महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-172
← द्रोणपर्व-171 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-172 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-173 → |
सङ्कुलयुद्धम्।। 1 ।। धृष्टद्युम्नादीनां हर्षात्सिंहनादः।। 2 ।।
|
सञ्जय उवाच। | 5-172-1x |
ततस्ते प्राद्रवन्सर्वे त्वरिता युद्धदुर्मदाः। अमृष्यमाणाः संरब्धा युयुधानरथं प्रति।। | 5-172-1a 5-172-1b |
ते रथैः कल्पितै राजन्हेमरूप्यविभूषितैः। सादिभिश्च गजैश्चैव परिवव्रुः समन्ततः।। | 5-172-2a 5-172-2b |
अथैनं कोष्ठकीकृत्य सर्वतस्ते महारथाः। सिंहनादांस्ततश्चक्रुस्तर्जयन्ति स्म सात्यकिम्।। | 5-172-3a 5-172-3b |
तेऽभ्यवर्षञ्छरैस्तीक्ष्णैः सात्यकिं सत्यविक्रमम्। त्वरमाणा महावीरा माधवस्य वधैषिणः।। | 5-172-4a 5-172-4b |
तान्दृष्ट्वा पततस्तूर्णं शैनेयः परवीरहा। प्रत्यगृह्णान्महाबाहुः प्रमुञ्चन्विशिखान्बहून्।। | 5-172-5a 5-172-5b |
तत्र वीरो महेष्वासः सात्यकिर्युद्धदुर्मदः। निचकर्त शिरांस्युग्रैः शरैः सन्नतपर्वभिः।। | 5-172-6a 5-172-6b |
हस्तिहस्तान्हयग्रीवा बाहूनपि च सायुधान्। क्षुरप्रैः शातयामास तावकानां स माधवः।। | 5-172-7a 5-172-7b |
पतितैश्चामरैश्चैव श्वेतच्छत्रैश्च भारत। बभूव धरणी पूर्णा नक्षत्रैर्द्यौरिव प्रभो।। | 5-172-8a 5-172-8b |
एतेषां युयुधानेन युध्यतां युधि भारत। बभूव तुमुलः शब्दः प्रेतानां क्रन्दतामिव।। | 5-172-9a 5-172-9b |
तेन शब्देन महता पूरिताऽभूद्वसुन्धरा। रात्रिः समभवच्चैव तीव्ररूपा भयावहा।। | 5-172-10a 5-172-10b |
दीर्यमाणं बलं दृष्ट्वा युयुधानशराहतम्। श्रुत्वा च विपुलं नादं निशीथे रोमहर्षणे।। | 5-172-11a 5-172-11b |
सुतस्तवाब्रवीद्राजन्सारथिंरथिनां वरः। यत्रैष शब्दस्तत्राश्वांश्चोदयेति पुनःपुनः।। | 5-172-12a 5-172-12b |
तेन सञ्चोद्यमानस्तु ततस्तांस्तुरगोत्तमान्। सूतः सञ्चोदयामास युयुधानरथं प्रति।। | 5-172-13a 5-172-13b |
ततो दुर्योधनः क्रुद्धो दृढधन्वा जितक्लमः। शीघ्रहस्तश्चित्रयोधी युयुधानमुपाद्रवत्।। | 5-172-14a 5-172-14b |
ततः पूर्णायतोत्सृष्टैः शरैः शोणितभोजनैः। दुर्योधनं द्वादशभिर्माधवः प्रत्यविध्यत।। | 5-172-15a 5-172-15b |
दुर्योधनस्तेन तथा पूर्वमेवार्दितः शरैः। शैनेयं दशभिर्बाणैः प्रत्यविध्यदमर्षितः।। | 5-172-16a 5-172-16b |
ततः समभवद्युद्धं तुमुलं भरतर्षभ। पाञ्चालानां च सर्वेषां भरतानां च दारुणम्।। | 5-172-17a 5-172-17b |
