महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-014
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द्रोणयुद्धं द्वैरथयुद्धमभिमन्युपराक्रमश्च।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच।
ततः स पाण्डवानीके जनयन्सुमहद्भयम्।
व्यचरत्पृतनां द्रोणो दहन्कक्षमिवानलः।। 5-14-1a
निर्दहन्तमनीकानि साक्षादग्निमिवोत्थितम्।
दृष्ट्वा रुक्मरथं क्रुद्धं समकम्पन्त सृञ्जयाः।। 5-14-2a
सततं कृष्यतः सङ्ख्ये धनुषोऽस्याशुकारिणः।
ज्याघोषः शुश्रुवेऽत्यर्थं विस्फूर्जितमिवाशनेः।। 5-14-3a
रथिनः सादिनश्चैव नागानश्वान्पदातिनः।
रौद्रा हस्तवता मुक्ताः सम्मृद्गन्ति स्स सायकाः।। 5-14-4a
नानद्यमानः पर्जन्यः प्रवृद्धः शुचिसङ्क्षये।
अश्मवर्षमिवावर्षत्परेषामावहद्भयम्।। 5-14-5a
विचरन्स दिशः सर्वाः सेनां सङ्क्षोभयन्प्रभुः।
वर्धयामास सन्त्रासं शात्रवाणाममानुषम्।। 5-14-6a
तस्य विद्युदिवाभ्रेषु चापं हेमपरिष्कृतम्।
भ्राजमानं रथे तस्मिन्दृश्यते स्म महाभयम्।। 5-14-7a
स वीरः सत्यवान्प्राज्ञो धर्मनित्यः सदा पुनः।
युगान्तकालवद्धोरां रौद्रां प्रावर्तयन्नदीम्।। 5-14-8a
अमर्षवेगप्रभवां क्रव्यादगणसङ्कुलाम्।
बलौघैः सर्वतः पूर्णां ध्वजवृक्षापहारिणीम्।। 5-14-9a
शोणितोदां रथावर्तां हस्त्यश्वकृतरोधसम्।
कवचोडुपसंयुक्तां मांसपङ्कसमाकुलाम्।। 5-14-10a
मेदोमज्जास्थिसिकतामुष्मीषचयफेनिलाम्।।
सङ्ग्रामजलदापूर्णां प्रासमत्स्यसमाकुलाम्।। 5-14-11a
नरनागाश्वकलिलां शरवेगौघवाहिनीम्।
शरीरदारुसङ्घाटां रथकच्छपसङ्कुलाम्।। 5-14-12a
उत्तमाङ्गैः पङ्कजिनीं निस्त्रिंशझषसङ्कुलाम्।
रथनागहूदोपेतां नानाभारणभूषिताम्।। 5-14-13a
महारथशतावर्तां भूमिरेणूर्मिमालिनीम्।
महावीर्यवतां सङ्ख्ये सुतरां भीरुदुस्तराम्।। 5-14-14a
शरीरशतसम्बाधां गृध्रकङ्कनिषेविताम्।
महारथसहस्राणि नयन्तीं यमसादनम्।। 5-14-15a
शूलव्यालसमाकीर्णां प्राणिवाजिनिषेविताम्।
छिन्नक्षत्रमहाहंसां मुकुटाण्डजसेविताम्।। 5-14-16a
चक्रकूर्माङ्गदानक्रां शरक्षुद्रझषाकुलाम्।
बकगृध्रसृगालानां घोरसङ्घैर्निषेविताम्।। 5-14-17a
निहतान्प्राणिनः सङ्ख्ये द्रोणेन बलिना रणे।
वहन्तीं पितृलोकाय शतशो राजसत्तम।। 5-14-18a
शऱीरशतसम्बाधां केशशैवलशाद्वलाम्।
नदीं प्रावर्तयद्राजन्भीरूपणां भयवर्धिनीम्।। 5-14-19a
तर्जयन्तमनीकानि तानि तानि महारथम्।
सर्वतोऽभ्यद्रवन्द्रोणं युधिष्ठिरपुरोगमाः।। 5-14-20a
तानभिद्रवतः शूरांस्तावका दृढविक्रमाः।
सर्वतः प्रत्यगृह्णन्त तदभूद्रोमहर्षणम्।। 5-14-21a
शतमायस्तु शकुनिः सहदेवं समाद्रवत्।
सनियन्तृध्वजरथं विव्याघ निशितैः शरैः।। 5-14-22a
तस्य माद्रीसुतः केतुं धनुः सूतं हयानपि।
