महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-080

← द्रोणपर्व-079 महाभारतम्
सप्तमपर्व
महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-080
वेदव्यासः
द्रोणपर्व-081 →

अर्जुनस्य स्वप्ने कृष्णेन सह कैलासगमनम्।। 1 ।। तथा स्तुत्या रुद्रप्रसादनम्।। 2 ।।

  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103
  104. 104
  105. 105
  106. 106
  107. 107
  108. 108
  109. 109
  110. 110
  111. 111
  112. 112
  113. 113
  114. 114
  115. 115
  116. 116
  117. 117
  118. 118
  119. 119
  120. 120
  121. 121
  122. 122
  123. 123
  124. 124
  125. 125
  126. 126
  127. 127
  128. 128
  129. 129
  130. 130
  131. 131
  132. 132
  133. 133
  134. 134
  135. 135
  136. 136
  137. 137
  138. 138
  139. 139
  140. 140
  141. 141
  142. 142
  143. 143
  144. 144
  145. 145
  146. 146
  147. 147
  148. 148
  149. 149
  150. 150
  151. 151
  152. 152
  153. 153
  154. 154
  155. 155
  156. 156
  157. 157
  158. 158
  159. 159
  160. 160
  161. 161
  162. 162
  163. 163
  164. 164
  165. 165
  166. 166
  167. 167
  168. 168
  169. 169
  170. 170
  171. 171
  172. 172
  173. 173
  174. 174
  175. 175
  176. 176
  177. 177
  178. 178
  179. 179
  180. 180
  181. 181
  182. 182
  183. 183
  184. 184
  185. 185
  186. 186
  187. 187
  188. 188
  189. 189
  190. 190
  191. 191
  192. 192
  193. 193
  194. 194
  195. 195
  196. 196
  197. 197
  198. 198
  199. 199
  200. 200
  201. 201
  202. 202
  203. 203
सञ्जय उवाच। 5-80-1x
धार्तराष्ट्रस्य तं मन्त्रं स्मरन्नेव धनञ्जयः।
प्रतिज्ञामात्मनो रक्षन्मुमोहाचिन्त्यविक्रमः।।
5-80-1a
5-80-1b
तं तु शोकेन सन्तप्तं स्वप्ने कपिवरध्वजम्।
आससाद महातेजा ध्यायन्तं गरुडध्वजः।।
5-80-2a
5-80-2b
प्रत्युत्थानं च कृष्णस्य सर्वावस्थासु फल्गुनः।
न लोपयति धर्मात्मा भक्त्या प्रेम्णा च सर्वदा।।
5-80-3a
5-80-3b
प्रत्युत्थाय च गोविन्दं स्वं तस्मै चासनं ददौ।
न चासने स्वयं बुद्धिं बीभत्सुर्व्यदधात्तदा।।
5-80-4a
5-80-4b
ततः कृष्णो महातेजा जानँल्लोकस्य निश्चयम्।
कुन्तीपुत्रमिदं वाक्यमासीनः स्थितमब्रवीत्।।
5-80-5a
5-80-5b
