महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-147
← द्रोणपर्व-146 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-147 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-148 → |
अल्पशेषे दिवसे तिरोहिते च जयद्रथे कृष्णेनान्धकारसर्जनेन सूर्यबिम्बपिधानम्।। 1 ।। अदृश्यमाने भानौ जयद्रथे च निःशङ्कमात्मानमाविष्कुर्वति अर्जुनेन कृष्णचोदनया तच्छिरश्छेदः।। 2 ।। कृष्णेनार्जुनम्प्रति जयद्रथशिरः बूतले न निपातनीयमित्युक्ते तेन तम्प्रति तत्कारणकथनप्रार्थना।। 3 ।।
|
सञ्जय उवाच। | 5-147-1x |
श्रुत्वा निनादं धनुषश्च तस्य विस्पषृमुत्कष्टमिवान्तकस्य। शक्राशनिस्फोटसमं सुघोरं विकृष्यमाणस्य धनञ्जयेन।। | 5-147-1a 5-147-1b 5-147-1c 5-147-1d |
त्रासोद्विग्नं तथोद्धान्तं त्वदीयं तद्बलं नृप। युगान्तवातसङ्क्षुब्धं चलद्वीचितरङ्गितम्। प्रलीनमीनमकरं सागराम्भ इवाभवत्।। | 5-147-2a 5-147-2b 5-147-2c |
`मध्यन्दिनगतं सूर्यमापतन्तमिवाम्बरे। न शेकुः सर्वभूतानि पाण्डवं प्रतिवीक्षितुम्'।। | 5-147-3a 5-147-3b |
स रणे व्यचरत्पार्थः प्रेक्ष्यमाणो धनञ्जयः। युगपद्दिक्षु सर्वासु सर्वाण्यस्त्राणि दर्शयन्।। | 5-147-4a 5-147-4b |
आददानं महाराज सन्दधानं च पाण्डवम्। उत्कर्षन्तं सृजन्तं च न स्म पश्याम लाघवात्।। | 5-147-5a 5-147-5b |
[ततः क्रुद्धो महाबाहुरैन्द्रमस्त्रं दुरासदम्। प्रादुश्चक्रे महाराज त्रासयन्सर्वभारतान्।। | 5-147-6a 5-147-6b |
ततः शराः प्रादुरासन्दिव्यास्त्रप्रतिमन्त्रिताः। प्रदीपाश्च शिखिमुखाः शतशोऽथ सहस्रशः।। | 5-147-7a 5-147-7b |
आकर्णपूर्णनिर्मुक्तैरग्न्यर्कांशुनिभैः शरैः। नभोऽभवत्तद्दुष्प्रेक्ष्यमुल्काभिरिव संवृतम्।। | 5-147-8a 5-147-8b |
ततः शस्त्रान्धकारं तत्कौरवैः समुदीरितम्। अशक्यं मनसाऽप्यन्यैः पाण्डवः सम्भ्रमन्निव।। | 5-147-9a 5-147-9b |
नाशयामास विक्रम्य शरैर्दिव्यास्त्रमन्त्रितैः। नैशं तमोंशुभिः क्षिप्रं दिनादाविव भास्करः।। | 5-147-10a 5-147-10b |
ततस्तु तावकं सैन्यं दीप्तैः शरगभस्तिभिः। आक्षिपत्पल्वलाम्बूनि निदाघार्क इव प्रभुः।। | 5-147-11a 5-147-11b |
ततो दिव्यास्त्रविदुषा प्रहिताः सायकांशवः। समाप्लवन्द्विषत्सैन्यं लोकं भागोरिवांशवः।। | 5-147-12a 5-147-12b |
अथापरे समुत्सृष्टा विशिखास्तिग्मतेजसः। हृदयान्याशु वीराणां विविशुः प्रियबन्धुवत्।। | 5-147-13a 5-147-13b |
य एनमीयुः समरे त्वद्योधाः शूरमानिनः। शलभा इव ते दीप्तमग्निं प्राप्य ययुः क्षयम्।। | 5-147-14a 5-147-14b |
