामादधौ मुदम्'। येन भागीरथी गङ्गा चयनैः काञ्चनैश्चिता।। | 5-60-3a 5-60-3b |
यः सहस्रं सहस्राणां कन्या हेमविभूषिताः। राज्ञश्च राजपुत्रांश्च ब्राह्मणेभ्यो ह्यमन्यत।। | 5-60-4a 5-60-4b |
सर्वा रथगताः कन्या रथाः सर्वे चतुर्युजः। रथेरथे शतं नागाः सर्वे वै हेममालिनः।। | 5-60-5a 5-60-5b |
सहस्रमश्वाश्चैकैकं गजानां पृष्ठतोऽन्वयुः। अश्वेअश्वे शतं गावो गवां पश्चादजाविकम्।। | 5-60-6a 5-60-6b |
तेनाक्रान्ता जनौघेन दक्षिणा भूयसीर्ददत्। उपह्वरेऽतिव्यथिता तस्याङ्के निषसाद ह।। | 5-60-7a 5-60-7b |
तथा मागीरथी गङ्गा ह्यूर्ध्वगा ह्यभवत्पुरा। दुहितृत्वं गता राज्ञः पुत्रत्वमगमत्तदा।। | 5-60-8a 5-60-8b |
तां तु गाथा जगुः प्रीता गन्धर्वाः सूर्यवर्चसः। पितृदेवमनुष्याणां शृण्वतां वल्गुवादिनः।। | 5-60-9a 5-60-9b |
भगीरथं यजमानमैक्ष्वाकुं भूरिदक्षिणम्। गङ्गा समुद्रगा देवी वव्रे पितरमीश्वरम्।। | 5-60-10a 5-60-10b |
तस्य सेन्द्रैः सुरगणैर्देवैर्यज्ञः स्वलङ्कृतः। सम्यक्परिगृहीतश्च शान्तविघ्नो निरामयः।। | 5-60-11a 5-60-11b |
यो य इच्छेत विप्रो वै यत्रयत्रात्मनः प्रियम्। भगीरथस्तदा प्रीतस्तत्रतत्राददद्वशी।। | 5-60-12a 5-60-12b |
नादेयं ब्राह्मणस्यासीद्यस्य यत्स्यात्प्रियं धनम्। सोऽपि विप्रप्रसादेन ब्रह्मलोकं गतो नृपः।। | 5-60-13a 5-60-13b |
येन यातौ मखमुखौ दिशाशाविह पादपाः। तेनावस्थातुमिच्छन्ति तं गत्वा राजमीश्वरम्।। | 5-60-14a 5-60-14b |
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया। पुत्रात्पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः। अयज्वानमदक्षिण्यमभि श्वैत्येत्युदाहरत्।। | 5-60-15a 5-60-15b 5-60-15c |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये षष्टितमोऽध्यायः।। 60 ।। |
5-60-3 चयनैः काञ्चनैश्चिता स्वर्णेष्टकमयैः क्रत्वर्थस्यण्डिलैर्व्याप्ता चयनैरिष्टकासोपानैर्वा कूलद्वये उद्गमात्संगमपर्यन्तं निचितेति वार्थः।। 5-60-4 राज्ञश्च राजपुत्रांश्चातिक्रम्येति शेषः। ब्राह्मणेभ्यः अमन्यत दत्तवान्।। 5-60-7 येन हेतुना उपह्वरे समीपे भूयसीर्दक्षिणा ददत् राजा आस्ते तेन हेतुना गङ्गा जनौघभारेण आक्रान्ता वेत्रयष्टिवत्तीरप्रदेशे नतिं प्राप्ता सती अतिव्यथिताऽतस्तस्याङ्के निषसादह। दक्षिणाभारेण तीरप्रदेशेऽवनते प्रवाहाम्बु राज्ञोऽङ्कपर्यन्तमागतमित्यर्थः।। 5-60-8 पुत्रत्वं नरकात्त्राणकर्तृत्वम्।। 5-60-12 वशी योगी योगप्रभावात्। यो यत्र देशे यत् इच्छेत्स तत्र प्राप्नु यादित्यर्थः।। 5-60-14 येऽनुयाता अभिमुखा दिंशमद्यापि पादपाः। आनतास्तस्थुरिच्छन्तस्तमन्वागन्तुमीश्वरम् इति क.पाठः। अनेत्रास्तस्थुः इति क. ङ. पाठः।। 5-60-60 षष्टितमोऽध्यायः।।
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