मा विषादे मनः पार्थ कृथाः कालो हि दुर्जयः।
कालः सर्वाणि भूतानि नियच्छति भवाभवे।।
5-80-6a
5-80-6b
किमर्थं च विषादस्ते तद्ब्रूहि द्विपदां वर।
न शोच्यं विदुषां श्रेष्ठ शोकः कार्यविनाशनः।।
5-80-7a
5-80-7b
यत्तु कार्यं भवेत्कार्यं कर्मणा तत्समाचर।
हीनचेष्टस्य यः शोकः स हि शत्रुर्धनञ्जय।।
5-80-8a
5-80-8b
शोचन्नन्दयते शत्रून्कर्शयत्यपि बान्धवान्।
क्षीयते च नरस्तस्मान्न त्वं शोचितुमर्हसि।।
5-80-9a
5-80-9b
सञ्जय उवाच। 5-80-10x
इत्युक्तो वासुदेवेन बीभत्सुरपराजितः।
आबभाषे तदा विद्वानिदं वचनमर्थवत्।।
5-80-10a
5-80-10b
मया प्रतिज्ञा महती जयद्रथवधे कृता।
श्वोऽस्मि हन्ता दुरात्मानं पुत्रघ्नमिति केशव।।
5-80-11a
5-80-11b
मत्प्रतिज्ञाविघातार्थं धार्तराष्ट्रैः किलाच्युत।
पृष्ठतः सैन्धवः कार्यः सर्वैर्गुप्तो महारथैः।।
5-80-12a
5-80-12b
दश चैका च ताः कृष्ण अक्षौहिण्यः सुदुर्जयाः।
हतावशेषास्तत्रेमा हन्त माधव सङ्ख्यया।।
5-80-13a
5-80-13b
ताभिः परिवृतः सङ्ख्ये सर्वैश्चैव महारथैः।
कथं शक्येत सन्द्रष्टुं दुरात्मा कृष्ण सैन्धवः।।
5-80-14a
5-80-14b
प्रतिज्ञापारणं चापि न भविष्यति केशव।
प्रतिज्ञायां च हीनायां कथं जीवति मद्विधः।।
5-80-15a
5-80-15b
दुःखापायस्य मे वीर विकाङ्क्षा परिवर्तते।
द्रुतं च याति सविता तत एतद्ब्रवीम्यहम्।।
5-80-16a
5-80-16b
सञ्जय उवाच। 5-80-17x
शोकस्थानं तु तच्छ्रुत्वा पार्थस्य द्विजकेतनः।
संस्पृश्याम्भस्ततः कृष्णः प्राङ्मुखः समवस्थितः।।
5-80-17a
5-80-17b
इदं वाक्यं महातेजा बभाषे पुष्करेक्षणः।
हितार्थं पाण्डुपुत्रस्य सैन्धवस्य वधे कृती।।
5-80-18a
5-80-18b
श्रीभगवानुवाच। 5-80-19x
पार्थ पाशुपतं नाम परमास्त्रं सनातनम्।
येन सर्वान्मृधे देत्याञ्जघ्ने देवो महेश्वरः।।
5-80-19a
5-80-19b
यदि तद्विदितं तेऽद्य श्वो हन्ताऽसि जयद्रथम्।
अथ ज्ञातं प्रपद्यस्य मनसा वृषभध्वजम्।।
5-80-20a
5-80-20b
तं देवं मनसा ध्यात्वा जोषमास्स्व धनञ्जय।
ततस्तस्य प्रसादात्त्वं भक्त्या प्राप्स्यसि तन्महत्।।
5-80-21a
5-80-21b
सञ्जय उवाच। 5-80-22x
ततः कृष्णवचः श्रुत्वा संस्पृश्याम्भो धनञ्जयः।
भूमावासीन एकाग्रो जगाम मनसा भवम्।।
5-80-22a
5-80-22b
ततः प्रणिहितो ब्राह्मे मुहूर्ते शुभलक्षणे।
आत्मानमर्जुनोऽपश्यद्गने सहकेशवम्।।
5-80-23a
5-80-23b
पुण्यं हिमवतः पादं मणिमन्तं च पर्वतम्।