एवं स मृद्रञ्शत्रूणां जीवितानि यशांसि च। पार्थश्चचार सङ्ग्रामे मृत्युर्विग्रहवानिव।। | 5-147-15a 5-147-15b |
स किरीटानि वस्त्राणि साङ्गदान्विपुलान्भुजान्। सकुण्डलयुगान्कर्णान्केषाञ्चिदहरच्छरैः।। | 5-147-16a 5-147-16b |
सतोमरान्गजस्थानां सप्रासान्हयसादिनाम्। सचर्मणः पदातीनां रथिनां च सधन्वनः। सप्रतोदान्नियन्तॄणां बाहूंश्चिच्छेद पाण्डवः।। | 5-147-17a 5-147-17b 5-147-17c |
प्रदीप्तोग्रशरार्जिष्मान्बभौ तत्र धनञ्जयः। सविस्फुलिङ्गाग्रशिखो ज्वलन्निव हुताशनः।। | 5-147-18a 5-147-18b |
तं देवराजप्रतिमं सर्वशस्त्रभृतां वरम्। युगपद्दिक्षु सर्वासु रथस्थं पुरुषर्षभम्।। | 5-147-19a 5-147-19b |
निक्षिपन्तं महास्त्राणि प्रेक्षणीयं धनञ्जयम्। नृत्यन्तं रथमार्गेषु धनुर्ज्यातलनादिनम्।। | 5-147-20a 5-147-20b |
निरीक्षितुं न शेकुस्ते यत्नवन्तोऽपि पार्थिवाः। मध्यन्दिनगतं सूर्यं प्रतपन्तमिवाम्बरे।। | 5-147-21a 5-147-21b |
दीप्तोग्रसम्भृतशरः किरीटी विरराज ह। वर्षास्विवोदीर्णजलः सेन्द्रधन्वाम्बुदो महान्।। | 5-147-22a 5-147-22b |
महास्त्रसंप्लुवे तस्मिञ्जिष्णुना सम्प्रवर्तिते। सुदुस्तरे महाघोरे ममज्जुर्योधपुङ्गवाः।। | 5-147-23a 5-147-23b |
उत्कृत्तवदनैर्देहैः शरीरैः कृत्तबाहुभिः। भुजैश्च पाणिनिर्मुक्तैः पाणिभिर्व्यङ्गुलीकृतैः।। | 5-147-24a 5-147-24b |
कृत्ताग्रहस्तैः करिभिः कृत्तदन्तैर्मदोत्कटैः। हयैश्च विधुरग्रीवै रथैश्च शकलीकृतैः।। | 5-147-25a 5-147-25b |
निकृत्तान्त्रैः कृत्तपादैस्तथाऽन्यैः कृत्तसन्धिभिः। निश्चेष्टैर्विस्फुरद्भिश्च शतशोऽथ सहस्रशः।। | 5-147-26a 5-147-26b |
मृत्योराघातललितं तत्पार्थायोधनं महत्। अपश्याम महीपाल भीरूणां भयवर्धनम्।। | 5-147-27a 5-147-27b |
आक्रीडमिव रुद्रस्य पुराभ्यर्दयतः पशून्। गजानां क्षुरनिर्मुक्तैः करैः सभुजगेव भूः।। | 5-147-28a 5-147-28b |
क्वजिद्बभौ स्रग्विणीव वक्त्रपद्मैः समाचिता। विचित्रोष्णीषमुकुटैः केयूराङ्गदकुण्डलैः।। | 5-147-29a 5-147-29b |
स्वर्णचित्रतनुत्रैश्च भाण्डैश्च गजवाजिनाम्। किरीटशतसङ्गीर्णा तत्र तत्र समाचिता। विराज भृशं चित्रा मही नववधूरिव।। | 5-147-30a 5-147-30b 5-147-30c |
मज्जामेदःकर्दमिनीं शोणितौघतरङ्गिणीम्। मर्मास्थिभिरगाधां च केशशैवलशाद्वलाम्।। | 5-147-31a 5-147-31b |
शिरोबाहूपलतटां रुग्णक्रोडास्थिसङ्कटाम्। चित्रध्वजपताकाढ्यां छत्राचापोर्मिमालिनीम्।। | 5-147-32a 5-147-32b |
विगतासुमहाकायां गजदेहाभिसङ्कुलाम्। रथोडुपशताकीर्णां हयसङ्घातरोधसम्।। | 5-147-33a 5-147-33b |
रथचक्रयुगेषाक्षकूबरैरतिदुर्गमाम्। प्रासासिशक्तिपरशुविशिखाहिदुरासदाम्।। | 5-147-34a 5-147-34b |
