महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-028
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भगदत्तार्जुनसमागमः।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-28-1x |
यियासतस्ततः कृष्णः पार्थस्याश्वान्मनोजवान्। सम्प्रैषीद्धेमसञ्छन्नान्द्रोणानीकाय सन्त्वरन्।। | 5-28-1a 5-28-1b |
तं प्रयान्तं कुरुश्रेष्ठं स्वांस्त्रातुं द्रोणतापितान्। सुशर्मा भ्रातृभिः सार्धं युद्धार्थी पृष्ठतोऽन्वयात्।। | 5-28-2a 5-28-2b |
ततः श्वेतहयः कृष्णमब्रवीदजितञ्जयः। एष मां भ्रातृभिः सार्धं सुशर्माऽऽह्वयतेऽच्युत।। | 5-28-3a 5-28-3b |
दीर्यते चोत्तरेणैव तत्सैन्यं मधुसूदन। द्वैधीभूतं मनो मेऽद्य कृतं संशप्तकैरिदम्।। | 5-28-4a 5-28-4b |
किन्नु संशप्तकान्हन्मि स्वान्रक्षाम्यहितार्दितान्। इति मे त्वं मतं वेत्सि तत्र किं सुकृतं भवेत्।। | 5-28-5a 5-28-5b |
एवमुक्तस्तु दाशार्हः स्यन्दनं प्रत्यवर्तयत्। येन त्रिगर्ताधिपतिः पाण्डवं समुपाह्वयत्।। | 5-28-6a 5-28-6b |
ततोऽर्जुनः सुशर्माणं विद्ध्वा सप्तभिराशुगैः। ध्वजं धनुश्चास्य तथा क्षुराभ्यां समकृन्तत।। | 5-28-7a 5-28-7b |
त्रिगर्ताधिपतेश्चापि भ्रातरं षङ्भिराशुगैः। साश्वं ससूतं त्वरितः पार्थः प्रैषीद्यमक्षयम्।। | 5-28-8a 5-28-8b |
ततो भुजगसङ्काशां सुशर्मा शक्तिमायसीम्। चिक्षेपार्जुनमादिश्य वासुदेवाय तोमरम्।। | 5-28-9a 5-28-9b |
शक्तिं त्रिभिः शरैश्छित्त्वा तोमरं त्रिभिरर्जुनः। सुशर्माणं शरव्रातैर्मोहयित्वा न्यवर्तयत्।। | 5-28-10a 5-28-10b |
तं वासवमिवायान्तं भूरिवर्षं शरौघिणम्। राजंस्तावकसैन्यानां नोग्रं कश्चिदवारयत्।। | 5-28-11a 5-28-11b |
ततो धनञ्जयो बाणैः सर्वानेव महारथान्। आयाद्विनिघ्नन्कौरव्यान्दहन्कक्षमिवानलः।। | 5-28-12a 5-28-12b |
तस्य वेगमसह्यं तं कुन्तीपुत्रस्य धीमतः। नाशक्नुवंस्ते संसोढुं स्पर्शमग्नेरिव प्रजाः।। | 5-28-13a 5-28-13b |
संवेष्टयन्ननीकानि शरवर्षेण पाण्डवः। सुपर्ण इव नागेन्द्रं प्रायात्प्राग्ज्योतिषं प्रति।। | 5-28-14a 5-28-14b |
यत्तदानामयज्जिष्णुर्भरतानामपापिनाम्। धनुः क्षेमकरं सङ्ख्ये द्विषतामश्रुवर्धनम्।। | 5-28-15a 5-28-15b |
तदेव तव पुत्रस्य राजन्दुर्द्यूतदेविनः। कृते क्षत्रविनाशाय धनुरायच्छदर्जुनः।। | 5-28-16a 5-28-16b |
तथा विक्षोभ्यमाणा सा पार्थेन तव वाहिनी। व्यशीर्यत महाराज नौरिवासाद्य पर्वतम्।। | 5-28-17a 5-28-17b |
ततो दशसहस्राणि न्यवर्तन्त धनुष्मताम्। मतिं कृत्वा रणे क्रूरां वीरा जयपराजये।। | 5-28-18a 5-28-18b |
व्यपेतहृदयत्रासा आवव्रुस्तं महारथाः। आर्च्छत्पार्थो गुरुं भारं सर्वभारसहो युधि।। | 5-28-19a 5-28-19b |
यथा नलवनं क्रुद्धः प्रभिन्नः षष्टिहायनः। मृद्गीयात्तद्वदायस्तः पार्थोऽमृद्गाच्चमूं तव।। | 5-28-20a 5-28-20b |
तस्मिन्प्रमथिते सैन्ये भगदत्तो नराधिपः। तेन नागेन सहसा धनञ्जयमुपाद्रवत्।। | 5-28-21a 5-28-21b |
तं रथेन नरव्याघ्रः प्रत्यगृह्णाद्धनञ्जयः। स सन्निपातस्तुमुलो बभूव नरनागयोः।। | 5-28-22a 5-28-22b |
कल्पिताभ्यां यथाशास्त्रं रथेन च गजेन च। सङ्ग्रामे चेरतुर्वीरौ भगदत्तधनञ्जयौ।। | 5-28-23a 5-28-23b |
ततो जीमूतसङ्काशान्नागादिन्द्र इव प्रभुः। अभ्यवर्षच्छरौघेण भगदत्तो धनञ्जयम्।। | 5-28-24a 5-28-24b |
स चापि शरवर्षं तं शरवर्षेण वासिवः। अप्राप्तमेव चिच्छेद भगदत्तस्य वीर्यवान्।। | 5-28-25a 5-28-25b |
ततः प्राग्ज्योतिषो राजा शरवर्षे निवारिते। संरक्तनयनो रोषात्पार्थं पुनरवाकिरत्।। | 5-28-26a 5-28-26b |
स तथा शरवर्षेण पार्थं समभिहत्य वै। चोदयामास तं नागं वधायाच्युतपार्थयोः।। | 5-28-27a 5-28-27b |
तमापतन्तं द्विरदं दृष्ट्वा क्रुद्धमिवान्तकम्। चक्रेऽपसव्यं त्वरितः स्यन्दनेन जनार्दनः।। | 5-28-28a 5-28-28b |
सम्प्राप्तमपि नेयेष परावृत्तं महाद्विपम्। सारोहं मृत्युसात्कर्तुं स्मरन्धर्मं धनञ्जयः।। | 5-28-29a 5-28-29b |
स तु नागो द्विपरथान्हयांश्चामृद्य मारिष। प्राहिणोन्मृत्युलोकाय ततः क्रुद्धो धनञ्जयः।। | 5-28-30a 5-28-30b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि द्वादशदिवसयुद्धे अष्टाविंशोऽध्यायः।। 28 ।। |
5-28-16 आयच्छद्गृहीतवान्। यदेवार्जुनस्य धनुर्भरतानां क्षेमकरमासीत्तदेव त्वत्पुत्रनिमित्तं क्षत्रक्षयकरमभवदिति वाक्यार्थः 5-28-28 अष्टाविंशोऽध्यायः।।
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