महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-146
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अर्जुनेन कर्णेंप्रति तत्कुतभीमगर्हणातितिक्षया तद्गर्हणपूर्वकं तत्सुतवधप्रतिज्ञा।। 1 ।। कर्णदुर्योधनसंवादः सङ्कुलयुद्धं च।। 2 ।।
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धृतराष्ट्र उवाच। | 5-146-1x |
तथा गतेषु शूरेषु तेषां मम च सञ्जय। किंस्विद्भीमार्जुनौ चैव सात्यकिश्चाकरोत्तदा।। | 5-146-1a 5-146-1b |
सञ्जय उवाच। | 5-146-2x |
विरथो भीमसेनो वै कर्णवाक्शल्यपीडितः। अमर्षवशमापन्नः फल्गुनं वाक्यमब्रवीत्।। | 5-146-2a 5-146-2b |
पुनःपुनस्तूबरक मूढ औदरिकेति च। अकृतास्त्रक मा योत्सीर्बाल सङ्ग्रामकातर।। | 5-146-3a 5-146-3b |
इति मामब्रवीत्कर्णः पश्यतस्ते धनञ्जय। एवं वक्ता च मे वध्यस्तेन चोक्तस्तथा ह्यहम्।। | 5-146-4a 5-146-4b |
एतद्व्रतं महाबाहो त्वया सह कृतं मया। तथैतन्मम कौन्तेय यथा तव न संशयः।। | 5-146-5a 5-146-5b |
तद्वधाय नरश्रेष्ठ स्मरैतद्वचनं मम। यथा भवति तत्सत्यं तथा कुरु धनञ्जय।। | 5-146-6a 5-146-6b |
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य भीमस्यामितविक्रमः। ततोऽर्जुनोऽब्रवीत्कर्णं किञ्चिदभ्येत्य संयुगे।। | 5-146-7a 5-146-7b |
कर्णकर्ण वृथादृष्टे सूतपुत्रात्मसंस्तुत। अधर्मबुद्धे शृणु मे यत्त्वां वक्ष्यामि साम्प्रतम्।। | 5-146-8a 5-146-8b |
द्वावेवं कर्ण शूराणां रणे दृष्टौ जयाजयौ। तौ चाप्यनित्यौ राधेय वासवस्यापि युध्यतः।। | 5-146-9a 5-146-9b |
`रणमुत्सृज्य निर्लज्ज गच्छसे च पुनः पुनः। माहात्म्यं पश्य भीमस्य कर्म जन्म कुले तथा। नोक्तवान्परुषं यत्त्वां पलायनपरायणम्।। | 5-146-10a 5-146-10b 5-146-10c |
भूयस्त्वमपि सङ्गम्यं सकृदेव यदृच्छया। विरथं कृतवान्वीरं पाण्डवं सूतदायद।। | 5-146-11a 5-146-11b |
कुलस्य सदृशं चापि राधेय कृतवानसि। नैकान्तसिद्धिः सङ्ग्रामे वासवस्यापि विद्यते'।। | 5-146-12a 5-146-12b |
मुमूर्षुर्युयुधानेन विरथो विकलेन्द्रियः। मद्वध्यस्त्वमिति ज्ञात्वा जित्वा जीवन्विसर्जितः।। | 5-146-13a 5-146-13b |
यदृच्छया रणे भीमं युध्यमानं महाबलम्। कथञ्चिद्विरथं कृत्वा यत्त्वं रूक्षमभाषथाः। अधर्मस्त्वेष सुमहाननार्यचरितं च तत्।। | 5-146-14a 5-146-14b 5-146-14c |
नारिं जित्वाऽतिकत्थन्ते न च जल्पन्ति दुर्वचः। न च कञ्चन निन्दन्ति सन्तः शूरा नरर्षभाः।। | 5-146-15a 5-146-15b |
