महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-116
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सात्यकिना दुर्योधनकृतवर्मणोः पराजयः।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-116-1x |
`सात्वतस्य रणे कर्म दृष्ट्वा योद्धुं महारथाः। अमृष्यमाणाः संयत्ताः शैनेयं समुपाद्रवन्'।। | 5-116-1a 5-116-1b |
ते किरन्तः शरव्रातान्सर्वे यत्ताः प्रहारिणः। त्वरमाणा महाराज युयुधानमयोधयन्।। | 5-116-2a 5-116-2b |
तं द्रोणः सप्तसप्त्या जघान निशितैः शरैः। दुर्मर्षणो द्वादशभिर्दुःसहो दशभिः शरैः।। | 5-116-3a 5-116-3b |
विकर्णश्चापि निशितैस्त्रिंशद्भिः कङ्कपत्रिभिः। विव्याध मार्गणैस्तूर्णं वामपार्श्वे स्तनान्तरे।। | 5-116-4a 5-116-4b |
दुर्मुखो दशभिर्बाणैस्तथा दुःशासनोऽष्टभिः। चित्रसेनश्च शैनेयं द्वाभ्यां विव्याध मारिष।। | 5-116-5a 5-116-5b |
दुर्योधनश्च महता शरवर्षेण माधवम्। अपीडयद्रमे राजञ्शूराश्चान्ये महारथाः।। | 5-116-6a 5-116-6b |
सर्वतः प्रतिविद्धस्तु तव पुत्रैर्महारथैः। `स तुद्यमानश्च तदा सर्वतः कुरुपुङ्गवैः'।। | 5-116-7a 5-116-7b |
तान्प्रत्यविध्यद्वार्ष्णेयः पृथक्पृथगजिह्मगैः। `सात्यकिः पुण्डरीकाक्षो ह्यस्त्रेषु परिनिष्ठितः'।। | 5-116-8a 5-116-8b |
भारद्वाजं त्रिभिर्बाणैर्दुःसहं नवभिः शरैः। विकर्णं पञ्चविंशत्या चित्रसेनं च सप्तभिः।। | 5-116-9a 5-116-9b |
दुर्मर्षणं द्वादशभिरष्टाभिश्च विविंशतिम्। सत्यव्रतं च नवभिर्विजयं दशभिः शरैः।। | 5-116-10a 5-116-10b |
`दुर्योधनं त्रिभिर्विद्ध्वा सुपुङ्खैस्तिग्मतेजनैः'। ततो रुक्माङ्गदं चापं विधुन्वानो महारथः। अभ्ययात्सात्यकिस्तूर्णं पुत्रं तव महारथम्।। | 5-116-11a 5-116-11b 5-116-11c |
राजानं सर्वलोकस्य सर्वलोकमहारथम्। शरैरभ्यहनद्गाढं ततो युद्धमभूत्तयोः।। | 5-116-12a 5-116-12b |
विमुञ्चतौ शरांस्तीक्ष्णान्सन्दधानौ च सायकान्। अदृश्यं समरेऽन्योन्यं चक्रतुस्तौ महारथौ।। | 5-116-13a 5-116-13b |
सात्यकिः कुरुराजेन निर्विद्धो बह्वशोभत। अस्रवद्रुधिरं भूरि स्वरसं चन्दनो यथा।। | 5-116-14a 5-116-14b |
सात्वतेन च बाणौधैर्निर्विद्धस्तनयस्तव। शातकुम्भमयापीडो बभौ यूप इवोच्छ्रितः।। | 5-116-15a 5-116-15b |
माधवस्तु रमे राजन्कुरुराजस्य धन्विनः। धनुश्चिच्छेद समरे क्षुरप्रेण हसन्निव।। | 5-116-16a 5-116-16b |
