महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-073
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युधिष्ठिरेणार्जुनम्प्रत्यभिमन्युनिधनप्रकारकथनम्।। 1 ।। अर्जुनेन सशपथं जयद्रथवधप्रतिज्ञा।। 2 ।।
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युधिष्ठिर उवाच। | 5-73-1x |
त्वयि याते महाबाहो संशप्तकबलं प्रति। प्रयत्नमकरोत्तीव्रमाचार्यो प्रहणे मम।। | 5-73-1a 5-73-1b |
व्यूढानीकं ततो द्रोणं यतमानं महामृधे। प्रतिव्यूह्य सहानीकाः प्रत्यरुध्म वयं बलात्।। | 5-73-2a 5-73-2b |
स वार्यमाणो रथिभिर्मयि चापि सुरक्षिते। अस्मानभिजगामाशु पीडयन्निशितैः शरैः।। | 5-73-3a 5-73-3b |
ते पीड्यमाना द्रोणेन द्रोणानीकं न शक्नुमः। प्रतिवीक्षितुमप्याजौ भेत्तुं तत्कुत एव तु।। | 5-73-4a 5-73-4b |
ततस्तमप्रतिरथमहं सौभद्रमब्रवम्। द्रोणानीकमिदं भिन्द्धि द्वारं सञ्जनयस्व नः।। | 5-73-5a 5-73-5b |
स तथा चोदितोऽस्माभिः सदश्व इव वीर्यवान्। असह्यमपि तं भारं वोढुमेवोपचक्रमे।। | 5-73-6a 5-73-6b |
स तवास्त्रोपदेशेन वीर्येण च समन्वितः। प्राविशत्तद्बलं बालः सुपर्ण इव सागरम्।। | 5-73-7a 5-73-7b |
तेऽनुयाता वयं वीरं सात्वतीपुत्रमाहवे। प्रवेष्टुकामास्तेनैव येन स प्राविशच्चमूम्।। | 5-73-8a 5-73-8b |
ततः सैन्धवको राजा क्षुद्रस्तात जयद्रथः। वरदानेन रुद्रस्य सर्वान्नः समवारयत्।। | 5-73-9a 5-73-9b |
ततो द्रोणः कृपः कर्णो द्रौणिः कौसल्य एव च। कृतवर्मा च सौभद्रं षड्रथाः पर्यवारयन्।। | 5-73-10a 5-73-10b |
परिवार्य तु तैः सर्वैर्युधि बालो महारथैः। यतमानः परं शक्त्या बहुभिर्विरथीकृतः।। | 5-73-11a 5-73-11b |
ततो दौःशासनिः क्षिप्रं तथा तैर्विरथीकृतम्। `संशयं परमं प्राप्तं पदातिनमवस्थितम्। गदाहस्तोऽभ्ययात्तूर्णं जिघांसुरपराजितम्।। | 5-73-12a 5-73-12b 5-73-12c |
गदिनं त्वथ तं दृष्ट्वा वासवस्यात्मजात्मजः। स जग्राह गदां वीरो गदायुद्धविशारदः।। | 5-73-13a 5-73-13b |
गदामण्डलमार्गस्थौ सर्वक्षत्रस्य पश्यतः। तौ सम्प्रजग्मतुर्वीरावन्योन्यस्यान्तरैषणौ।। | 5-73-14a 5-73-14b |
तावन्योन्यं गदाग्राभ्यां ताडितौ युद्धदुर्मदौ। इन्द्रध्वजाविवोत्सृष्टौ गतसत्वौ महींगतौ।। | 5-73-15a 5-73-15b |
दौःशासनिरथोत्थाय कुरूणां कीर्तिवर्धनः। उत्तिष्ठमानं सौभद्रं गदया मूर्ध्न्यताडयत्।। | 5-73-16a 5-73-16b |
गदावेगेन महता व्यायामेन च मोहितः। विमना न्यपतद्भूमौ सौभद्रः परवीरहा।। | 5-73-17a 5-73-17b |