त्वं तु प्राकृतविज्ञानस्तत्तद्वदसि सूतज। बह्वबद्धमकर्ण्यं च चापलादपरीक्षितम्।। | 5-146-16a 5-146-16b |
युध्यमानं पराक्रान्तं शूरमार्यव्रते रतम्। यदवोचोऽप्रियं भीमं नैतत्सत्यं वचस्तव। पश्यतां सर्वसैन्यानां केशवस्य ममैव च।। | 5-146-17a 5-146-17b 5-146-17c |
विरथो भीमसेनेन कृतोऽसि बहुशो रणे। न च त्वां परुषं किञ्चिदुक्तवान्पाण्डुनन्दनः।। | 5-146-18a 5-146-18b |
यस्मात्तु बहु रूक्षं च श्रावितस्ते वृकोदरः। परोक्षं यच्च सौभद्रो युष्माभिर्बहुभिर्हतः। तस्मादस्यावलेपस्य सद्यः फलमवाप्नुहि।। | 5-146-19a 5-146-19b 5-146-19c |
त्वया तस्य धनुश्छिन्नमात्मनाशाय दुर्मते। तस्माद्वध्योऽसि मे मूढ सभृत्यसुतबान्धवः।। | 5-146-20a 5-146-20b |
कुरु त्वं सर्वकृत्यानि महत्ते भयमागतम्। हन्ताऽस्मि वृषसेनं ते प्रेक्षमाणस्य संयुगे।। | 5-146-21a 5-146-21b |
ये चान्येऽप्युपयास्यन्ति बुद्धिमोहेन मां नृपाः। तांश्च सर्वान्हनिष्यामि सत्येनायुधमालभे।। | 5-146-22a 5-146-22b |
त्वां च मूढाकृतप्रज्ञमतिमानिनमाहवे। दृष्ट्वा दुर्योधनो मन्दो भृशं तप्स्यति पातितम्।। | 5-146-23a 5-146-23b |
सञ्जय उवाच। | 5-146-24x |
अर्जुनेन प्रतिज्ञाते वधे कर्णसुतस्य तु। महान्सुतुमुलः शब्दो बभूव रथिनां तदा।। | 5-146-24a 5-146-24b |
तस्मिन्नाकुलसङ्ग्रामे वर्तमाने महाभये। मन्दरश्मिः सहस्रांशुरस्तङ्गिरिमुपाद्रवत्।। | 5-146-25a 5-146-25b |
ततो दुर्योधनो राजा राधेयं त्वरितोऽब्रवीत्। अर्जुनं प्रेक्ष्य संयातं जयद्रथवधं प्रति।। | 5-146-26a 5-146-26b |
`अमानुषाणि कर्माणि कुर्वन्तौ भरतर्षभ। सात्यकिं भीमसेनं च यत्तौ तौ दर्शयन्निव।। | 5-146-27a 5-146-27b |
अयं स वैकर्तन युद्धकालो विदर्शयस्वात्मबलं महात्मन्। यथा न वध्येत रणेऽर्जुनेन जयद्रथः कर्ण तथा कुरुष्व।। | 5-146-28a 5-146-28b 5-146-28c 5-146-28d |
अल्पावशेषो दिवसो हि साम्प्रतं निवारयेहाद्य रिपुं शरौघैः। दिनक्षयं प्राप्य नरप्रवीर ध्रुवो हि नः कर्ण जयो भविष्यति।। | 5-146-29a 5-146-29b 5-146-29c 5-146-29d |
सैन्धवे रक्ष्यमाणे तु सूर्यस्यास्तमनं प्रति। मिथ्याप्रतिज्ञः कौन्तेयः प्रवेक्ष्यति हुताशनम्।। | 5-146-30a 5-146-30b |
अनर्जुनायां च भुवि मुहूर्तमपि मानद। जीवितुं नोत्सहेरन्वै भ्रातरोऽस्य सहानुगाः।। | 5-146-31a 5-146-31b |