ज्योतिर्भिश्च समाकीर्णं सिद्धचारणसेवितम्।।
5-80-24a
5-80-24b
वायुवेगगतिः पार्थः खं भेजे सहकेशवः।
केशवेन गृहीतः स दक्षिणे विभुना भुजे।।
5-80-25a
5-80-25b
प्रेक्षमाणो बहून्भावाञ्जगामाद्भुतदर्शनान्।
उदीच्यां दिशि धर्मात्मा सोपश्यच्छ्वेतपर्वतम्।।
5-80-26a
5-80-26b
कुबेरस्य विराहे च नलिनीं पद्मभूषिताम्।
सरिच्छ्रेष्ठां च तां गङ्गां वीक्षमाणो बहूदकाम्।।
5-80-27a
5-80-27b
सदा पुष्पफलैर्वृक्षैरुपेतां स्फटिकोपलाम्।
सिंहव्याघ्रसमाकीर्णां नानामृगसमाकुलाम्।।
5-80-28a
5-80-28b
पुण्याश्रमवतीं रम्यां मनोज्ञाण्डजसेविताम्।
मन्दरस्य प्रदेशांश्च किन्नरोद्गीतनादितान्।।
5-80-29a
5-80-29b
हेमरूप्यमयैः शृङ्गैर्नानौषधिविदीपितान्।
तथा मन्दारवृक्षैश्च पुष्पितैरुपशोभितान्।
5-80-30a
5-80-30b
स्निग्धाञ्जनचयाकारं सम्प्राप्तः कालपर्वतम्।
ब्रह्मतुङ्गं नदीश्चान्यास्तथा जनपदानपि।।
5-80-31a
5-80-31b
स तुङ्गं शतशृङ्गं च शर्यातिवनमेव च।
पुण्यमश्वशिरस्थानं स्थानमाथर्वणस्य च।।
5-80-32a
5-80-32b
वृषदंशं च शैलेन्द्रं महामन्दरमेव च।
अप्सरोभिः समाकीर्णं किन्नरैश्चोपशोभितम्।।
5-80-33a
5-80-33b
तस्मिञ्शैले व्रजन्पार्थः सकृष्णः समवैक्षत।
शुभैः प्रस्रवणैर्जुष्टां हेमधातुविभूषिताम्।।
5-80-34a
5-80-34b
चन्द्ररश्मिप्रकाशाङ्गीं पृथिवीं पुरमालिनीम्।
समुद्रांश्चाद्भुताकारानपश्यद्बहुलाकरान्।।
5-80-35a
5-80-35b
वियद्द्यां पृथिवीं चैव तथा विष्णुपदं व्रजन्।
विस्मितः सह कृष्णेन क्षिप्तो बाण इवाभ्यगात्।।
5-80-36a
5-80-36b
ग्रहनक्षत्रसोमानां सूर्याग्न्योश्च समत्विषम्।
अपश्यत तदा पार्थो ज्वलन्तमिव पर्वतम्।।
5-80-37a
5-80-37b
समासाद्य तु तं शैलं शैलाग्रे समवस्थितम्।
तपोनित्यं महात्मानमपश्यद्वॄषभध्वजम्।
5-80-38a
5-80-38b
सहस्रमिव सूर्याणां दीप्यमानं स्वतेजसा।
शूलिनं जटिलं गौरं वल्कलाजिनवाससम्।।
5-80-39a
5-80-39b
नयनानां सहस्रैश्च विचित्राङ्गं महौजसम्।
पार्वत्या सहितं देवं भूतसङ्घैश्च भास्वरैः।।
5-80-40a
5-80-40b
गीतवादित्रसन्नादैर्हास्यलास्यसमन्वितम्।
वग्लितास्फोटितोत्क्रुष्टैः पुण्यैर्गन्धैश्च सेवितम्।।
5-80-41a
5-80-41b
स्तूयमानं स्तवैर्दिव्यैर्ऋषिभिर्ब्रह्मवादिभिः।
गोप्तारं सर्वभूतानामीशानं वरदं शिवम्।।
5-80-42a
5-80-42b
वासुदेवस्तु तं दृष्ट्वा जगाम शिरसा क्षितिम्।
पार्थेन सह धर्मात्मा गृणन्ब्रह्म सनातनम्।।