शैनेयस्तु रणे क्रुद्धस्तव पुत्रं महारथम्। सायकानामशीत्या तु विव्याधोरसि भारत।। | 5-172-18a 5-172-18b |
ततोऽस्य वाहान्समरे शरैर्निन्ये यमक्षयम्। सारथिं च रथात्तूर्णं पातयामास पत्रिणा।। | 5-172-19a 5-172-19b |
हताश्वे तु रथेऽतिष्ठन्पुत्रस्तव विशाम्पते। मुमोच निशितान्बाणाञ्शैनेयस्य रथं प्रति।। | 5-172-20a 5-172-20b |
शरान्पञ्छसतांस्तस्मै शैनेयः कृतहस्तवत्। चिच्छेद समरे राजन्प्रेषितांस्तनयेन ते।। | 5-172-21a 5-172-21b |
अथापरेण भल्लेन मुष्टिदेशे महद्धनुः। चिच्छेद तरसा युद्धे तव पुत्रस्य माधव।। | 5-172-22a 5-172-22b |
विरथो विधनुष्कश्च सर्वलोकेश्वरः प्रभुः। आरुरोह रथं तूर्णं भास्वरं कृतवर्मणः।। | 5-172-23a 5-172-23b |
दुर्योधने परावृत्ते शैनेयस्तव वाहिनीम्। द्रावयामास विशिखैर्निशामध्ये विशाम्पते।। | 5-172-24a 5-172-24b |
शकुनिश्चार्जुनं राजन्परिवार्य समन्ततः। रथैरनेकसाहस्रैर्गजैश्चापि सहस्रशः। तथा हयसहस्रैश्च नानाशस्त्रैरवाकिरत्।। | 5-172-25a 5-172-25b 5-172-25c |
ते महास्त्राणि सर्वाणि विकिरन्तोऽर्जुनं प्रति। अर्जुनं योधयन्ति स्म क्षत्रियाः कालचोदिताः।। | 5-172-26a 5-172-26b |
तान्यर्जुनः सहस्राणि रथवारणवाजिनाम्। प्रत्यवारयदायस्तः प्रकुर्वन्विपुलं क्षयम्।। | 5-172-27a 5-172-27b |
ततस्तु समरे शूरः शकुनिः सौबलस्तदा। विव्याध निशितैर्बाणैरर्जुनं प्रहसन्निव।। | 5-172-28a 5-172-28b |
पुनश्चैव शतेनास्य संरुरोध महारथम्।। | 5-172-29a |
तमर्जुनस्तु विंशत्या विव्याध युधि भारत। अथेतरान्महेष्वासांस्त्रिभिस्त्रिभिरविध्यत।। | 5-172-30a 5-172-30b |
निवार्य तान्बाणगणैर्युधि राजन्धनञ्जयः। जघान तावकान्योधान्वज्रपाणिरिवासुरान्।। | 5-172-31a 5-172-31b |
भुजैश्छिन्नैर्महीपाल हस्तिहस्तोपमैर्मृधे। समाकीर्णा मही भाति पञ्चास्यैरिव पन्नगैः।। | 5-172-32a 5-172-32b |
शिरोभिः सकिरीटैश्च सुनसैश्चारुकुण्डलैः। सन्दष्टौष्ठपुटैः क्रुद्धैस्तथैवोद्वृत्तलोचनैः।। | 5-172-33a 5-172-33b |
निष्कचूडामणिधरैः क्षत्रियाणां पियंवदैः। पङ्कजैरिव विन्यस्तैः पर्वतैर्विबभौ मही।। | 5-172-34a 5-172-34b |
कृत्वा तत्कर्म बीभत्सुरुग्रमुग्रपराक्रमः। विव्याध शकुनिं भूयः पञ्चभिर्नतपर्वभिः।। | 5-172-35a 5-172-35b |
अताडयदुलूकं च त्रिभिरेव तथा शरैः। उलूकं पुनराजघ्ने त्रिभिरेव महायशाः।। | 5-172-36a 5-172-36b |
स तु तेन समाविद्ध क्रोधाद्द्विगुणविक्रमः। शरैरनेकसाहस्रैः सोऽर्जुनं प्रत्यविध्यत।। | 5-172-37a 5-172-37b |
तमुलूकस्तथा विद्धा वासुदेवमताडयत्। ननाद च महानादं पूरयन्निव मेदिनीम्।। | 5-172-38a 5-172-38b |
