महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-104
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अर्जुनस्य भूरिश्रवःप्रभृतिभिरष्टभिर्युद्धम्।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-104-1x |
तावकास्त्वभिसम्प्रेक्ष्य वृष्ण्यन्धकरूद्वहौ। सत्वरास्तौ जिघांसन्तस्तथैव विजयः परान्।। | 5-104-1a 5-104-1b |
सुवर्णचित्रैर्वैयाघ्रैः स्वनवद्भिर्महारथैः। दीपयन्तो दिशः सर्वा ज्वलद्भिरिव पावकैः।। | 5-104-2a 5-104-2b |
रुक्मपुङ्खैश्च दुष्प्रेक्ष्यैः कार्मुकैः पृथिवीपते। कूजद्भिरतुलान्नादन्रोषितैरुरगैरिव।। | 5-104-3a 5-104-3b |
भूरिश्रवाः शलः कर्णो वृषसेनो जयद्रथः। कृपश्च मद्रराजश्च द्रोणिश्च रथिनां वरः।। | 5-104-4a 5-104-4b |
ते पिबन्त इवाकाशमश्वैरष्टौ महारथाः। व्यराजयन्दश दिशो वैयार्घ्रैर्हेमचन्द्रकैः।। | 5-104-5a 5-104-5b |
ते दंशिताः सुसंरब्धा रथैर्मेघौघनिःस्वनैः। समावृण्वन्दश दिशः पार्थस्य निशितैः शरैः।। | 5-104-6a 5-104-6b |
कौलूतका हयाश्चित्रा वहन्तस्तान्महारथान्। व्यशोभन्त तदा शीघ्रा दीपयन्तो दिशो दश।। | 5-104-7a 5-104-7b |
आजानेयैर्महावेगैर्नानादेशसमुत्थितैः। पार्वतीयैर्नदीजैश्च सैन्धवैश्च हयोत्तमैः।। | 5-104-8a 5-104-8b |
कुरुयोधवरा राजंस्तव पुत्रं परीप्सवः। धनञ्जयरथं शीघ्रं सर्वतः समुपाद्रवन्।। | 5-104-9a 5-104-9b |
ते प्रगृह्य महाशङ्खान्दध्मुः पुरुषसत्तमाः। पूरयन्तो दिवं राजन्पृथिवीं च ससागराम्।। | 5-104-10a 5-104-10b |
तथैव दध्मतुः शङ्खौ वासुदेवधनञ्जयौ। प्रवरौ सर्वदेवानां सर्वशङ्खवरौ भुवि।। | 5-104-11a 5-104-11b |
देवदत्तं च कौन्तेयः पाञ्चजन्यं च केशवः। शब्दस्तु देवदत्तस्य धनञ्जयसमीरितः।। | 5-104-12a 5-104-12b |
पृथिवीं चान्तरिक्षं च दिशश्चैव समावृणोत्। तथैव पाञ्चजन्योऽपि वासुदेवसमीरितः।। | 5-104-13a 5-104-13b |
सर्वशब्दानतिक्रम्य पूरयामास रोदसी। तस्मिंस्तथा वर्तमाने दारुणे नादसङ्कुले।। | 5-104-14a 5-104-14b |
भीरूणां त्रासजनने शूराणां हर्षवर्धने। प्रवादितासु भेरीषु झर्झरेष्वानकेषु च।। | 5-104-15a 5-104-15b |
मृदङ्गेष्वपि राजेन्द्र वाद्यमानेष्वेनकशः। महारथसमाख्याता दुर्योधनहितैषिणः।। | 5-104-16a 5-104-16b |
अमृष्यमाणास्तं शब्दं क्रुद्धाः परमधन्विनः। कर्णादयो महेष्वासास्त्वत्सैन्यपरिरक्षिणः।। | 5-104-17a 5-104-17b |
अमर्षिता महाशङ्खान्दध्मुर्वीरा महारथाः। कृते प्रतिकरिष्यन्तः केशवस्यार्जुनस्य च।। | 5-104-18a 5-104-18b |