पाण्डवेषु विनष्टेषु सशैलवनकाननाम्। वसुन्धरामिमां कर्ण भोक्ष्यामो महतकण्टकाम्।। | 5-146-32a 5-146-32b |
दैवेनोपहतः पार्थो विपरीतश्च मानद। कार्याकार्यमजानानः प्रतिज्ञां कृतवान्रणे।। | 5-146-33a 5-146-33b |
नूनमात्मविनाशाय पाण्डवेन किरीटिना। मिथ्याप्रतिज्ञैव कृता जयद्रथवधं प्रति।। | 5-146-34a 5-146-34b |
कथं जीवति दुर्धर्षे त्वपि राधेय फल्गुनः। अनस्तङ्गत आदित्ये हन्यात्सैन्धवकं नृपम्।। | 5-146-35a 5-146-35b |
रक्षितं मद्रराजेन कृपेण च महात्मना। जयद्रथं रणमुखे कथं हन्याद्धनञ्जयः।। | 5-146-36a 5-146-36b |
द्रौणिना रक्ष्यमाणं च मया दुःशासनेन च। कथं प्राप्स्यति बीभत्सुः सैन्धवं कालचोदितः।। | 5-146-37a 5-146-37b |
युध्यन्ते बहवः शूरा लम्बते च दिवाकरः। शङ्के जयद्रथं पार्थो नैव प्राप्स्यति मानद।। | 5-146-38a 5-146-38b |
स त्वं कर्ण मया सार्धं शूरैश्चान्यैर्महारथैः। द्रौणिना त्वं हि सहितो मद्रेशेन कृपेण च। युध्यस्व यत्नमास्थाय परं पार्थेन संयुगे।। | 5-146-39a 5-146-39b 5-146-39c |
एवमुक्तस्तु राधेयस्तव पुत्रेण मारिष। दुर्योधनमिदं वाक्यं प्रत्युवाच कुरूत्तमम्।। | 5-146-40a 5-146-40b |
दृढलक्ष्येण वीरेण भीमसेनेन धन्विना। भृशं भिन्नतनुः सङ्ख्ये शरजालैरनेकशः।। | 5-146-41a 5-146-41b |
स्थातव्यमिति तिष्ठामि रणे सम्प्रति मानद। नाङ्गमिङ्गति किञ्चिन्मे सन्तप्तस्य महेषुभिः। योत्स्यामि तु यथाशक्त्या त्वदर्थं जीवितं मम।। | 5-146-42a 5-146-42b 5-146-42c |
`तत्तथा प्रयतिष्येऽहं परं शक्त्याxxxxसुयोधन'। यथा पाण्डवमुख्योऽसौ न हनिष्याति सैन्धवम्।। | 5-146-43a 5-146-43b |
न हि मे युध्यमानस्य सायकानस्यतः शितान्। सैन्धवं प्राप्स्यते वीरः सव्यसाची धनञ्जयः।। | 5-146-44a 5-146-44b |
यत्तु भक्तिमता कार्यं सततं हितकाङ्क्षिणा। तत्करिष्यामि कौरव्य जयो दैवे प्रतिष्ठितः।। | 5-146-45a 5-146-45b |
सैन्धवार्थे परं यत्नं करिष्याम्यद्य संयुगे। त्वत्प्रियार्थं महाराज जयो दैवे प्रतिष्ठितः।। | 5-146-46a 5-146-46b |
अद्य योत्स्येऽर्जुमहं पौरुषं स्वं व्यपाश्रितः। त्वदर्थे पुरुषव्याघ्र जयो दैवे प्रतिष्ठितः।। | 5-146-47a 5-146-47b |
अद्य युद्धं कुरुश्रेष्ठ मम पार्थस्य चोभयोः। पश्यन्तु सर्वसैन्यानि दारुणं रोमहर्षणम्।। | 5-146-48a 5-146-48b |
सञ्जय उवाच। | 5-146-49x |
कर्णकौरवयोरेवं रणे संभाषमाणयोः। अर्जुनो निशितैर्बाणैर्जघान तव वाहिनीम्।। | 5-146-49a 5-146-49b |