नातिक्रुद्धः शरैश्छित्त्वा षष्ठ्या विव्याध सौबलम्।
`भित्त्वा च शरवर्षेण शकुनिं प्रत्यवारयत्'।। 5-14-23a
गदां गृहीत्वा शकुनिः प्रचस्कन्द रथोत्तमात्।
स तस्य गदया राजन्रथात्सूतमपातयत्।। 5-14-24a
ततस्तौ विरथौ राजन्गदाहस्तौ महाबलौ।
चिक्रीडतू रणे शूरौ सशृङ्गाविव पर्वतौ।। 5-14-25a
द्रोणः पाञ्चालदायादं विव्याध निशितैः शरैः।
तयोस्तत्र महाराज बाणवर्षैः प्रकाशितम्।
खद्योतैरिव चाकाशं प्रदोषे पुरुषर्षभ।। 5-14-26a
विविंशतिं भीमसेनो विंशत्या निशितैः शरैः।
विद्ध्वा नाकम्पयद्वीरस्तदद्भुतमिवाभवत्।। 5-14-27a
विविंशतिस्तु सहसा व्यश्वकेतुशरासनम्।
भीमं चक्रे महाराज ततः सैन्यान्यपूजयन्।। 5-14-28a
स तन्न ममृषे वीरः शत्रोर्विक्रममाहवे।
ततोऽस्य गदया दान्तान्हयात्सर्वानपातयत्।। 5-14-29a
हताश्वात्स रथाद्राजन्गृह्य चर्म महाबलः।
अभ्ययाद्भीमसेनं तु मत्तो मत्तमिव द्विपम्।। 5-14-30a
शल्यस्तु नकुलं वीरः स्वस्रीयं प्रियमात्मनः।
विव्याध प्रहसन्बाणैर्लालयन्कोपयन्निव।। 5-14-31a
तस्याश्वानातपत्रं च ध्वजं सूतमथो धनुः।
निपात्य नकुलः सङ्ख्ये शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्।। 5-14-32a
धृष्टकेतुः कृपेणास्ताञ्छित्त्वा बहुविधाञ्छरान्।
कृपं विव्याध सप्तत्या ध्वजं चास्य त्रिभिः शरैः।। 5-14-33a
तं कृपः शरवर्षेण महता समवारयत्।
विव्याध च रणे विप्रो धृष्टकेतुममर्षणम्।। 5-14-34a
सात्यकिः कृतवर्माणं नाराचेन स्तनान्तरे।
विद्ध्वा विव्याध सप्तत्या पुनरन्यैः स्मयन्निव।। 5-14-35a
तं भोजः सप्तसप्तत्या विद्ध्वाऽऽशु निशितैः शरैः।
नाकम्पयत शैनेयं शीघ्रो वायुरिवाचलम्।। 5-14-36a
सेनापतिः सुशर्माणं भृशं मर्मस्वताडयत्।
स चापि तं तोमरेण जत्रुदेशेऽभ्यताडयत्।। 5-14-37a
वैकर्तनं तु समरे विराटः प्रत्यवारयत्।
सह मत्स्यैर्महावीर्यैस्तदद्भुतमिवाभवत्।। 5-14-38a
तत्पौरुषमभूत्तत्र सूतपुत्रस्य दारुणम्।
यत्सैन्यं वारयामास शरैः सन्नतपर्वभिः।। 5-14-39a
द्रुपदस्तु स्वयं राजा भगदत्तेन सङ्गतः।
तयोर्युद्धं महाराज चित्ररूपमिवाभवत्।। 5-14-40a
भगदत्तस्तु राजानं द्रुपदं नतपर्वभिः।
सनियन्तृध्वजरथं विव्याध पुरुषर्षभः।। 5-14-41a
द्रुपदस्तु ततः क्रुद्धो भगदत्तं महारथम्।
आजघानोरसि क्षिप्रं शरेणानतपर्वणा।। 5-14-42a
युद्धं योधवरौ लोके सौमदत्तिशिखण्डिनौ।
भूतानां त्रासजननं चक्रातेऽस्त्रविशारदौ।। 5-14-43a
भूरिश्रवा रणे राजन्याज्ञसेनिं महारथम्।
महता सायकौघेन च्छादयामास वीर्यवान्।। 5-14-44a
शिखण्डी तु ततः क्रुद्धः सौमदत्तिं विशाम्पते।
नवत्या सायकानां तु कम्पयामास भारत।। 5-14-45a
राक्षसौ रौद्रकर्माणौ हेडिम्बालम्बुसावुभौ।