बलकङ्कुमहानक्रां गोमायुमकरोत्कटाम्। गृघ्रोदग्रमहाग्राहां शिवाविरुतभैरवाम्।। | 5-147-35a 5-147-35b |
नृत्यत्प्रेतपिशाचाद्यैर्भूताकीर्णां सहस्रशः। गतासुयोधनिश्चेष्टशरीरशतवाहिनीम्।। | 5-147-36a 5-147-36b |
महाप्रतिभयां रौद्रां घोरां वैतरणीमिव। नदीं प्रवर्तयामास भीरूणां भयवर्धिनीम्।। | 5-147-37a 5-147-37b |
तं दृष्ट्वा तस्य विक्रान्तमन्तकस्येव रूपिणः। अभूतपूर्वं कुरुषु भयमागाद्रणाजिरे।। | 5-147-38a 5-147-38b |
तत आदाय वीराणामस्त्रैरस्त्राणि पाण्डवः। आत्मानं रौद्रमाचष्ट रौद्रकर्मण्यधिष्ठितः।। | 5-147-39a 5-147-39b |
ततो रथवरान्राजन्नत्यतिक्रामदर्जुनः।।] | 5-147-40a |
मध्यन्दिनगतं सूर्यं प्रतपन्तमिवाम्बरे। न शेकुः सर्वभूतानि पाण्डवं प्रतिवीक्षितुम्।। | 5-147-41a 5-147-41b |
प्रसृतांस्तस्य गाण्डीवाच्छरव्रातान्महात्मनः। सङ्ग्रामे सम्प्रपश्यामो हंसपङ्क्तिरिवाम्बरे।। | 5-147-42a 5-147-42b |
विनिवार्य स वीराणामस्त्रैरस्त्राणि सर्वतः। दर्शयन्रौद्रमात्मानमुग्रे कर्मणि धिष्ठितः।। | 5-147-43a 5-147-43b |
स तान्रथवरान्राजन्नत्याक्रामत्तदाऽर्जुनः। मोहयन्निव नाराचैर्जयद्रथवधेप्सया।। | 5-147-44a 5-147-44b |
विसृजन्दिक्षु सर्वासु शरानच्युतसारथिः। सरथो व्यचरत्तूर्णं प्रेक्षणीयो धनञ्जयः।। | 5-147-45a 5-147-45b |
भ्रमन्त इव शूरस्य शरव्राताः महात्मनः। अदृश्यन्तान्तरिक्षस्थाः शतशोऽथ सहस्रशः।। | 5-147-46a 5-147-46b |
आददानं महेष्वासं सन्दधानं च सायकम्। विसृजन्तं च कौन्तेयं नानुपश्याम वै तदा।। | 5-147-47a 5-147-47b |
तथा सर्वा दिशो राजन्सर्वांश्च रथिनो रणे। आकुलीकृत्य कौन्तेयो जयद्रथमुपाद्रवत्। विव्याध च चतुःषष्ट्या शराणां नतपर्वणाम्।। | 5-147-48a 5-147-48b 5-147-48c |
[सैन्धवाभिमुखं यान्तं योधाः सम्प्रेक्ष्य पाण्डवम्। न्यवर्तन्त रणाद्वीरा निराशास्तस्य जीविते।। | 5-147-49a 5-147-49b |
यो योऽभ्यधावदाक्रन्दे तावकः पाण्डवं रणे। तस्यतस्यान्तगा बाणाः शरीरे न्यपतन्प्रभो।। | 5-147-50a 5-147-50b |
कबन्धसङ्कुलं चक्रे तव सैन्यं महारथः। अर्जुनो जयतां श्रेष्ठः शरैरग्न्यंशुसन्निभैः।। | 5-147-51a 5-147-51b |
एवं तत्तव राजेन्द्र चतुरङ्गबलं तदा। व्याकुलीकृत्य कौन्तेयो जयद्रथमुपाद्रवत्।। | 5-147-52a 5-147-52b |
द्रौणिं पञ्चाशताऽविध्यद्वृषसेनं त्रिभिः शरैः। कृपायमाणः कौन्तेयः कृपं नवभिरार्दयत्।। | 5-147-53a 5-147-53b |
शल्यं षोडशभिर्बाणैः कर्णं द्वात्रिंशता शरैः। सैन्धवं तु चतुःषष्ट्या विद्व्वा सिंह इवानदत्।।] | 5-147-54a 5-147-54b |