अथैनं छिन्नधन्वानं शरैर्बहुभिराचिनोत्। निर्भिन्नश्च शरैस्तेन द्विषता क्षिप्रकारिणा। नामृष्यत रणे राजा शत्रोर्विजयलक्षणम्।। | 5-116-17a 5-116-17b 5-116-17c |
अथान्यद्धनुरादाय हेमपृष्ठं दुरासदम्। विव्याध सात्यकिं तूर्णं सायकानां शतेन ह।। | 5-116-18a 5-116-18b |
सोऽतिविद्धो बलवता तव पुत्रेण धन्विना। अमर्षवशमापन्नस्तव पुत्रमपीडयत्।। | 5-116-19a 5-116-19b |
पीडितं नृपतिं दृष्ट्वा तव पुत्रं महारथाः। सात्यकिं शरवर्षेण छादयामासुरोजसा।। | 5-116-20a 5-116-20b |
स च्छाद्यमानो बहुभिस्तव पुत्रैर्महारथैः। एकैकं पञ्चभिर्विद्ध्वा पुनर्विव्याध सप्तभिः। दुर्योधनं व त्वरितो विव्याधाष्टभिराशुगैः।। | 5-116-21a 5-116-21b 5-116-21c |
प्रहसंश्चास्य चिच्छेद कार्मुकं रिपुभीषणम्। नागं मणिमयं चैव शरैर्ध्वजमपातयत्।। | 5-116-22a 5-116-22b |
हत्वा तु चतुरो वाहांश्चतुर्भिर्निशितैः शरैः। सारथिं पातयामास क्षुरप्रेण महायशाः।। | 5-116-23a 5-116-23b |
एतस्मिन्नन्तरे चैव कुरुराजं महारथम्। अवारिकच्छरैर्हृष्टो बहुभिर्मर्मभेदिभिः।। | 5-116-24a 5-116-24b |
स विध्यमानः समरे शैनेयस्य शरोत्तमैः। प्राद्रवत्सहसा राजन्पुत्रो दुर्योधनस्तव। आप्लुतश्च ततो यानं चित्रसेनस्य धन्विनः।। | 5-116-25a 5-116-25b 5-116-25c |
हाहाभूतं जगच्चासीद्दृष्ट्वा राजानमाहवे। ग्रस्यमानं सात्यकिना खे मोममिव राहुणा।। | 5-116-26a 5-116-26b |
तं तु शब्दमथ श्रुत्वा कृतवार्मा महारथः। अभ्ययात्सहसा तत्र यत्रास्ते माधवः प्रभुः।। | 5-116-27a 5-116-27b |
विधुन्वानो धनुः श्रेष्ठं चोदयंश्चैव वाजिनः। भर्त्सयन्सारथिं चाग्रे याहियाहीति सत्वरम्।। | 5-116-28a 5-116-28b |
तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य व्यादितास्यमिवान्तकम्। युयुधानो महाराज यन्तारमिदमब्रवीत्।। | 5-116-29a 5-116-29b |
कृतवर्मा रथेनैष द्रुतमापतते शरी। प्रत्युद्याहि रथेनैनं प्रवरं सर्वधन्विनाम्।। | 5-116-30a 5-116-30b |
`प्रयाहि सत्वरं सूत रथेन रथसत्तमम्। निहनिष्यामि तं सङ्ख्ये वृष्णिवीरमरिन्दमम्'।। | 5-116-31a 5-116-31b |
ततः प्रजविताश्वेन रथेन रथिनांवरः। आससाद रणे भोजं प्रतिमानं धनुष्मताम्।। | 5-116-32a 5-116-32b |
ततो गभस्तिमत्प्रख्यौ ज्वलिताविव पावकौ। समेयातां नरव्याघ्रौ व्याघ्राविव तरस्विनौ।। | 5-116-33a 5-116-33b |
कृतवर्मा तु शैनेयं षड्विंशत्या समार्पयत्। निशितैः सायकैस्तीक्ष्णैर्यन्तारं चास्य पञ्चभिः।। | 5-116-34a 5-116-34b |