चक्रातेऽत्युद्भुतं युद्धं परस्परजयैषिणौ।। 5-14-46a
मायाशतसृजौ दृप्तौ मायाभिरितरेतरम्।
अन्तर्हितौ चेरतुस्तौ भृशं विस्मयकारिणौ।। 5-14-47a
चेकितानोऽनुविन्देन युयुधे चातिभैरवम्।
यथा देवासुरे युद्धे बलशक्रौ महाबलौ।। 5-14-48a
लक्ष्मणः क्षत्रदेवेन विमर्दमकरोद्भृशम्।
यथा विष्णुः पुरा राजन्हिरण्याक्षेण संयुगे।। 5-14-49a
ततः प्रचलिताश्वेन विधिवत्कल्पितेन च।
रथेनाभ्यपतद्राजन्सौभद्रं पौरवो पौरवो नदन्।। 5-14-50a
ततोऽभ्ययात्स त्वरितो युद्धाकाङ्क्षी महाबलः।
तेन चक्रे महद्युद्धमभिमन्युररिन्दमः।। 5-14-51a
पौरवस्त्वथ सौभद्रं शरव्रातैरवाकिरत्।
तस्यार्जुनिर्ध्वजं छत्रं धनुश्चोर्व्यामपातयत्।। 5-14-52a
सौभद्रः पौरवं त्वन्यैर्विद्ध्वा सप्तभिराशुगैः।
पञ्चभिस्तस्य विव्याध हयान्सूनं च सायकैः।। 5-14-53a
ततः प्रहर्षयन्सेनां सिंहवद्विनदन्मुहुः।
समादत्तार्जुनिस्तूर्णं पौरवान्तकरं शरम्।। 5-14-54a
तं तु सन्धितमाज्ञाय सायकं घोरदर्शनम्।
द्वाभ्यां शराभ्यां हार्दिक्यश्चिच्छेद सशरं धनुः।। 5-14-55a
तदुत्सृज्य धनुश्छिन्नं सौभद्रः परवीरहा।
उद्बबर्ह सितं खङ्गमाददनाः शरावरम्।। 5-14-56a
स तेनानेकतारेण चर्मणा कृतहस्तवत्।
भ्रान्तासिना चरन्मार्गान्दर्शयन्वीर्यमात्मनः।। 5-14-57a
भ्रामितं पुनरुद्धान्तमाधूतं पुनरुत्थितम्।
चर्मनिस्त्रिंशयो राजन्निर्विशेषमदृश्यत।। 5-14-58a
स पौरवरथस्येषामाप्लुत्य सहसा नदन्।
पौरवं रथमास्थाय केशपक्षे परामृशत्।। 5-14-59a
जघानास्य पदा सूतमसिना पातयद्धृजम्।
विक्षोभ्याम्भोनिधिं तार्क्ष्यस्तं नागमिव चाक्षिपत्।। 5-14-60a
तमागलितकेशान्तं ददृशुः सर्वपार्थिवाः।
उक्षाणमिव सिंहेन पात्यमानमचेतसम्।। 5-14-61a
तमार्जुनिवशं प्राप्तं कृष्यमाणमनाथवत्।
पौरवं पातितं दृष्ट्वा नामृष्यत जयद्रूथः।। 5-14-62a
स बर्हिबर्हावततं किङ्किणीशतजालवत्।
चर्म चादाय खङ्गं च नदन्पर्यपतद्रथात्।। 5-14-63a
ततः सैन्धवमालोक्य कार्ष्णिरुत्सृज्य पौरवम्।
उत्पपात रथात्तूर्णं श्येनवन्निपपात च। 5-14-64a
प्रासपट्टिशनिस्त्रिंशाञ्छत्रुभिः सम्प्रचोदितान्।
चिच्छेद चासिना कार्ष्णिश्चर्मणा संरुरोध च।। 5-14-65a
स दर्शयित्वा सैन्यानां स्वबाहुबलमात्मनः।
तमुद्यम्य महाखङ्गं चर्म चाथ पुनर्बली।। 5-14-66a
वृद्धक्षत्रस्य दायादं पितुरत्यन्तवैरिणम्।
ससाराभिमुखः शूरः शार्दूल इव कुञ्जरम्।। 5-14-67a
तौ परस्परमासाद्य खह्गदन्तनखायुधौ।
हृष्टवत्सम्प्रजहाते व्याघ्रकेसरिणाविव।। 5-14-68a
सम्पातेष्वभिघातेषु निपातेष्वसिचर्मणोः।
न तयोरन्तरं कश्चिद्ददर्श नरसिंहयोः।। 5-14-69a
अवक्षेपोऽसिनिर्हादः शस्त्रान्तरनिदर्शनम्।
बाह्यान्तरनिपातश्च निर्विशेमदृश्यत।। 5-14-70a