स तु हत्वा सहस्राणि द्विपाश्वरथपत्तिनाम्'। राजपुत्रशतं चाग्र्यं वीरांश्चालक्षितान्बहून्।। | 5-73-18a 5-73-18b |
बृहद्बलं च राजानं स्वर्गेण समयोजयत्। `गतः सुकृतिनां लोकान्ये च स्वर्गजितां शुभाः।। | 5-73-19a 5-73-19b |
अदीनस्त्रासयञ्छत्रून्नन्दयित्वा च बान्धवान्। असकृन्नाम विश्राव्य पितॄणां मातुलस्य च'।। | 5-73-20a 5-73-20b |
वीरो दिष्टान्तमापन्नः शोचयन्वान्धवान्बहून्। `ततः स्म शोकसन्तप्ता भवताऽद्य समेयुषः'।। | 5-73-21a 5-73-21b |
एतावदेव निर्वृत्तमस्माकं शोकवर्धनम्। स चैवं पुरुषव्याघ्रः स्वर्गलोकमवाप्तवान्।। | 5-73-22a 5-73-22b |
सञ्जय उवाच। | 5-73-23x |
ततोऽर्जुनो वचः श्रुत्वा धर्मराजेन भाषितम्। हा पुत्र इति निःश्वस्य व्यथितो न्यपतद्भुवि।। | 5-73-23a 5-73-23b |
विषण्णवदनाः सर्वे परिवार्य धनञ्जयम्। नेत्रैरनिमिषैर्दीनाः प्रत्यवैक्षन्परस्परम्।। | 5-73-24a 5-73-24b |
प्रतिलभ्य ततः संज्ञां वासविः क्रोधमूर्च्छितः। कम्पमानो ज्वरेणेव निःश्वसंश्च मुहुर्मुहुः।। | 5-73-25a 5-73-25b |
पाणिं पाणौ विनिष्पिष्य दन्तान्कटकटाय्य च। `त्रिशिखां भ्रुकुटीं कृत्वा क्रोधसंरक्तलोचनः'। उन्मत्त इव विप्रेक्षन्निदं वचनमब्रवीत्।। | 5-73-26a 5-73-26b 5-73-26c |
अर्जुन उवाच। | 5-73-27x |
सत्यं वः प्रतिजानामि श्वोऽस्मि हन्ताऽजयद्रथम्। न चेद्वधभयाद्भीतो धार्तराष्ट्रान्प्रहास्यति।। | 5-73-27a 5-73-27b |
न चास्माञ्शरणं गच्छेत्कृष्णं वा पुरुषोत्तमम्। भवन्तं वा महाराज श्वोऽस्मि हन्ता जयद्रथम्।। | 5-73-28a 5-73-28b |
धार्तराष्ट्रप्रियकरं मयि विस्मृतसौहृदम्। पापं बालवधे हेतुं श्वोऽस्मि हन्ता जयद्रथम्।। | 5-73-29a 5-73-29b |
रक्षमाणाश्च तं सङ्ख्ये ये मां योत्स्यन्ति केचन। अपि द्रोणकृपौ राजञ्छादयिष्यामि ताञ्छरैः।। | 5-73-30a 5-73-30b |
यद्येतदेवं सङ्ग्रामे न कुर्यां पुरुषर्षभाः। मा स्म पुण्यकृतां लोकान्प्राप्नुयां शूरसम्मतान्।। | 5-73-31a 5-73-31b |
ये लोका मातृहन्तॄणां ये चापि पितृघातिनाम्। गुरुदारगतानां ये पिशुनानां च ये सदा।। | 5-73-32a 5-73-32b |
साधूनसूयतां ये च ये चापि परिवादिनाम्। ये च निक्षेपहन्तॄणां ये च विश्वासघातिनाम्।। | 5-73-33a 5-73-33b |
भुक्तपूर्वां स्त्रियं ये च निन्दतामघशंसिनाम्। ब्रह्मघ्नानां च ये लोका ये च गोघातिनामपि।। | 5-73-34a 5-73-34b |