सैन्धवस्तु तथा विद्धः शरैर्गाण्डीवधन्वना। न चक्षमे सुसङ्क्रुद्धस्तोत्रार्दित इव द्विपः।। | 5-147-55a 5-147-55b |
स वराहध्वजस्तूर्णं गार्ध्रपत्रानजिह्मगान्। क्रुद्धाशीविषसङ्काशान्कर्मारपरिमार्जितान्।। | 5-147-56a 5-147-56b |
आकर्णपूर्णांश्चिक्षेप फल्गुनस्य रथं प्रति। त्रिभिस्तु विद्वा गोविन्दं नाराचैः षड्भिरर्जुनम्।। | 5-147-57a 5-147-57b |
अष्टभिर्वाजिनोऽविध्यद्ध्वजं चैकेन पत्रिणा। `भूयश्चैवार्जुनं सङ्ख्ये शरवर्षैरवाकिरत्'।। | 5-147-58a 5-147-58b |
स विक्षिप्यार्जुनस्तूर्णं सैन्धवप्रहिताञ्शरान्। युगपत्तस्य चिच्छेद शराभ्यां सैन्धवस्य ह। सारथेश्च शिरः कायाद्व्वजं च समलङ्कृतम्।। | 5-147-59a 5-147-59b 5-147-59c |
स च्छिन्नयष्टिः सुमहान्धनञ्जयशराहतः। वराहः सिन्धुराजस्य पपातेन्दुसमप्रभः।। | 5-147-60a 5-147-60b |
आदित्यं प्रेक्षमाणस्तु बीभत्सुः सृक्विणी लिहन्। अपश्यन्नान्तरं तस्य रक्षिभिः संवृतस्य वै।। | 5-147-61a 5-147-61b |
अभवक्त्रोधरक्ताक्षो व्यात्तानन इवान्तकः। अथाब्रवीद्वासुदेवः कुन्तीपुत्रं धनञ्जयम्।। | 5-147-62a 5-147-62b |
नैव शक्यस्त्वया हन्तुं निर्व्याजं भरतर्षभ। स्रक्ष्याम्यहमुपायं तमादित्यस्यापवारणे। ततोऽस्तं गतमादित्यं मंस्यते सिन्धुराडिह।। | 5-147-63a 5-147-63b 5-147-63b |
ततोऽस्य विस्मयः पार्थ हर्षश्चैव भविष्यति। आत्मजीवितलाभाच्च प्रतिज्ञायाश्च नाशनात्।। | 5-147-64a 5-147-64b |
अस्तङ्गतमिवादित्यं दृष्ट्वा मोहेन बालिशः। न हि शक्ष्यत्यथाऽऽत्मानं रक्षितुं हर्षसम्भवात्।। | 5-147-65a 5-147-65b |
एतस्मिन्नेव काले तु प्रहर्तव्यं धनञ्जय। जयद्रथस्य क्षुद्रस्य सविदुर्दर्शनार्थिनः।। | 5-147-66a 5-147-66b |
सञ्जय उवाच। | 5-147-67x |
एवमुक्त्वा ततः पार्थं क्षिप्रमेवाहरत्प्रभाम्। जनार्दनेन सृष्टं वै तम आदित्यनाशनम्।। | 5-147-67a 5-147-67b |
पार्थस्य बलमज्ञानात्तमो दृष्ट्वा सुदुःखितम्। अभवंस्तावका योधा हर्षसङ्कुलचेतसः।। | 5-147-68a 5-147-68b |
ते प्रहृष्टा रणे राजन्नपश्यन्सैनिका रविम्। उन्नाम्य वक्त्राणि तदा स च राजा जयद्रथः।। | 5-147-69a 5-147-69b |
वीक्षमाणे ततस्तस्मिन्सिन्धुराजे दिवाकरम्। उन्नमय्य शिरोग्रीवां वीक्षते सूर्यमण्डलम्। तस्य शीघ्रं पृषत्केन कायाच्छीर्षमपाहर।। | 5-147-70a 5-147-70b 5-147-70c |
केशवेनैवमुक्तः सन्नमर्षाद्रक्तलोचनः। उद्बबर्ह शरं तीक्ष्णममरैरपि दुःसहम्।। | 5-147-71a 5-147-71b |
एवं तूणीशयं घोरमिन्द्राशनिसमप्रभम्। वर्मभेदिनमत्यर्थं गन्धमाल्यार्चितं सदा। विससर्ज ततस्तूर्णं सैन्धवस्य रथं प्रति।। | 5-147-72a 5-147-72b 5-147-72c |