बाह्यमाभ्यन्तरं चैव चरन्तौ मार्गमुत्तमम्।
ददृशाते महात्मानौ सपक्षाविव पर्वतौ।। 5-14-71a
ततो विक्षिपतः खङ्गं सौभद्रस्य यशस्विनः।
शरावरणपक्षान्ते प्रजहार जयद्रथः।। 5-14-72a
रुक्मपत्रान्तरे सक्तस्तस्मिंश्चर्मणि भास्वरे।
सिन्धुराजबलोद्धूतः सोऽभज्यत महानसिः।। 5-14-73a
भग्नमाज्ञाय निस्त्रिंशमवप्लुत्य पदानि षट्।
अदृश्यत निमेषेण स्वरथं पुनरास्थितः।। 5-14-74a
तं कार्ष्णिं समरान्मुक्तमास्थितं रथमुत्तमम्।
सहिताः सर्वराजानः परिवव्रुः समन्ततः।। 5-14-75a
ततश्चर्म च खङ्गं च समुत्क्षिप्य महाबलः।
ननादार्जुनदायादः प्रेक्षमाणो जयद्रथम्।। 5-14-76a
सिन्धुराजं परित्यज्य सौभद्रः परवीरहा।
तापयामास तत्सैन्यं भुवनं भास्करो यथा।। 5-14-77a
तस्य सर्वायसीं शक्तिं शल्यः कनकभूषणाम्।
चिक्षेप समरे घोरां दीप्तामग्निशिखामिव।। 5-14-78a
तामवप्लुत्य जग्राह विकोशं चाकरोदसिम्।
वैनतेयो यथा कार्ष्णिः पतन्तमुरगोत्तमम्।। 5-14-79a
तस्य लाषवमाज्ञाय सत्वं चामिततेजसः।
सहिताः सर्वराजानः सिंहनादमथानदन्।। 5-14-80a
ततस्तामेव शल्यस्य सौभद्रः परवीरहा।
मुमोच भुजवीर्येण वैदूर्यविकृतां शिताम्।। 5-14-81a
सा तस्य रथमासाद्य निर्मुक्तभुजगोपमा।
जघान सूतं शल्यस्य रथाच्चैनमपातयत्।। 5-14-82a
ततो विराटद्रुपदौ धृष्टकेतुर्युधिष्ठिरः।
सात्यकिः केकया भीमो धृष्टद्युम्नशिखण्डिनौ।। 5-14-83a
यमौ च द्रौपदेयाश्च साधुसाध्विति चुक्रुशुः।
बाणशब्दाश्च विविधाः सिंहनादाश्च पुष्कलाः।। 5-14-84a
प्रादुरासन्हर्षयन्तः सौभद्रमपलायिनम्।
तन्नामृष्यन्त पुत्रास्ते शत्रोर्विजयलक्षणम्।। 5-14-85a
अथैनं सहसा सर्वे समन्तान्निशितैः शरैः।
अभ्याकिरन्महाराज जलदा इव पर्वतम्।। 5-14-86a
तेषां च प्रियमन्विच्छन्सूतस्य च पराभवम्।
आर्तायनिरमित्रघ्नः क्रुद्धः सौभद्रमभ्ययात्।। 5-14-87a
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि एकादशदिवसयुद्धे चतुर्दशोऽध्यायः।। 14 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-14-1x |
ततः स पाण्डवानीके जनयन्सुमहद्भयम्। व्यचरत्पृतनां द्रोणो दहन्कक्षमिवानलः।। | 5-14-1a 5-14-1b |
निर्दहन्तमनीकानि साक्षादग्निमिवोत्थितम्। दृष्ट्वा रुक्मरथं क्रुद्धं समकम्पन्त सृञ्जयाः।। | 5-14-2a 5-14-2b |
सततं कृष्यतः सङ्ख्ये धनुषोऽस्याशुकारिणः। ज्याघोषः शुश्रुवेऽत्यर्थं विस्फूर्जितमिवाशनेः।। | 5-14-3a 5-14-3b |
रथिनः सादिनश्चैव नागानश्वान्पदातिनः। रौद्रा हस्तवता मुक्ताः सम्मृद्गन्ति स्स सायकाः।। | 5-14-4a 5-14-4b |
नानद्यमानः पर्जन्यः प्रवृद्धः शुचिसङ्क्षये। अश्मवर्षमिवावर्षत्परेषामावहद्भयम्।। | 5-14-5a 5-14-5b |