अर्जुनः शकुनेश्चापं सायकैरच्छिनद्रणे। निन्ये च चतुरो वाहान्यमस्य सदनं प्रति।। | 5-172-39a 5-172-39b |
ततो रथादवप्लुत्य सौबलो भरतर्षभ। उलूकस्य रथं तूर्णमारुरोह विशाम्पते।। | 5-172-40a 5-172-40b |
तावेकरथमारूढौ पितापुत्रौ महारथौ। पार्थं सिषिचतुर्बाणैर्गिरिं मेघाविवाम्बुभिः।। | 5-172-41a 5-172-41b |
तौ तु विद्धा महाराज पाण्डवो निशितैः शरैः। विद्रावयंस्तव चमूं शतशो व्यधमच्छरैः।। | 5-172-42a 5-172-42b |
अनिलेन यथाऽभ्राणि विच्छिन्नानि समन्ततः। विच्छिन्नानि तथा राजन्बलान्यासन्विशाम्पते।। | 5-172-43a 5-172-43b |
तद्बलं भरतश्चेष्ठ वध्यमानं तदा निशि। प्रदुद्राव दिशः सर्वा वीक्षमाणं भयार्दितम्।। | 5-172-44a 5-172-44b |
उत्सृज्य वाहान्समरे चोदयन्तस्तथाऽपरे। सम्भ्रान्ताः पर्यधावन्त तस्मिंस्तमसि दारुणे।। | 5-172-45a 5-172-45b |
विजित्य समरे योधांस्तावकान्भरतर्षभ। दध्मतुर्मुदितौ शङ्खौ वासुदेवधनञ्जयौ।। | 5-172-46a 5-172-46b |
धृष्टद्युम्नो महाराज द्रोणं विद्धा त्रिभिः शरैः। चिच्छेद धनुषस्तूर्णं ज्यां शरेण शितेन ह।। | 5-172-47a 5-172-47b |
तन्निधाय धनुर्भूमौ द्रोणः क्षत्रियमर्दनः। आददेऽन्यद्धनुः शूरो वेगवत्सारवत्तरम्।। | 5-172-48a 5-172-48b |
धृष्टद्युम्नं ततो द्रोणो विद्धा सप्तभिराशुगैः। सारथिं पञ्चभिर्बाणै राजन्विव्याध संयुगे।। | 5-172-49a 5-172-49b |
तं निवार्य शरैस्तूर्णं धृष्टद्युम्नो महारथः। व्यधमत्कौरवीं सेनामासुरीं मघवानिव।। | 5-172-50a 5-172-50b |
वध्यमाने बले तस्मिंस्तव पुत्रस्य मारिष। प्रावर्तत नदी घोरां शोणितौघतरङ्गिणी।। | 5-172-51a 5-172-51b |
उभयोः सेनयोर्मध्ये नराधद्विपवाहिनी। तथा वैतरणी राजन्यतराजुपुरं प्रति।। | 5-172-52a 5-172-52b |
द्रावयित्वा तु तत्सैन्यं धृष्टद्युम्नः प्रतापवान्। अभ्यराजत तेजस्वी शक्रो देवगणेष्विव।। | 5-172-53a 5-172-53b |
अथ दध्मुर्महाशङ्खान्धृष्टद्युम्नशिखण्डिनौ। यमौ च युयुधानश्च पाण्डक्य वृकोदरः।। | 5-172-54a 5-172-54b |
जित्वा रथसहस्राणि तावकानां महारथाः। सिंहनादरवांश्चक्रुः पाण्डवा जितकाशिनः।। | 5-172-55a 5-172-55b |
पश्यतस्तव पुत्रस्य कर्णस्य च रणोत्कटाः। तथा द्रोणस्य शूरस्य द्रौणेश्चैव विशाम्पते।। | 5-172-56a 5-172-56b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे द्विसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 172 ।। |
द्रोणपर्व-171 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-173 |