चतुरश्चतुरो वाहांश्चतुर्भिः परमेषुभिः। अविध्यत्साधुदान्तान्वै सैन्धवान्सात्वतस्य हि।। | 5-116-35a 5-116-35b |
रुक्मध्वजो रुक्मपृष्ठं महद्विष्फार्य कार्मुकम्। रुक्माङ्गदी रुक्मवर्मा रुक्मपुङ्खैरवारयत्।। | 5-116-36a 5-116-36b |
ततोऽशीतिं शिनेः पौत्रः सायकान्कृतवर्मणे। प्राहिणोत्त्वरया युक्तो द्रष्टुकामो धनञ्जयम्।। | 5-116-37a 5-116-37b |
सोऽतिविद्धो बलवता शत्रुणा शत्रुतापनः। समकम्पतः दुर्धर्षः क्षितिकम्पे यथाऽचलः।। | 5-116-38a 5-116-38b |
त्रिषष्ट्या चतुरोऽस्याश्वान्सप्तभिः सारथिं तथा। विव्याध निशितैस्तूर्णं सात्यकिः सत्यविक्रमः।। | 5-116-39a 5-116-39b |
`हताश्वसूते तु रथे स्थिताय शिनिपुङ्गवः'। सुवर्णपुङ्खं विशिखं समादाय च सात्यकिः। व्यसृजत्तं महाज्वालं सङ्क्रुद्धमिव पन्नगम्।। | 5-116-40a 5-116-40b 5-116-40c |
सोऽविध्यत्कृतवर्माणं यमदण्डोपमः शरः। जाम्बूनदविचित्रं च वर्म निर्भिद्य भानुमत्। अभ्यगाद्धरणीमुग्रो रुधिरेण समुक्षितः।। | 5-116-41a 5-116-41b 5-116-41c |
सञ्जातरुधिरश्चाजौ सात्वतेषुभिरर्दितः। सशरं धनुरुत्सृज्य न्यपतत्स्यन्दनोत्तमात्।। | 5-116-42a 5-116-42b |
स सिंहदंष्ट्रो जानुभ्यां पतितोऽमितविक्रमः। शरार्दितः सात्यकिना रथोपस्थे नरर्षभः।। | 5-116-43a 5-116-43b |
सहस्रबाहुसदृशमक्षोभ्यमिव सागरम्। निवार्य कृतवर्माणं सात्यकिः प्रययौ ततः।। | 5-116-44a 5-116-44b |
`न हि तस्य शरोऽपार्थः कथञ्चिदपि पार्थिव। दिदृक्षुः स हि वेगेन प्रायाद्यत्र धनञ्जयः।। | 5-116-45a 5-116-45b |
स शक्त्या क्षत्रियैस्तत्र निरुद्धो बलवत्तरः। युयुधे सात्वतो राजन्दिदृक्षुः पाण्डुनन्दनम्'।। | 5-116-46a 5-116-46b |
खङ्गशक्तिधनुःकीर्णां गजाश्वरथसङ्कुलाम्। प्रवर्तितोग्ररुधिरां शतशः क्षत्रियर्षभैः।। | 5-116-47a 5-116-47b |
प्रेक्षतां सर्वसैन्यानां मध्येन शिनिपुङ्गवः। अभ्यगाद्वाहिनीं हित्वा वृत्रहेवासुरीं चमूम्।। | 5-116-48a 5-116-48b |
समाश्वस्य च हार्दिक्यो गृह्य चान्यन्महद्धनुः। तस्थौ स तत्र बलवान्वारयन्युधि पाण्डवान्।। | 5-116-49a 5-116-49b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे पोडशाधिकशततमोऽध्यायः।। 116 ।। |
5-116-11 रुक्माङ्गदं चापि इति ङ.पाठः।। 5-116-14 चन्दनो रक्तचन्दनः।। 5-116-43 दंष्ट्राश्चतस्रो यस्य स्युर्दशनेभ्यः समुच्छ्रिताः। सिंहदंष्ट्रः स गदितश्चतुर्दंष्ट्रश्च सूरिभिः।। 5-116-116 षोडशाधिकशततमोऽध्यायः।।
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