विचरन्स दिशः सर्वाः सेनां सङ्क्षोभयन्प्रभुः। वर्धयामास सन्त्रासं शात्रवाणाममानुषम्।। | 5-14-6a 5-14-6b |
तस्य विद्युदिवाभ्रेषु चापं हेमपरिष्कृतम्। भ्राजमानं रथे तस्मिन्दृश्यते स्म महाभयम्।। | 5-14-7a 5-14-7b |
स वीरः सत्यवान्प्राज्ञो धर्मनित्यः सदा पुनः। युगान्तकालवद्धोरां रौद्रां प्रावर्तयन्नदीम्।। | 5-14-8a 5-14-8b |
अमर्षवेगप्रभवां क्रव्यादगणसङ्कुलाम्। बलौघैः सर्वतः पूर्णां ध्वजवृक्षापहारिणीम्।। | 5-14-9a 5-14-9b |
शोणितोदां रथावर्तां हस्त्यश्वकृतरोधसम्। कवचोडुपसंयुक्तां मांसपङ्कसमाकुलाम्।। | 5-14-10a 5-14-10b |
मेदोमज्जास्थिसिकतामुष्मीषचयफेनिलाम्।। सङ्ग्रामजलदापूर्णां प्रासमत्स्यसमाकुलाम्।। | 5-14-11a 5-14-11b |
नरनागाश्वकलिलां शरवेगौघवाहिनीम्। शरीरदारुसङ्घाटां रथकच्छपसङ्कुलाम्।। | 5-14-12a 5-14-12b |
उत्तमाङ्गैः पङ्कजिनीं निस्त्रिंशझषसङ्कुलाम्। रथनागहूदोपेतां नानाभारणभूषिताम्।। | 5-14-13a 5-14-13b |
महारथशतावर्तां भूमिरेणूर्मिमालिनीम्। महावीर्यवतां सङ्ख्ये सुतरां भीरुदुस्तराम्।। | 5-14-14a 5-14-14b |
शरीरशतसम्बाधां गृध्रकङ्कनिषेविताम्। महारथसहस्राणि नयन्तीं यमसादनम्।। | 5-14-15a 5-14-15b |
शूलव्यालसमाकीर्णां प्राणिवाजिनिषेविताम्। छिन्नक्षत्रमहाहंसां मुकुटाण्डजसेविताम्।। | 5-14-16a 5-14-16b |
चक्रकूर्माङ्गदानक्रां शरक्षुद्रझषाकुलाम्। बकगृध्रसृगालानां घोरसङ्घैर्निषेविताम्।। | 5-14-17a 5-14-17b |
निहतान्प्राणिनः सङ्ख्ये द्रोणेन बलिना रणे। वहन्तीं पितृलोकाय शतशो राजसत्तम।। | 5-14-18a 5-14-18b |
शऱीरशतसम्बाधां केशशैवलशाद्वलाम्। नदीं प्रावर्तयद्राजन्भीरूपणां भयवर्धिनीम्।। | 5-14-19a 5-14-19b |
तर्जयन्तमनीकानि तानि तानि महारथम्। सर्वतोऽभ्यद्रवन्द्रोणं युधिष्ठिरपुरोगमाः।। | 5-14-20a 5-14-20b |
तानभिद्रवतः शूरांस्तावका दृढविक्रमाः। सर्वतः प्रत्यगृह्णन्त तदभूद्रोमहर्षणम्।। | 5-14-21a 5-14-21b |
शतमायस्तु शकुनिः सहदेवं समाद्रवत्। सनियन्तृध्वजरथं विव्याघ निशितैः शरैः।। | 5-14-22a 5-14-22b |
तस्य माद्रीसुतः केतुं धनुः सूतं हयानपि। नातिक्रुद्धः शरैश्छित्त्वा षष्ठ्या विव्याध सौबलम्। `भित्त्वा च शरवर्षेण शकुनिं प्रत्यवारयत्'।। | 5-14-23a 5-14-23b 5-14-23c |
गदां गृहीत्वा शकुनिः प्रचस्कन्द रथोत्तमात्। स तस्य गदया राजन्रथात्सूतमपातयत्।। | 5-14-24a 5-14-24b |
ततस्तौ विरथौ राजन्गदाहस्तौ महाबलौ। चिक्रीडतू रणे शूरौ सशृङ्गाविव पर्वतौ।। | 5-14-25a 5-14-25b |
द्रोणः पाञ्चालदायादं विव्याध निशितैः शरैः। तयोस्तत्र महाराज बाणवर्षैः प्रकाशितम्। खद्योतैरिव चाकाशं प्रदोषे पुरुषर्षभ।। | 5-14-26a 5-14-26b 5-14-26c |