पायसं वा यवान्नं वा शाकं कृसरमेव वा। संयावापूपमांसानि ये च लोका वृथाश्नताम्। तानन्हायाधिगच्छेयं न चेद्धन्यां जयद्रथम्।। | 5-73-35a 5-73-35b 5-73-35c |
वेदाध्यायिनमत्यर्थं संशितं वा द्विजोत्तमम्। अवमन्यमानो यान्याति वृद्धान्साधून्गुरूंस्तथा।। | 5-73-36a 5-73-36b |
स्पृशतो ब्राह्मणं गां च पादेनाग्निं च या भवेत्। याऽप्सु श्लेष्म पुरीषं च मूत्रं वा मुञ्चतां गतिः। तां गच्छेयं गतिं कष्टां न चेद्धन्यां जयद्रथम्।। | 5-73-37a 5-73-37b 5-73-37c |
नग्नस्य स्नायमानस्य या च वन्ध्याऽतिथेर्गतिः। उत्कोचिनां मृषोक्तीनां वञ्चकानां च या गतिः।। | 5-73-38a 5-73-38b |
आत्मापहारिणां या च या च मिथ्याभिशंसिनाम्। भृत्यैः सन्दृश्यमानानां पुत्रदाराश्रितैस्तथा।। | 5-73-39a 5-73-39b |
असंविभज्य क्षुद्राणां या गतिर्मिष्टमश्नताम्। तां गच्छेयं गतिं घोरां न चेद्धन्यां जयद्रथम्।। | 5-73-40a 5-73-40b |
संश्रितं चापि यस्त्यक्त्वा साधुं तद्वचने रतम्। न बिभर्ति नृसंसात्मा निन्दते चोपकारिणम्।। | 5-73-41a 5-73-41b |
अर्हते प्रातिवेश्याय श्राद्धं यो न ददाति च। अनर्हेभ्यश्च यो दद्याद्वृषलीपतये तथा।। | 5-73-42a 5-73-42b |
मद्यपो भिन्नमर्यादः कृतघ्नो भर्तृनिन्दकः। तेषां गतिमियां क्षिप्रं न चेद्धान्यां जयद्रथम्।। | 5-73-43a 5-73-43b |
भुञ्जानानां तु सव्येन उत्सङ्गे चापि खादताम्। पालाशमासनं चैव तिन्दुकैर्दन्तधावनम्।। | 5-73-44a 5-73-44b |
ये चावर्जयतां लोकाः स्वपतां च तथोषसि। शीतभीताश्च ये विप्रा रणभीताश्च क्षत्रियाः।। | 5-73-45a 5-73-45b |
एककूपोदकग्रामे वेदध्वनिविवर्जिते। षण्मासं तत्र वसतां तथा शास्त्रं विनिन्दताम्।। | 5-73-46a 5-73-46b |
दिवामैथुनिनां चापि दिवसेषु च शेरते। अगारदाहिनां चैव गरदानां च ये मताः।। | 5-73-47a 5-73-47b |
अग्न्यातिथ्यविहीनाश्च गोपानेषु च विघ्नदाः। रजस्वलां सेवयन्तः कन्यां शुल्केन दायिनः।। | 5-73-48a 5-73-48b |
या च वै बहुयाजिनां ब्राह्मणानां श्ववृत्तिनाम्। आस्यमैथुनिकानां च ये दिवामैथुने रताः।। | 5-73-49a 5-73-49b |
ब्राह्मणस्य प्रतिश्रुत्य यो वै लोभाद्ददाति न। तेषां गतिं गमिष्यामि श्वो न हन्यां जयद्रथम्।। | 5-73-50a 5-73-50b |
धर्मादपेता ये चान्ये मया नात्रानुकीर्तिताः। ये चानुकीर्तितास्तेषां गतिं क्षिप्रमवाप्नुयाम्।। | 5-73-51a 5-73-51b |
यदि व्युष्टामिमां रात्रिं श्वो न हन्यां जयद्रथम्। इमां चाप्यपरां भूयः प्रतिज्ञां मे निबोधत।। | 5-73-52a 5-73-52b |