चिच्छेद निशितैर्बाणैः शूराणामनिवर्तिनाम्।। | 5-146-50a |
भुजान्परिघसङ्काशान्हस्तिहस्तोपमान्रणे। शिरांसि च महाबाहुश्चिच्छेद निशितैः शरैः।। | 5-146-51a 5-146-51b |
हस्तिहस्तान्द्विपस्कन्धान्रथाक्षांश्च समन्ततः। शोणिताक्तान्हयारोहान्गृहीतप्रासतोमरान्।। | 5-146-52a 5-146-52b |
क्षुरैश्चिच्छेद बीभत्सुर्द्विधैकैकं त्रिधैव च। हयान्वारणमुख्यांश्च पदातींश्च समन्ततः। ध्वजांश्छत्राणि चापानि चामराणि शिरांसि च।। | 5-146-53a 5-146-53b 5-146-53c |
कक्षमग्निरिवोद्धूतः प्रादहत्तव वाहिनीम्। अचिरेण महीं पार्थश्चकार रुधिरोत्तराम्।। | 5-146-54a 5-146-54b |
हतभूयिष्ठयोधं तत्कृत्वा तव बलं बली। आससाद दुराधर्षः सैन्धवं सत्यविक्रमः।। | 5-146-55a 5-146-55b |
बीभत्सुर्भीमसेनेन सात्वतेन च रक्षितः। प्रबभौ भरतश्रेष्ठ ज्वलन्निव हुताशनः।। | 5-146-56a 5-146-56b |
तं तथाऽवस्थितं दृष्ट्वा त्वदीया वीरसंमताः। नामृष्यन्त महेष्वासाः पाण्डवं पुरुषर्षभाः।। | 5-146-57a 5-146-57b |
दुर्योधनश्च कर्णश्च वृषसेनोऽथ मद्रराट्। अश्वत्थामा कृपश्चैव स्वयमेव च सैन्धवः।। | 5-146-58a 5-146-88b |
सन्नद्धाः सैन्धवस्यार्थे समावृण्वन्किरीटिनम्। नृत्यन्तं रथमार्गेषु धनुर्ज्यातलनिःस्वनैः।। | 5-146-59a 5-146-59b |
सङ्ग्रामकोविदं पार्थं सर्वे युद्धविशारदाः। अभीताः पर्यवर्तन्त व्यादितास्यमिवान्तकम्।। | 5-146-60a 5-146-60b |
सैन्धवं पृष्ठतः कृत्वा जिघांसन्तोऽच्युतार्जुनौ। सूर्यास्तमनमिच्छन्तो लोहितायति भास्करे।। | 5-146-61a 5-146-61b |
ते भुजैर्भोगिभोगाभैर्धनूंष्यानम्य सायकान्। मुमुचुःसूर्यरश्म्याभाञ्छतशः फल्गुनं प्रति।। | 5-146-62a 5-146-62b |
ततस्तानस्यमानांश्च किरीटी युद्धदुर्मदः। द्विधा त्रिधाऽष्टधैकैकं छित्त्वा विव्याध तान्रथान्।। | 5-146-63a 5-146-63b |
सिंहलाङ्गूलकेतुस्तु दर्शयन्वीर्यमात्मनः। शारद्वतीसुतो राजन्नर्जुनं प्रत्यवारयन्।। | 5-146-64a 5-146-64b |
स विद्वा दशभिः पार्थं वासुदेवं च सप्तभिः। अतिष्ठद्रथमार्गेषु सैन्धवं प्रतिपालयन्।। | 5-146-65a 5-146-65b |
अथैनं कौरवश्रेष्ठाः सर्व एव महारथाः। महता रथवंशेन सर्वतः प्रत्यवारयन्।। | 5-146-66a 5-146-66b |
विष्फारयन्तश्चापानि विसृजन्तश्च सायकान्। सैन्धवं पर्यरक्षन्त शासनात्तनयस्य ते।। | 5-146-67a 5-146-67b |
ततः पार्थस्य शूरस्य बाह्वोर्बलमदृश्यत। इषूणामक्षयत्वं च धनुषो गाण्डिवस्य च।। | 5-146-68a 5-146-68b |
अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य द्रौणेः शारद्वतस्य च। एकैकं दशभिर्बाणैः सर्वानेव समार्पयत्।। | 5-146-69a 5-146-69b |
तं द्रौणिः पञ्चविंशत्या वृषसेनश्च सप्तभिः। दुर्योधनश्च विंशत्या कर्णशल्यौ त्रिभिस्त्रिभिः।। | 5-146-70a 5-146-70b |
त एनमभिगर्जन्तो विध्यन्तश्च पुनःपुनः। विधुन्वन्तश्च चापानि सर्वतः प्रत्यवारयन्।। | 5-146-71a 5-146-71b |
श्लिष्टं च सर्वतश्चक्रू रथमण्डलमाशु ते। सूर्यास्तमनमिच्छन्तस्त्वरमाणा महारथाः।। | 5-146-72a 5-146-72b |
त एनमभिनर्दन्तौ विधुन्वाना धनूंषि च। सिषिचुर्मार्गणैस्तीक्ष्णैर्गिरिं मेघा इवाम्बुभिः।। | 5-146-73a 5-146-73b |
ते महास्त्राणि दिव्यानि तत्र राजन्व्यदर्शयन्। धनञ्जयस्य गात्रे तु शूराः परिघबाहवः।। | 5-146-74a 5-146-74b |
`निवार्य ताञ्शरव्रातैर्दिव्यान्यस्त्राणि दर्शयन्'। हतभूयिष्ठयोधं तत्कृत्वा तव बलं बली। आससाद दुराधर्षः सैन्धवं सत्यविक्रमः।। | 5-146-75a 5-146-75b 5-146-75c |
तं कर्णः संयुगे राजन्प्रत्यवारयदाशुगैः। मिषतो भीमसेनस्य सात्वतस्य च भारत।। | 5-146-76a 5-146-76b |
तं पार्थो दशभिर्बाणैः प्रत्यविध्यद्राणाजिरे। सूतपूत्रं महाबाहुः सर्वसैन्यस्य पश्यतः।। | 5-146-77a 5-146-77b |
सात्वतश्च त्रिभिर्बाणैः कर्णं विव्याध मारिष। भीमसेनस्त्रिभिश्चैव पुनः पार्थश्च सप्तभिः।। | 5-146-78a 5-146-78b |
तान्कर्णः प्रतिविव्याध षष्ट्याषष्ट्या महारथः। तद्युद्धमभवद्राजन्कर्णस्य बहुभिः सह।। | 5-146-79a 5-146-79b |
तत्राद्भूतमपश्याम सूतपुत्रस्य मारिष। यदेकः समरे क्रुद्धस्त्रीन्रथान्पर्थवारयत्।। | 5-146-80a 5-146-80b |
फल्गुनस्तु महाबाहुः कर्णं वैकर्तनं रणे। सायकानां शतेनैव सर्वमर्मस्वताडयत्।। | 5-146-81a 5-146-81b |
रुधिरोक्षितसर्वाङ्गः सूतपुत्रः प्रतापवान्। शरैः पञ्चाशता वीरः फल्गुनं प्रत्यविध्यत।। | 5-146-82a 5-146-82b |
तस्य तल्लाघवं दृष्ट्वा नामृष्यत रणेऽर्जुनः। तस्य पार्थो धनुश्छित्त्वा विव्याधैनं स्तनान्तरे। सायकैर्नवभिर्वीरस्त्वरमाणो धनञ्जयः।। | 5-146-83a 5-146-83b 5-146-83c |
अथान्यद्धनुरादाय सूतपुत्रः प्रतापवान्। सायकैरष्टसाहस्रैश्छादयामास पाण्डवम्।। | 5-146-84a 5-146-84b |
तां बाणवृष्टिमतुलां कर्णचापसमुत्थिताम्। व्यधमत्सायकैः पार्थः शलभानिव मारुतः।। | 5-146-85a 5-146-85b |
छादयामास च तदा सायकैरर्जुनो रणे। पश्यतां सर्पयोधानां दर्शयन्पाणिलाघवम्।। | 5-146-86a 5-146-86b |