विविंशतिं भीमसेनो विंशत्या निशितैः शरैः। विद्ध्वा नाकम्पयद्वीरस्तदद्भुतमिवाभवत्।। | 5-14-27a 5-14-27b |
विविंशतिस्तु सहसा व्यश्वकेतुशरासनम्। भीमं चक्रे महाराज ततः सैन्यान्यपूजयन्।। | 5-14-28a 5-14-28b |
स तन्न ममृषे वीरः शत्रोर्विक्रममाहवे। ततोऽस्य गदया दान्तान्हयात्सर्वानपातयत्।। | 5-14-29a 5-14-29b |
हताश्वात्स रथाद्राजन्गृह्य चर्म महाबलः। अभ्ययाद्भीमसेनं तु मत्तो मत्तमिव द्विपम्।। | 5-14-30a 5-14-30b |
शल्यस्तु नकुलं वीरः स्वस्रीयं प्रियमात्मनः। विव्याध प्रहसन्बाणैर्लालयन्कोपयन्निव।। | 5-14-31a 5-14-31b |
तस्याश्वानातपत्रं च ध्वजं सूतमथो धनुः। निपात्य नकुलः सङ्ख्ये शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्।। | 5-14-32a 5-14-32b |
धृष्टकेतुः कृपेणास्ताञ्छित्त्वा बहुविधाञ्छरान्। कृपं विव्याध सप्तत्या ध्वजं चास्य त्रिभिः शरैः।। | 5-14-33a 5-14-33b |
तं कृपः शरवर्षेण महता समवारयत्। विव्याध च रणे विप्रो धृष्टकेतुममर्षणम्।। | 5-14-34a 5-14-34b |
सात्यकिः कृतवर्माणं नाराचेन स्तनान्तरे। विद्ध्वा विव्याध सप्तत्या पुनरन्यैः स्मयन्निव।। | 5-14-35a 5-14-35b |
तं भोजः सप्तसप्तत्या विद्ध्वाऽऽशु निशितैः शरैः। नाकम्पयत शैनेयं शीघ्रो वायुरिवाचलम्।। | 5-14-36a 5-14-36b |
सेनापतिः सुशर्माणं भृशं मर्मस्वताडयत्। स चापि तं तोमरेण जत्रुदेशेऽभ्यताडयत्।। | 5-14-37a 5-14-37b |
वैकर्तनं तु समरे विराटः प्रत्यवारयत्। सह मत्स्यैर्महावीर्यैस्तदद्भुतमिवाभवत्।। | 5-14-38a 5-14-38b |
तत्पौरुषमभूत्तत्र सूतपुत्रस्य दारुणम्। यत्सैन्यं वारयामास शरैः सन्नतपर्वभिः।। | 5-14-39a 5-14-39b |
द्रुपदस्तु स्वयं राजा भगदत्तेन सङ्गतः। तयोर्युद्धं महाराज चित्ररूपमिवाभवत्।। | 5-14-40a 5-14-40b |
भगदत्तस्तु राजानं द्रुपदं नतपर्वभिः। सनियन्तृध्वजरथं विव्याध पुरुषर्षभः।। | 5-14-41a 5-14-41b |
द्रुपदस्तु ततः क्रुद्धो भगदत्तं महारथम्। आजघानोरसि क्षिप्रं शरेणानतपर्वणा।। | 5-14-42a 5-14-42b |
युद्धं योधवरौ लोके सौमदत्तिशिखण्डिनौ। भूतानां त्रासजननं चक्रातेऽस्त्रविशारदौ।। | 5-14-43a 5-14-43b |
भूरिश्रवा रणे राजन्याज्ञसेनिं महारथम्। महता सायकौघेन च्छादयामास वीर्यवान्।। | 5-14-44a 5-14-44b |
शिखण्डी तु ततः क्रुद्धः सौमदत्तिं विशाम्पते। नवत्या सायकानां तु कम्पयामास भारत।। | 5-14-45a 5-14-45b |
राक्षसौ रौद्रकर्माणौ हेडिम्बालम्बुसावुभौ। चक्रातेऽत्युद्भुतं युद्धं परस्परजयैषिणौ।। | 5-14-46a 5-14-46b |
मायाशतसृजौ दृप्तौ मायाभिरितरेतरम्। अन्तर्हितौ चेरतुस्तौ भृशं विस्मयकारिणौ।। | 5-14-47a 5-14-47b |