बभूव तव तत्सैन्यं शङ्खशब्दे समीरिते। उद्विग्नरथनागाश्वमस्वस्थमिव चाभिभों।। | 5-104-19a 5-104-19b |
तत्प्रहृष्टजनाबाधं भेरीशङ्खनिनादितम्। बभूव भृशमुद्विग्नं निर्घातैरिव संवृतम्।। | 5-104-20a 5-104-20b |
स शब्दः सुमहान्राजन्दिशः सर्वा व्यनादयत्। त्रासयामास तत्सैन्यं युगान्त इव सम्भृतः।। | 5-104-21a 5-104-21b |
ततो दुर्योधनोऽष्टौ च राजानस्ते महारथाः। जयद्रथस्य रक्षार्थं पाण्डवं पर्यवारयन्।। | 5-104-22a 5-104-22b |
ततो द्रौणिस्त्रिसप्तत्या वासुदेवमताडयत्। अर्जुनं च त्रिभिर्भल्लैर्ध्वजमश्वांश्च पञ्चभिः।। | 5-104-23a 5-104-23b |
तमर्जुनः पृषत्कानां शतैः षङ्भिरताडयत्। अत्यर्थमिव सङ्क्रुद्धः प्रतिविद्धे जनार्दने।। | 5-104-24a 5-104-24b |
कर्णं च दशभिर्विद्ध्वा वृषसेनं त्रिभिस्तथा। शल्यस्य सशरं चापं मुष्टौ चिच्छेद वीर्यवान्।। | 5-104-25a 5-104-25b |
गृहीत्वा धनुरन्यत्तु शल्यो विव्याध पाण्डवम्। भूरिश्रवास्त्रिभिर्बाणैर्हेमपुङ्खैः शिलाशितैः।। | 5-104-26a 5-104-26b |
कर्णो द्वात्रिंशता चैव वृषसेनश्च सप्तभिः। जयद्रथस्त्रिसप्तत्या कृपश्च दशभिः शरैः। मद्राजश्च दशभिर्विव्यधुः फल्गुनं रणे।। | 5-104-27a 5-104-27b 5-104-27c |
ततः शराणां षष्ट्या तु द्रौणिः पार्थमवाकिरत्। वासुदेवं च विंशत्या पुनः पार्थं च पञ्चभिः।। | 5-104-28a 5-104-28b |
प्रहसंस्तु नरव्याघ्रः श्वेताश्वः कृष्णसारथिः। प्रत्यविध्यत्स तान्सर्वान्दर्शयन्पाणिलाघवम्।। | 5-104-29a 5-104-29b |
कर्णं द्वादशभिर्विद्व्वा वृषसेनं त्रिभिः शरैः। शल्यस्य सशरं चापं मुष्टिदेशे व्यकृन्तत।। | 5-104-30a 5-104-30b |
सौमदत्तिं त्रिभिर्विद्व्वा शल्यं च दशभिः शरैः। शितैरग्निशिखाकारैर्द्रौणिं विव्याध चाष्टभिः।। | 5-104-31a 5-104-31b |
गौतमं पञ्चविंशत्या सैन्धवं च शतेन ह। पुनर्द्रौणिं च सप्तत्या शराणां सोऽभ्यताडयत्।। | 5-104-32a 5-104-32b |
भूरिश्रवास्तु सङ्क्रुद्धः प्रतोदं चिच्छिदे हरेः। अर्जुनं च त्रिसप्तत्या बाणानामाजघान ह।। | 5-104-33a 5-104-33b |
ततः शरशतैस्तीक्ष्णैस्तानरीन्श्वेतवाहनः। प्रत्यषेधद्द्रुतं क्रुद्धो महावातो घनानिव।। | 5-104-34a 5-104-34b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे चतुरधिकशततमोऽध्यायः।। 104 ।। |
5-104-2 वैयाघ्रैर्व्याघ्रचर्मचित्रैः।। 5-104-7 कौलतकाः कुलूतदेशजाः पार्वतीयसमानलक्षणाः।। 5-104-8 आजानेयैः कुलीनैः। नदीजैर्नदीतीरजैः।। 5-104-104 चतुरधिकशततमोऽध्यायः।।
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