महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-178
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भीमालायुधयोर्युद्धम्।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-178-1x |
तमागतमभिप्रेक्ष्य भीमकर्माणमाहवे। हर्षमाहारयाञ्चक्रुः कुरवः सर्व एव ते।। | 5-178-1a 5-178-1b |
तथैव तव पुत्रास्ते दुर्योधनपुरोगमाः। अप्लुवाः प्लवमासाद्य तर्तुकामा इवार्णवम्।। | 5-178-2a 5-178-2b |
पुनर्जातमिवात्मानं मन्वानाः पुरुषर्षभाः। अलायुधं राक्षसेन्द्रं स्वागतेनाभ्यपूजयन्।। | 5-178-3a 5-178-3b |
तस्मिंस्त्वमानुषे युद्धे वर्तमाने महाभये। कर्णराक्षसयोर्नक्तं दारुणप्रतिदर्शने।। | 5-178-4a 5-178-4b |
`न द्रौणिर्न कृपद्रोणौ न शल्यो न च माधवः। एक एव तु तेनासीद्योद्धा कर्णो रणे वृषा'।। | 5-178-5a 5-178-5b |
उपप्रैक्षन्त पाञ्चालाः स्मयमानाः सराजकाः। व्यभ्रमंस्तावकाश्चापि घूर्णमानास्ततस्ततः।। | 5-178-6a 5-178-6b |
चुक्रुशुर्नेदमस्तीति द्रोणद्रौणिकृपादयः। तत्कर्म दृष्ट्वा सम्भ्रान्ता हैडिम्बस्य रणाजिरे।। | 5-178-7a 5-178-7b |
सर्वमाविग्नमभवद्धाहाभूतमचेतनम्। तव सैन्यं महाराज निराशं कर्णजीविते।। | 5-178-8a 5-178-8b |
दुर्योधनस्तु सम्प्रेक्ष्य कर्णमार्तिं परां गतम्। अलायुधं राक्षसेन्द्रं समाहूयेदमब्रवीत्।। | 5-178-9a 5-178-9b |
एष वैकर्तनः कर्णो हैडिम्बेन समागतः। कुरुते कर्म सुमहद्यदस्योपयिकं मृधे।। | 5-178-10a 5-178-10b |
पश्यैतान्पार्थिवाञ्शूरान्निहतान्भैमसेनिना। नानाशस्त्रैरभिहतान्पादपानिव दन्तिना।। | 5-178-11a 5-178-11b |
तवैष भारः समरे ज्ञातिमध्ये मया कृतः। तवैवानुमते वीर तं विक्रम्य निबर्हय।। | 5-178-12a 5-178-12b |
पुरा वैकर्तनं कर्णमेष पापो घटोत्कचः। मायाबलं समाश्रित्य कर्षयत्यरिकर्शन।। | 5-178-13a 5-178-13b |
एवमुक्तः स राज्ञा तु राक्षसो भीमविक्रमः। तथेत्युक्त्वा महाबाहुर्घटोत्कचमुपाद्रवत्।। | 5-178-14a 5-178-14b |
ततः कर्णं समुत्सृज्य भैमसेनिरपि प्रभो। प्रत्यमित्रमुपायान्तमर्दयामास मार्गणैः।। | 5-178-15a 5-178-15b |
तयोः समभवद्युद्धं क्रुद्धयो राक्षसेन्द्रयोः। मत्तयोर्वासिताहेतोर्दीपयोरिव कानने।। | 5-178-16a 5-178-16b |
रक्षसा विप्रमुक्तस्तु कर्णोऽपि रथिनां वरः। अभ्यद्रवद्भीमसेनं रथेनादित्यवर्चसा।। | 5-178-17a 5-178-17b |
तमायान्तमनादृत्य दृष्ट्वा ग्रस्तं घटोत्कचम्। अलायुधेन समरे सिंहेनेव गवां पतिम्।। | 5-178-18a 5-178-18b |
रथेनादित्यवपुषा भीमः प्रहरतां वरः। किरञ्छरौघान्प्रययावलायुधरथं प्रति।। | 5-178-19a 5-178-19b |
तमायान्तमभिप्रेक्ष्य स तदाऽलायुधः प्रभो। घटोत्कचं समुत्सृज्य भीमसेनं समाह्वयत्।। | 5-178-20a 5-178-20b |
तं भीमः सहसाऽभ्येत्य राक्षसान्तकरः प्रभो। सगणं राक्षसेन्द्रं तं शरवर्षैरवाकिरत्।। | 5-178-21a 5-178-21b |
तथैवालायुधो राजञ्शिलाधौतैरजिह्मगैः। अभ्यवर्षत कौन्तेयं पुनःपुनररिन्दम।। | 5-178-22a 5-178-22b |
तथा ते राक्षसाः सर्वे भीमसेनमुपाद्रवन्। नानाप्रहरणा भीमास्त्वत्सुतानां जयैषिणः।। | 5-178-23a 5-178-23b |
स ताड्यमानो बहुभिर्भीमसेनो महाबलः। पञ्चभिः पञ्चभिः सर्वांस्तानविध्यच्छितैः शरैः।। | 5-178-24a 5-178-24b |
ते वध्यमाना भीमेन राक्षसाः क्रूरबुद्धयः। विनेदुस्तुमुलान्नादान्दुद्रुवुस्ते दिशो दश।। | 5-178-25a 5-178-25b |
