महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-077
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श्रीकृष्णेन सुभद्रासमाश्वासनम्।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-77-1x |
तां निशां दुःखशोकार्तौ निःश्वसन्ताविवोरगौ। निद्रां नैवोपलेभाते वासुदेवधनञ्जयौ।। | 5-77-1a 5-77-1b |
नरनारायणौ क्रुद्धौ ज्ञात्वा देवाः सवासवाः। व्यथिताश्चिन्तयामासुः किंस्विदेतद्भविष्यति।। | 5-77-2a 5-77-2b |
ववुश्च दारुणा वाता रूक्षा घोराभिशंसिनः। सकबन्धस्तथाऽऽदित्ये परिघः समदृश्यत।। | 5-77-3a 5-77-3b |
शुष्काशन्यश्च निष्पेतुः सनिर्घाताः सविद्युतः। चचाल चापि पृथिवी सशैलवनकानना।। | 5-77-4a 5-77-4b |
चुक्षुभुश्च महाराज सागारा मकरालयाः। प्रतिस्रोतःप्रवृत्ताश्च तथा गन्तुं समुद्रगाः।। | 5-77-5a 5-77-5b |
रथाश्वनरनागानां प्रवृत्तमधरोत्तरम्। क्रव्यादानां प्रमोदार्थं यमराष्ट्रविवृद्धये।। | 5-77-6a 5-77-6b |
वाहनानि शकृन्मूत्रे मुमुचू रुरुदुश्च ह। तान्दृष्ट्वा दारुणान्सर्वानुत्पाताँल्लोमहर्षणान्।। | 5-77-7a 5-77-7b |
सर्वे ते व्यथिताः सैन्यास्त्वदीया भरतर्षभा। श्रुत्वा महाबलस्योग्रां प्रतिज्ञां सव्यसाचिनः।। | 5-77-8a 5-77-8b |
अथ कृष्णं महाबाहुरब्रवीत्पाकशासनिः। आश्वासय सुभद्रां त्वं भगिनीं स्नुषया सह।। | 5-77-9a 5-77-9b |
स्नुषां चास्या वयस्याश्च विशोकाः कुरु माधव। साम्ना सत्येन युक्तेन वचसाऽऽश्वासय प्रभो।। | 5-77-10a 5-77-10b |
ततोऽर्जुनगृहं गत्वा वासुदेवः सुदुर्मनाः। भगिनीं पुत्रशोकार्तामाश्वासयत दुःखिताम्।। | 5-77-11a 5-77-11b |
वासुदेव उवाच। | 5-77-12x |
मा शोकं कुरु वार्ष्णेयि कुमारं प्रति सस्नुषा। सर्वेषां प्राणिनां भीरु निष्ठैषा कालनिर्मिता।। | 5-77-12a 5-77-12b |
कुले जातस्य वीरस्य क्षत्रियस्य विशेषतः। सदृशं मरणं ह्येतत्तव पुत्रस्य मा शुचः।। | 5-77-13a 5-77-13b |
दिष्ट्या महारथो धीरः पितुस्तुल्यपराक्रमः। क्षात्रेण विधिना प्राप्तो वीराभिलषितां गतिम्।। | 5-77-14a 5-77-14b |
जित्वा सुबहुशः शत्रून्प्रेषयित्वा च मृत्यवे। गतः पुण्यकृतां लोकान्सर्वकामदुहोऽक्षयान्।। | 5-77-15a 5-77-15b |
तपसा ब्रह्मचर्येण श्रुतेन प्रज्ञयापि च। सन्तो यां गतिमिच्छन्ति तां प्राप्तस्तव पुत्रकः।। | 5-77-16a 5-77-16b |
वीरसूर्वीरपत्नी त्वं वीरजा वीरबान्धवा। मा शुचस्तनयं भद्रे गतःस परमां गतिम्।। | 5-77-17a 5-77-17b |
शूरं सूते त्वद्विधा राजपुत्री'।। | 5-77-18e |
प्राप्स्यते चाप्यसौ पापः सैन्धवो बालघातकः। अधर्मस्यास्य तु फलं ससुहृद्गणबान्धवः।। | 5-77-19a 5-77-19b |
व्युष्टायां तु वरारोहे रजन्यां पापकर्मकृत्। न हि मोक्ष्यति पार्थात्स प्रविष्टोऽप्यमरावतीम्।। | 5-77-20a 5-77-20b |
श्वः शिरः पादमूलं ते सैन्धवस्याहृतं ध्रुवम्। पद्ध्यां प्रमथितासि त्वं विशोका भव मा रुदः।। | 5-77-21a 5-77-21b |
क्षत्रधर्मं पुरस्कृत्य गतः शूरः सतां गतिम्। वयं च प्राप्नुयामेह ये चान्ये शस्त्रजीविनः।। | 5-77-22a 5-77-22b |
व्यूढोरस्को महाबाहुरनिवर्ती रिपुव्रजात्। गतस्तव वरारोहे पुत्रः स्वर्गं ज्वरं जहि।। | 5-77-23a 5-77-23b |
अनुयातश्च पितरं मातृपक्षं च वीर्यवान्। सहस्रशो रिपून्हत्वा हतः शूरो महारथः।। | 5-77-24a 5-77-24b |
आश्वासय स्नुषां राज्ञि मा शुचः क्षत्रिये भृशम्। श्वः प्रियं सुमहच्छ्रुत्वा विशोका भव नन्दिनि।। | 5-77-25a 5-77-25b |
यत्पार्थेन प्रतिज्ञातं तत्तथा न तदन्यथा। चिकीर्षितं हि ते भर्तुर्न भवेज्जातु निष्फलम्।। | 5-77-26a 5-77-26b |
यदि च मनुजपन्नगाः पिशाचा रजनिचचाराः पतगाः सुरासुराश्च। रणगतमभियान्ति सिन्धुराजं न स भविता सह तैरपि प्रभाते।। | 5-77-27a 5-77-27b 5-77-27c 5-77-27d |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि सप्तसप्ततितमोऽध्यायः।। 77 ।। |
5-77-27 अभियान्ति रक्षिष्यन्ति।। 5-77-77 सप्तसप्ततितमोऽध्यायः।।
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