5-80-43a
5-80-43b
लोकादिं विश्वकर्माणमजमीशानमव्ययम्।
मनसः परमं योनिं खं वायुं ज्योतिषां निधिम्।।
5-80-44a
5-80-44b
स्रष्टारं वारिधाराणां भुवश्च प्रकृतिं पराम्।
देवदानवयक्षाणां मानवानां च शासकम्।।
5-80-45a
5-80-45b
योगानां च परं धाम दृष्टं ब्रह्मविदां निधिम्।
चारचरस्य स्रष्टारं प्रतिहर्तारमेव च।।
5-80-46a
5-80-46b
कालकोपं महात्मानं शक्रसूर्यगुणोदयम्।
ववन्दतुस्तदा कृष्णौ वाङ्मनोबुद्धिकर्मभिः।।
5-80-47a
5-80-47b
यं प्रपद्यन्ति विद्वांसः सूक्ष्माध्यात्मपदैषिणः।
तमजं कारमात्मानं जग्मतुः शरणं भवम्।।
5-80-48a
5-80-48b
अर्जुनश्चापि तं देवं भूयो भूयोऽप्यवन्दत।
ज्ञात्वा तं सर्वभूतादिं भूतभव्यभवोद्भवम्।।
5-80-49a
5-80-49b
`शरण्यं शरणं देवमीशानं परमेश्वरम्।
जगाम जगतां नाथमर्जुनः सजनार्दनः'।।
5-80-50a
5-80-50b
ततस्तावागतौ दृष्ट्वा नरनारायणावुभौ।
सुप्रसन्नमनाः शर्वः प्रोवाच प्रहसन्निव।।
5-80-51a
5-80-51b
स्वागतं वां नरश्चेष्ठावुत्तिष्ठेतां गतक्लमौ।
किञ्च वामीप्सितं वीरौ मनसः क्षिप्रमुच्यताम्।।
5-80-52a
5-80-52b
येन कार्येण सम्प्राप्तौ युवां तत्साधयामि किम्।
व्रियतामात्मनः श्रेयस्तत्सर्वं प्रददानि वाम्।।
5-80-53a
5-80-53b
सञ्जय उवाच। 5-80-54x
ततस्तद्वचनं श्रुत्वा प्रत्युत्थाय कृताञ्जली।
वासुदेवार्जुनौ शर्वं तुष्टुवाते महामती।
भक्त्यास्तवेन दिव्येन महात्मानावनिन्दितौ।।
5-80-54a
5-80-54b
5-80-54c
कृष्णार्जुनावूचतुः। 5-80-55x
नमो भवाय शर्वाय रुद्राय वरदाय च।
पशूनां पतये नित्यमुग्राय च कपर्दिने।।
5-80-55a
5-80-55b
महादेवाय भीमाय त्र्यम्बकाय च शान्तये।
ईशानाय मखघ्नाय नमोऽस्त्वन्धकघातिने।।
5-80-56a
5-80-56b
कुमारगुरवे तुभ्यं नीलग्रीवाय वेधसे।
पिनाकिने हविष्याय सत्याय विभवे सदा।।
5-80-57a
5-80-57b
विलोहिताय ध्रूम्राय व्याधायानपराजिते।
नित्यं नीलशिखण्डाय शूलिने दिव्यचक्षुषे।।
5-80-58a
5-80-58b
होत्रे पोत्रे त्रिनेत्राय व्याधाय वसुरेतसे।
अचिन्त्यायाम्बिकाभर्त्रे सर्वदेवस्तुताय च।।
5-80-59a
5-80-59b
वृषध्वजाय मुण्डाय जटिने ब्रह्मचारिणे।
तप्यमानाय सलिले ब्रह्मण्यायाजिताय च।।
5-80-60a
5-80-60b
विश्वात्मने विश्वसृजे विश्वमावृत्य तिष्ठते।
नमोनमस्ते सेव्याय भूतानां प्रभवे सदा।।
5-80-61a
5-80-61b
ब्रह्मवक्त्राय सर्वाय शंकराय शिवाय च।