यद्यस्मिन्न हत्ते पापे सूर्योऽस्तमुपयास्यति। इहैव सम्प्रवेष्टाऽहं ज्वलितं जातवेदसम्।। | 5-73-53a 5-73-53b |
असुरसुरमनुष्याः पक्षिणो वोरगा वा पितृरजनिचरा वा ब्रह्मदेवर्षयो वा। चरमचरमपीदं यत्परं चापि तस्मा-- त्तदपि मम रिपुं तं रक्षितुं नैव शक्ताः।। | 5-73-54a 5-73-54b 5-73-54c 5-73-54d |
यदि विशति रसातलं तदग्र्यं वियदपि देवपुरं दितेः पुरं वा। तदपि शरशतैरहं प्रभाते भृशमभिमन्युरिपोः शिरोऽभिहर्ता।। | 5-73-55a 5-73-55b 5-73-55c 5-73-55d |
सञ्जय उवाच। | 5-73-56x |
एवमुक्त्वा विचिक्षेप गाण्डीवं सव्यदक्षिणम्। तस्य सर्वमतिक्रम्य धनुःशब्दोऽस्पृशद्दिवम्।। | 5-73-56a 5-73-56b |
अर्जुनेन प्रतिज्ञाते पाञ्चजन्यं जनार्दनः। प्रदध्मौ तत्र सङ्क्रुद्धो देवदत्तं च फल्गुनः।। | 5-73-57a 5-73-57b |
स पाञ्चजन्योऽच्युतवक्त्रवायुना भृशं सुपूर्णोदरनिःसृतध्वनिः। जगत्सपातालवियद्दिगीश्वरं प्रकम्पयामास युगात्यये यथा।। | 5-73-58a 5-73-58b 5-73-58c 5-73-58d |
ततो वादित्रघोषाश्च प्रादुरासन्सहस्रशः। सिंहनादश्च पाण्डूनां प्रतिज्ञाते महात्मना।। | 5-73-59a 5-73-59b |
`प्रानृत्यदिव गाण्डीवं शरास्तूणीगता मुदा। निराक्रामन्निव तदा स्वयमेव मृधैषिणः।। | 5-73-60a 5-73-60b |
भीमसेनः सुसंहृष्टः प्रत्यभाषत भारत। धनञ्जयमभिप्रेक्ष्य हर्षगद्गदया गिरा।। | 5-73-61a 5-73-61b |
प्रतिज्ञोद्भवशब्देन कृष्णशङ्खस्वनेन च। निहतो धार्तराष्ट्रोऽयं सानुबन्धः सुयोधनः।। | 5-73-62a 5-73-62b |
अथ मृदिततमाग्र्यदाममाल्यं तव सुतशोकमयं च रोषजातम्। व्यपनुदति महाप्रभावसेन-- न्नरवर वाक्यमिदं महार्थमिष्टम्।। | 5-73-63a 5-73-63b 5-73-63c 5-73-63d |
सञ्जय उवाच। | 5-73-64x |
अथ शङ्ख्यैश्च भेरीभिः पणवैः सैनिकास्तथा। ससूतमागधा जिष्णुं स्तुतिभिः समपूजयन्।। | 5-73-64a 5-73-64b |
तदा भीमं बलं सर्वे तेन नादेन मोहितम्। तावकं तन्महाराज विषण्णं समपद्यत'।। | 5-73-65a 5-73-65b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि त्रिसप्ततितमोऽध्यायः।। 73 ।। |
5-73-38 वन्ध्यापतेः इति ङ. पाठः। उत्क्रोशकानृतानां च इति क. पाठः। उत्कोटिकानृतानां च इति ट.ङ.पाठः।। 5-73-39 आत्मापहारिणां आत्मानमन्यथा प्रकाशयताम्।। 5-73-42 वृषली शूद्रा कन्याभावे रजस्वला वा।। 5-73-55 दितेरिति। कार्ये कारणोपचाराद्दैत्यानामित्यर्थः।। 5-73-73 त्रिसप्ततितमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-072 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-074 |