वधार्थं चास्य समरे सायकं सूर्यवर्चसम्। चिक्षेप त्वरया युक्तस्त्वराकाले धनञ्जयः।। | 5-146-87a 5-146-87b |
तमापतन्तं वेगेन द्रौणिश्चिच्छेद सायकम्। अर्धचन्द्रेण तीक्ष्णेन स च्छिन्नः प्रापतद्भूवि।। | 5-146-88a 5-146-88b |
कर्णोऽपि द्विषतां हन्ता छादयामास फल्गुनम्। सायकैर्बहुसाहस्रैः कृतप्रतिकृतेप्सया।। | 5-146-89a 5-146-89b |
तौ वृषाविव नर्दन्तौ नरसिंहौ महारथौ। सायकैस्तु प्रतिच्छन्नं चक्रतुः खमजिह्मगैः।। | 5-146-90a 5-146-90b |
अदृश्यौ च शरौथैस्तौ निघ्न्तावितरेतरम्। कर्ण पार्थोऽस्ति तिष्ठत्वं कर्णोऽहं तिष्ठ फल्गुन्न।। | 5-146-91a 5-146-91b |
इत्येवं तर्जयन्तौ तौ वाक्शल्यैस्तु परस्परम्। विध्येतां समरे वीरौ चित्रं लघु च सुष्ठु च।। | 5-146-92a 5-146-92b |
प्रेक्षणीयौ चाभवतां सर्वयोधसमागमे। प्रशस्यामानौ समरे सिद्धचारणपन्नगैः।। | 5-146-93a 5-146-93b |
अयुध्येतां महाराज परस्परवधैषिणौ। ततो दुर्योधनो राजंस्तावकानभ्यभाषत।। | 5-146-94a 5-146-94b |
यत्नाद्रक्षत राधेयं नाहत्वा समरेऽर्जुनम्। निवर्तिष्यति राधेयो न वाऽजित्वाऽद्य फल्गुनं।। | 5-146-95a 5-146-95b |
एतस्मिन्न्तरे राजन्दृष्ट्वा कर्णस्य विक्रमम्। आकर्णमुक्तैरिषुभिः कर्णस्य चतुरो हयान्। अनयत्प्रेतलोकाय चतुर्भिः श्वेतवाहनः।। | 5-146-96a 5-146-96b 5-146-96c |
सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपातयत्। छादयामास स शरैस्तव पुत्रस्य पश्यतः।। | 5-146-97a 5-146-97b |
सञ्छाद्यमानः समरे हताश्वो हतसारथिः। मोहितः शरजालेन कर्तव्यं नाभ्यपद्यत।। | 5-146-98a 5-146-98b |
तं तथा विरथं दृष्ट्वा रथमारोप्य तं तदा। अश्वत्थामा महाराज भूयोऽर्जुनमयोधयत्।। | 5-146-99a 5-146-99b |
मद्रराजश्च कौन्तेयमविध्यत्त्रिंशता शरैः। `आवव्रेऽर्जुनमार्गं च शरजालेन भारत'।। | 5-146-100a 5-146-100b |
शारद्वतस्तु विंशत्यं वासुदेवं समार्पयत्। धनञ्जयं द्वादशभिराजघान शिलीमुखैः।। चतुर्भिः सिन्धुराजश्च वृषसेनश्च सप्तभिः। पृथक्पृथङ्महाराज विव्यधुः कृष्णपाण्डवौ।। | 5-146-101a 5-146-101b 5-146-101c 5-146-101d |
तथैव तान्प्रत्यविध्यत्कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः। द्रोणपुत्रं चतुःषष्ट्या मद्रराजं शतेन च।। सैन्धवं दशभिर्बाणैर्वृषसेनं त्रिभिः शरैः। शारद्वतं च विंशत्या विद्व्वा पार्थो ननाद ह।। | 5-146-102a 5-146-102b 5-146-102c 5-146-102d |