नमोस्तु वाचस्पतये प्रजानां पतये नमः।।
5-80-62a
5-80-62b
`अभिगम्याय काम्याय स्तुत्यायार्याय सर्वदा।
नमोऽस्तु देवदेवाय महाभूतधराय च।
नमो विश्वस्य पतये पत्तीनां पतये नमः'।।
5-80-63a
5-80-63b
5-80-63c
नमो विश्वस्य पतये महतां पतये नमः।
नमः सहस्रशिरसे सहस्रभुजमृत्यवे।।
सहस्रनेत्रपादाय नमोऽसङ्ख्येयकर्मणे।
5-80-64a
5-80-64b
5-80-64c
नमो हिरण्यवर्णाय हिरण्यकवचाय च।
भक्तानुकम्पिने नित्यं सिध्यतां नो वरः प्रभो।।
5-80-65a
5-80-65b
सञ्जय उवाच। 5-80-66x
एवं स्तुत्वा महादेवं वासुदेवः सहार्जुनः।
प्रसादयामास भवं तदा ह्यस्त्रोपलब्धये।।
5-80-66a
5-80-66b
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि
प्रतिज्ञापर्वणि अशीतितमोऽध्यायः।। 80 ।।

सम्पाद्यताम्

5-80-7 न शोच्यं शोको नाचरणीयः।। 5-80-8 कार्ये कृत्यं कार्यं करणीयं भवेदित्यन्वयः।। 5-80-23 प्रणिहितः समातिxxxx।। 5-80-32 अथर्वणस्य मुनेः।। 5-80-36 तथा च व्रजन्विष्णुपदमाकाशमभ्यगादित्यन्वयः।। 5-80-41 लास्यं नृत्तम्। वल्गितमितस्ततः प्रचारः। आस्फोटितं भुजाडम्बरः। उक्त्रुष्टमुच्चैः स्वनितम्।। 5-80-44 विश्वं जगत्कर्म प्राप्यं यस्य। ईशानमप्रतिहतेच्छम्। अव्ययमविकारम्। मनसः परमं प्रवृत्तिनिवृत्तिकारणम्। योनिमुत्पत्तिस्थानं च। ज्योतिषां तेजसां निधिमधिष्ठानम्।। 5-80-46 योगानां योगदर्शिनां परं धाम परमाश्रयम्। दृष्टं साक्षाद्भूतं ब्रह्मतत्त्वं तद्विदां निर्धि रहस्यम्।। 5-80-47 कालइव कोपो यस्य। शक्रस्य गुणा ऐश्वर्यादयः सूर्यस्य गुणाः प्रतापादयः तेषामुदयो यस्मात्। कालकेशं इति क. पाठः।। 5-80-48 कारणात्मानं कारणैकस्वभावम्।। 5-80-55 भावः सर्वप्रभुत्वात्। शर्वः संहरणात्।। 5-80-56 शान्तिः शमप्रधानत्वात्।। 5-80-57 हविष्यः हविष्ययोग्यत्वात्। विभुर्व्यापकत्वात्।। 5-80-58 व्याधाय मृगहननात्। द्विरुक्तिर्द्विस्तथाकरणात्। अनात्प्राणिनः पराजयतीति अनपराजित्सर्वभूतोत्तमत्वात्। नीलशिखण्डो नीलकेशत्वात्।। 5-80-59 होता दीक्षितः भावेन हवनशीलत्वात्। वसुरेता अग्नौ रेतः क्षेपणात्।। 5-80-60 मुण्डो दीक्षितत्वात्। ब्रह्मचारी रेतोविधारणात्।। 5-80-61 भूतानां प्राणिनां प्रमथादीनाम्।। 5-80-62 ब्रह्मवक्रो वेदपूर्णमुखत्वात्। शिवो मोक्षहेतुत्वात्। वाचस्पतिर्वाङ्ययप्रवर्तनात्।। 5-80-80 अशीतितमोऽध्यायः।।

द्रोणपर्व-079 पुटाग्रे अल्लिखितम्। द्रोणपर्व-081