चेकितानोऽनुविन्देन युयुधे चातिभैरवम्। यथा देवासुरे युद्धे बलशक्रौ महाबलौ।। | 5-14-48a 5-14-48b |
लक्ष्मणः क्षत्रदेवेन विमर्दमकरोद्भृशम्। यथा विष्णुः पुरा राजन्हिरण्याक्षेण संयुगे।। | 5-14-49a 5-14-49b |
ततः प्रचलिताश्वेन विधिवत्कल्पितेन च। रथेनाभ्यपतद्राजन्सौभद्रं पौरवो पौरवो नदन्।। | 5-14-50a 5-14-50b |
ततोऽभ्ययात्स त्वरितो युद्धाकाङ्क्षी महाबलः। तेन चक्रे महद्युद्धमभिमन्युररिन्दमः।। | 5-14-51a 5-14-51b |
पौरवस्त्वथ सौभद्रं शरव्रातैरवाकिरत्। तस्यार्जुनिर्ध्वजं छत्रं धनुश्चोर्व्यामपातयत्।। | 5-14-52a 5-14-52b |
सौभद्रः पौरवं त्वन्यैर्विद्ध्वा सप्तभिराशुगैः। पञ्चभिस्तस्य विव्याध हयान्सूनं च सायकैः।। | 5-14-53a 5-14-53b |
ततः प्रहर्षयन्सेनां सिंहवद्विनदन्मुहुः। समादत्तार्जुनिस्तूर्णं पौरवान्तकरं शरम्।। | 5-14-54a 5-14-54b |
तं तु सन्धितमाज्ञाय सायकं घोरदर्शनम्। द्वाभ्यां शराभ्यां हार्दिक्यश्चिच्छेद सशरं धनुः।। | 5-14-55a 5-14-55b |
तदुत्सृज्य धनुश्छिन्नं सौभद्रः परवीरहा। उद्बबर्ह सितं खङ्गमाददनाः शरावरम्।। | 5-14-56a 5-14-56b |
स तेनानेकतारेण चर्मणा कृतहस्तवत्। भ्रान्तासिना चरन्मार्गान्दर्शयन्वीर्यमात्मनः।। | 5-14-57a 5-14-57b |
भ्रामितं पुनरुद्धान्तमाधूतं पुनरुत्थितम्। चर्मनिस्त्रिंशयो राजन्निर्विशेषमदृश्यत।। | 5-14-58a 5-14-58b |
स पौरवरथस्येषामाप्लुत्य सहसा नदन्। पौरवं रथमास्थाय केशपक्षे परामृशत्।। | 5-14-59a 5-14-59b |
जघानास्य पदा सूतमसिना पातयद्धृजम्। विक्षोभ्याम्भोनिधिं तार्क्ष्यस्तं नागमिव चाक्षिपत्।। | 5-14-60a 5-14-60b |
तमागलितकेशान्तं ददृशुः सर्वपार्थिवाः। उक्षाणमिव सिंहेन पात्यमानमचेतसम्।। | 5-14-61a 5-14-61b |
तमार्जुनिवशं प्राप्तं कृष्यमाणमनाथवत्। पौरवं पातितं दृष्ट्वा नामृष्यत जयद्रूथः।। | 5-14-62a 5-14-62b |
स बर्हिबर्हावततं किङ्किणीशतजालवत्। चर्म चादाय खङ्गं च नदन्पर्यपतद्रथात्।। | 5-14-63a 5-14-63b |
ततः सैन्धवमालोक्य कार्ष्णिरुत्सृज्य पौरवम्। उत्पपात रथात्तूर्णं श्येनवन्निपपात च। | 5-14-64a 5-14-64b |
प्रासपट्टिशनिस्त्रिंशाञ्छत्रुभिः सम्प्रचोदितान्। चिच्छेद चासिना कार्ष्णिश्चर्मणा संरुरोध च।। | 5-14-65a 5-14-65b |
स दर्शयित्वा सैन्यानां स्वबाहुबलमात्मनः। तमुद्यम्य महाखङ्गं चर्म चाथ पुनर्बली।। | 5-14-66a 5-14-66b |
वृद्धक्षत्रस्य दायादं पितुरत्यन्तवैरिणम्। ससाराभिमुखः शूरः शार्दूल इव कुञ्जरम्।। | 5-14-67a 5-14-67b |
तौ परस्परमासाद्य खह्गदन्तनखायुधौ। हृष्टवत्सम्प्रजहाते व्याघ्रकेसरिणाविव।। | 5-14-68a 5-14-68b |
सम्पातेष्वभिघातेषु निपातेष्वसिचर्मणोः। न तयोरन्तरं कश्चिद्ददर्श नरसिंहयोः।। | 5-14-69a 5-14-69b |