स तु गाण्डीवनिर्मुक्तः शरः श्येन इवाशुनः। शकुन्तमिव वृक्षाग्रात्सैन्धवस्याहरच्छिरः।। | 5-147-73a 5-147-73b |
प्रपतिष्यति शीर्षे तु कृष्णोऽर्जुनमथाब्रवीत्। पार्थ पार्थ शिरो ह्येतद्यथा नेयान्महीतलम्। तथा कुरु कुरुश्रेष्ठ वक्ष्ये तस्यापि कारणम्।। | 5-147-74a 5-147-74b 5-147-74c |
श्रुत्वा तु वचनं तस्य त्वरमाणोऽस्त्रमायया। तथाऽहरच्छिरस्तस्य शरैरूर्ध्वं धनञ्जयः। दुर्हृदामपहर्षाय सुहृदां हर्षणाय च।। | 5-147-75a 5-147-75b 5-147-75c |
तिर्यगूर्ध्वमधश्चैव पुनरूर्ध्वमथापि च। दीर्घकालमवाक्वैव सम्प्रक्रीडन्निवार्जुनः।। | 5-147-76a 5-147-76b |
तत्सैन्यं सर्वतोपश्यन्महदाश्चर्यमद्भुतम्। प्रापयत्स शिरो यस्माद्योधयन्नेव पार्थिवान्।। | 5-147-77a 5-147-77b |
शरैः कन्दुकवत्कृत्वा तस्यालोकाय पाण्डवः। स्यमन्तपञ्चकाद्बाह्ये शिरस्तदहरच्छरैः।। | 5-147-78a 5-147-78b |
जयद्रथस्यार्जुनबाणनालं मुखारविन्दं रुधिराम्बुसिक्तम्। दृष्टं नरैश्चोपरिवर्तमानं विद्याधरोत्सृष्टमिवैकपद्मम्।। | 5-147-79a 5-147-79b 5-147-79c 5-147-79d |
स देवशत्रूनिव देवराजः किरीटमाली व्यधमत्सपत्नान्। यथा तमांस्यभ्युदितस्तमोघ्नः पूर्णां प्रतिज्ञां स समाप्य वीरः।। | 5-147-80a 5-147-80b 5-147-80c 5-147-80d |
तं भूमिदेशं च शिरो विनेतुम्।। | 5-147-81f |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे सप्तचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 147 ।। |
5-147-6 कुण्डलितः पाठो झ. पुस्तक एवास्ति।। 5-147-49 कुण्डलितः पाठः झ.पुस्तक एव विद्यते।। 5-147-67 उक्ता सृष्टं तमः कर्तृ प्रभामहरदित्यन्वयः।। 5-147-68 बलं सैन्यं कर्तृ।। 5-147-147 सप्तचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 5-147-* अथाब्रवीदित्यादीनां वीक्षते सूर्यमण्डलं इत्यन्तानां श्लोकानां स्थाने अधोलिखिताः श्लोकाः ङ.पुस्तके वर्तन्ते। अनस्तमित आदित्ये अतान्निर्जित्य सैन्धवः। न शक्योहन्तुमित्येवं मन्यमानो जनार्दनः।। 1 ।। सस्मार चक्रं दैत्यारिर्हरिश्चक्रं सुदर्शनम्। तदादिदेश भगवान्स्मृतमात्रमुपस्थितम्।। 2 ।। अस्तं गतमिवादित्यं तमसा च्छादयेति च। तत्तथोक्तं भगवता तमो भूत्वा विशाम्पते।। 3 ।। अन्धं तम इवाज्ञानामादित्यस्याहरत्प्रभाम्। उन्नमय्य शिरोग्रीवामपश्यत्सैन्धवो रविम्।। 4 ।। अथार्जुनं हृषीकेशः शोकपूर्णमथाध्रवीत्। पश्य कौन्तेय सिन्धूनामधिपं पापकारिणम्।। 5 ।। एष तिष्ठति मध्ये वै स्यन्दनस्य धनञ्जय।
द्रोणपर्व-146 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-148 |