ते प्रतिज्ञाप्रतीघातमिच्छन्तः सव्यसाचिनः। सहितास्तावकास्तूर्णमभिपेतुर्धनञ्जयम्।। | 5-146-103a 5-146-103b |
अथार्जुनः सर्वतो वारुणास्त्रं प्रादुश्चक्रे त्रासयन्धार्तराष्ट्रान्। तं प्रत्युदीयः कुरुवः पाण्डुपुत्रं रथैर्महार्हैः शरवर्षं सृजन्तः।। | 5-146-104a 5-146-104b 5-146-104c 5-146-104d |
ततस्तु तस्मिंस्तुमले समुत्थिते सुदारुणे भारतमोहनीये। नो मुह्यत प्राप्य स राजपुत्रः किरीटमाली व्यसृजच्छरौघान्।। | 5-146-105a 5-146-105b 5-146-105c 5-146-105d |
वधप्रेप्सुः सव्यसाची कुरूणां स्मरन्क्लेशान्द्वादशवर्षवृत्तान्। गाण्डीवमुक्तैरिषुभिर्महात्मा सर्वा दिशो व्यावृणोदप्रमेयः।। | 5-146-106a 5-146-106b 5-146-106c 5-146-106d |
प्रदीप्तोल्कमभवच्चान्तरिक्षं मृतेषु देहेष्वपतन्वयांसि। यत्पिङ्गलज्येन किरीटमाली क्रुद्धो रिपूनाजगवेन हन्ति।। | 5-146-107a 5-146-107b 5-146-107c 5-146-107d |
ततः किरीटि महता महायशाः शरासनेनास्य शराननीकजित्। हयप्रवेकोत्तमनागघूर्णिता-- न्कुरुप्रवीरानिषुभिर्व्यापातयत्।। | 5-146-108a 5-146-108b 5-146-108c 5-146-108d |
गदाश्च गुर्वीः परिघानयस्मया-- नसींश्च शक्तीश्च रणे नराधिपाः। महान्ति शस्त्राणि च भीमदर्शनाः प्रगृह्य पार्थं सहसाऽभिदुद्रुवुः।। | 5-146-111a 5-146-111b 5-146-111c 5-146-111d |
ततो युगान्ताभ्रसमस्वनं मह-- न्महेन्द्रचापप्रतिमं च गाण्डिवम्। चकर्ष दोर्भ्यों विहसन्भृशं ययौ दहंस्त्वहीयान्यमराष्ट्रवर्धनः।। | 5-146-112a 5-146-112b 5-146-112c 5-146-112d |
स तानुदीर्णान्सरथान्सवारणा-- न्पदातिसङ्घांश्च महाधनुर्धरः। विपन्नसर्वायुधजीवितान्रणे चकार वीरो यमराष्ट्रवर्धनान्।। | 5-146-113a 5-146-113b 5-146-113c 5-146-113d |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे षट्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 146 ।। |
5-146-33 उपहतो मोहितः। विपरीतोऽन्यथाभूतप्रकृतिः।। 5-146-41 दृढलक्ष्येण दृढप्रहारेण।। 5-146-45 प्रतिष्ठितः अधीनः।। 5-146-106 सर्वर्तोदारमस्त्रं इति। क.ख.ट.पाठः। सर्वतः सारमस्त्रं इति ङ. पाठः।। 5-146-107 प्राप्य युद्धमिति शेषः।। 5-146-110 आस्य समन्ततः क्षिप्त्वा।। 5-146-146 षट्चत्वारिंशदधिकचततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-145 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-147 |