अवक्षेपोऽसिनिर्हादः शस्त्रान्तरनिदर्शनम्। बाह्यान्तरनिपातश्च निर्विशेमदृश्यत।। | 5-14-70a 5-14-70b |
बाह्यमाभ्यन्तरं चैव चरन्तौ मार्गमुत्तमम्। ददृशाते महात्मानौ सपक्षाविव पर्वतौ।। | 5-14-71a 5-14-71b |
ततो विक्षिपतः खङ्गं सौभद्रस्य यशस्विनः। शरावरणपक्षान्ते प्रजहार जयद्रथः।। | 5-14-72a 5-14-72b |
रुक्मपत्रान्तरे सक्तस्तस्मिंश्चर्मणि भास्वरे। सिन्धुराजबलोद्धूतः सोऽभज्यत महानसिः।। | 5-14-73a 5-14-73b |
भग्नमाज्ञाय निस्त्रिंशमवप्लुत्य पदानि षट्। अदृश्यत निमेषेण स्वरथं पुनरास्थितः।। | 5-14-74a 5-14-74b |
तं कार्ष्णिं समरान्मुक्तमास्थितं रथमुत्तमम्। सहिताः सर्वराजानः परिवव्रुः समन्ततः।। | 5-14-75a 5-14-75b |
ततश्चर्म च खङ्गं च समुत्क्षिप्य महाबलः। ननादार्जुनदायादः प्रेक्षमाणो जयद्रथम्।। | 5-14-76a 5-14-76b |
सिन्धुराजं परित्यज्य सौभद्रः परवीरहा। तापयामास तत्सैन्यं भुवनं भास्करो यथा।। | 5-14-77a 5-14-77b |
तस्य सर्वायसीं शक्तिं शल्यः कनकभूषणाम्। चिक्षेप समरे घोरां दीप्तामग्निशिखामिव।। | 5-14-78a 5-14-78b |
तामवप्लुत्य जग्राह विकोशं चाकरोदसिम्। वैनतेयो यथा कार्ष्णिः पतन्तमुरगोत्तमम्।। | 5-14-79a 5-14-79b |
तस्य लाषवमाज्ञाय सत्वं चामिततेजसः। सहिताः सर्वराजानः सिंहनादमथानदन्।। | 5-14-80a 5-14-80b |
ततस्तामेव शल्यस्य सौभद्रः परवीरहा। मुमोच भुजवीर्येण वैदूर्यविकृतां शिताम्।। | 5-14-81a 5-14-81b |
सा तस्य रथमासाद्य निर्मुक्तभुजगोपमा। जघान सूतं शल्यस्य रथाच्चैनमपातयत्।। | 5-14-82a 5-14-82b |
ततो विराटद्रुपदौ धृष्टकेतुर्युधिष्ठिरः। सात्यकिः केकया भीमो धृष्टद्युम्नशिखण्डिनौ।। | 5-14-83a 5-14-83b |
यमौ च द्रौपदेयाश्च साधुसाध्विति चुक्रुशुः। बाणशब्दाश्च विविधाः सिंहनादाश्च पुष्कलाः।। | 5-14-84a 5-14-84b |
प्रादुरासन्हर्षयन्तः सौभद्रमपलायिनम्। तन्नामृष्यन्त पुत्रास्ते शत्रोर्विजयलक्षणम्।। | 5-14-85a 5-14-85b |
अथैनं सहसा सर्वे समन्तान्निशितैः शरैः। अभ्याकिरन्महाराज जलदा इव पर्वतम्।। | 5-14-86a 5-14-86b |
तेषां च प्रियमन्विच्छन्सूतस्य च पराभवम्। आर्तायनिरमित्रघ्नः क्रुद्धः सौभद्रमभ्ययात्।। | 5-14-87a 5-14-87b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि एकादशदिवसयुद्धे चतुर्दशोऽध्यायः।। 14 ।। |
5-14-5 शुचिसङ्क्षये ग्रीष्मान्ते।। 5-14-16 प्राणिन एव वाजिनः पक्षिणः।। 5-14-87 पराभवं प्रेक्ष्येति शेषः।। 5-14-14 चतुर्दशोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-013 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-015 |