तांस्त्रास्यमानान्भीमेन दृष्ट्वा रक्षो मबहालम्। अभिदुद्राव वेगेन शरैश्चैनमवाकिरत्।। | 5-178-26a 5-178-26b |
तं भीमसेनः समरे तीक्ष्णाग्रैरक्षिणोच्छरैः।। | 5-178-27a |
अलायुधस्तु तानस्तान्भीमेन विशिखान्रणे। चिच्छेद कांश्चित्समरे त्वरया कांश्चिदग्रहीत्।। | 5-178-28a 5-178-28b |
स तं दृष्ट्वा राक्षसेन्द्रं भीमो भीमपराक्रमः। गदां चिक्षेप वेगेन वज्रपातोपमां तदा।। | 5-178-29a 5-178-29b |
तामापतन्तीं वेगेन गदां ज्वालाकुलां ततः। गदया ताडयामास सा गदा भीममाव्रजत्।। | 5-178-30a 5-178-30b |
स राक्षसेन्द्रं कौन्तेयः शरवर्षैरवाकिरत्। तानप्यस्याकरोन्मोघान्राक्षसो निशितैः शरैः।। | 5-178-31a 5-178-31b |
ते चापि राक्षसाः सर्वे रजन्यां भीमरूपिणः। शासनाद्राक्षसेन्द्रस्य निजघ्नू रथकुञ्जरान्।। | 5-178-32a 5-178-32b |
पाञ्चालाः सृञ्जयाश्चैव वाजिनः परमद्विपाः। न शान्तिं लेभिरे तत्र राक्षसैर्भृशपीडिताः।। | 5-178-33a 5-178-33b |
तं तु दृष्ट्वा महाघोरं वर्तमानं महाहवम्। अब्रवीत्पुण्डरीकाक्षो धनञ्जयमिदं वचः।। | 5-178-34a 5-178-34b |
पश्य भीमं महाबाहुं राक्षसेन्द्रवशं गतम्। पदमस्यानुगच्छ त्वं मा विचारय पाण्डव।। | 5-178-35a 5-178-35b |
धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च युधामन्यूत्तमौजसौ। सहितौ द्रौपदेयाश्च कर्णं यान्तु महारथाः।। | 5-178-36a 5-178-36b |
नकुलः सहदेवश्च युयुधानश्च वीर्यवान्। इतरान्राक्षसान्घ्नन्तु शासनात्तव पाण्डव।। | 5-178-37a 5-178-37b |
त्वमपीमां महाबाहो चमूं द्रोणपुरस्कृताम्। मारयस्व नरव्याघ्र महद्धि भयमागतम्।। | 5-178-38a 5-178-38b |
एवमुक्ते तु कृष्णेन यथोद्दिष्टा महारथाः। जग्मुर्वैकर्तनं कर्णं राक्षसांश्चैव तान्रणे।। | 5-178-39a 5-178-39b |
अथ पूर्णायतोत्सृष्टैः शरैराशीविषोपमैः। धनुश्चिच्छेद भीमस्य राक्षसेन्द्रः प्रतापवान्।। | 5-178-40a 5-178-40b |
हयांश्चास्य शितैर्बाणैः सारथिं च महाबलः। जघान मिषतः सङ्ख्ये भीमसेनस्य राक्षसः।। | 5-178-41a 5-178-41b |
सोऽवतीर्य रथोपस्थाद्धताश्वो हतसारथिः। तस्मै गुर्वीं गदां घोरां विनदन्नुत्ससर्ज ह।। | 5-178-42a 5-178-42b |
ततस्तां भीमनिर्घोषामापतन्तीं महागदाम्। गदया राक्षसो घोरो निजघान ननाद च।। | 5-178-43a 5-178-43b |
तद्दृष्ट्वा राक्षसेन्द्रस्य घोरं कर्म भयावहम्। भीमसेनः प्रहृष्टात्मा गदामाशु परामृशत्।। | 5-178-44a 5-178-44b |
तयोः समभवद्युद्धं तुमुलं नररक्षसोः। गदानिपातसंहादैर्भुवं कम्पयतोर्भृशम्।। | 5-178-45a 5-178-45b |
गदाविमुक्तौ तौ भूयः समासाद्येतरेतरम्। मुष्टिभिर्वज्रसंहादैरन्योन्यमभिजघ्नतुः।। | 5-178-46a 5-178-46b |
रथचक्रैर्युगैरक्षैरधिष्ठानैरुपस्करैः। यथासन्नमुपादाय निजघ्नतुरमर्षणौ।। | 5-178-47a 5-178-47b |
तौ विक्षरन्तौ रुधिरं समासाद्येतरेतरम्। मत्ताविव महानागौ चकृपाते पुनः पुनः।। | 5-178-48a 5-178-48b |
तावपश्यद्वृषीकेशः पाण्डवानां हिते रतः। स भीमसेनरक्षार्थं हैडिम्बिं पर्यचोदयत्।। | 5-178-49a 5-178-49b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे अष्टसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 178 ।। |
5-178-5 माधवः कृतवर्मा।। 5-178-7 इदमस्मत्सैन्यम्।। 5-178-178 अष्टसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-177 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-179 |