महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-113
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अर्जुनं गच्छतः सात्यकेः कृतवर्मणासह युद्धम्।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-113-1x |
प्रयाते तव सैन्यं तु युयुधाने युयुत्सया। धर्मराजो महाराज स्वेनानीकेन संवृतः। प्रायाद्द्रोणरथं प्रेप्सुर्युयुधानस्य पृष्ठतः।। | 5-113-1a 5-113-1b 5-113-1c |
ततः पाञ्चालराजस्य पुत्रः समरदुर्मदः। `प्रयाते माधवे राजन्निदं वचनमब्रवीत्'।। | 5-113-2a 5-113-2b |
प्राक्रोशत्पाण्डवानीके वसुदानश्च पार्थिवः। आगच्छत प्रहरत द्रुतं विपरिधावत।। | 5-113-3a 5-113-3b |
यथा सुखेन गच्छेत सात्यकिर्युद्धदुर्मदः। महारथा हि बहवो यतिष्यन्तेऽस्य निर्जये।। | 5-113-4a 5-113-4b |
सञ्जय उवाच। | 5-113-5x |
`सेनापतिवचः श्रुत्वा पाण्डवेयाः समन्ततः। अभ्युद्ययुर्महाराज तव सैन्यं समन्ततः।। | 5-113-5a 5-113-5b |
जहि प्रहर गृह्णीहि विध्य विद्रव चाद्रव'। इति ब्रुवन्तौ वेगेन निपेतुस्ते महारथाः।। | 5-113-6a 5-113-6b |
वयं प्रतिजिगीषन्तस्तत्र तान्समभिद्रुताः। `बाणशङ्खरवान्कृत्वा विमिश्रान्वाद्यनिस्वनैः।। | 5-113-7a 5-113-7b |
युयुधानरथं दृष्ट्वा तावका अभिदुद्रुवुः'। ततः शब्दो महानासीद्युयुधानरथं प्रति।। | 5-113-8a 5-113-8b |
आकीर्यमाणा धावन्ती तव पुत्रस्य वाहिनी। सात्वतेन महाराज शतधाऽभिव्यशीर्यत।। | 5-113-9a 5-113-9b |
तस्यां विदीर्यमाणायां शिनेः पुत्रो महारथः। सप्तवीरान्महेष्वासानग्रानीकेष्वपोथयत्।। | 5-113-10a 5-113-10b |
अथान्यानपि राजेन्द्र नानाजनपदेश्वरान्। शरैरनलसङ्काशैर्निन्ये वीरान्यमक्षयम्।। | 5-113-11a 5-113-11b |
शतमेकेन विव्याध शतेनैकं च पत्रिणाम्। द्विपारोहान्द्विपांश्चैव हयारोहान्हयांस्तथा। रथिनः साश्वसूतांश्च जघानेशः पशूनिव।। | 5-113-12a 5-113-12b 5-113-12c |
तं तथाऽद्भुतकर्माणं शरसम्पातवर्षिणम्। न केचनाभ्यधावन्वै सात्यकिं तव सैनिकाः।। | 5-113-13a 5-113-13b |
ते भीता मृद्यमानाश्च प्रमृष्टा दीर्घबाहुना। आयोधनं जहुर्वीरा दृष्टा तमतिमानिनम्।। | 5-113-14a 5-113-14b |
तमेकं बहुधा पश्यन्मोहितास्तस्य तेजसा।। | 5-113-15a |
रथैर्विमथितैश्चैव भग्ननीडैश्च मारिष। चक्रैर्विमथितैश्छत्रैर्ध्वजैश्च विनिपातितैः।। | 5-113-16a 5-113-16b |
अनुकर्षैः पताकाभिः शिरस्त्राणैः सकाञ्चनैः। बाहुभिश्चन्दनादिग्धैः साङ्गदैश्च विशाम्पते।। | 5-113-17a 5-113-17b |
हस्तिहस्तोपमैश्चापि भुजङ्गाभोगसन्निभैः। ऊरुभिः पृथिवी च्छन्ना मनुजानां नराधिप।। | 5-113-18a 5-113-18b |
शशाङ्कुसन्निभैश्चैव वदनैश्चारुकुण्डलैः। पतितैर्ऋषभाक्षाणां बभौ भारत मेदिनी।। | 5-113-19a 5-113-19b |
गजैश्च बहुधा छिन्नैः शयानैः पर्वतोपमैः। रराजातिभृशं भूमिर्विकीर्णैरिव पर्वतैः।। | 5-113-20a 5-113-20b |
तपनीयमयैर्योक्त्रैर्मुक्ताजालविभूषितैः। उरश्छदैर्विचित्रैश्च व्यशोभन्त तुरङ्गमाः। गतसत्वा महीं प्राप्य प्रमृष्टा दीर्घबाहुना।। | 5-113-21a 5-113-21b 5-113-21c |
नानाविधानि सैन्यानि तव हत्वा तु सात्वतः। प्रविष्टस्तावकं सैन्यं द्रावयित्वा चमूं भृशम्।। | 5-113-22a 5-113-22b |
ततस्तेनैव मार्गेण येन यातो धनञ्जयः। इयेष सात्यकिर्गन्तुं ततो द्रोणेन वारितः।। | 5-113-23a 5-113-23b |
भारद्वाजं समासाद्य युयुधानश्च सात्यकिः। न न्यवर्तत सङ्क्रुद्धो वेलामिव जलाशयः।। | 5-113-24a 5-113-24b |
निवार्य तु रणे द्रोणो युयुधानं महारथम्। विव्याध निशितैर्बाणैः पञ्चभिर्मर्मभेदिभिः।। | 5-113-25a 5-113-25b |
सात्यकिस्तु रणे द्रोणं राजन्विव्याध सप्तभिः। हेमपुङ्घैः शिलाधौतैः कङ्कबर्हिणवाजितैः।। | 5-113-26a 5-113-26b |
षं षड्भिः सायकैर्द्रोणः साश्वयन्तारमार्दयत्। स तं न ममृषे द्रोणं युयुधानो महारथः।। | 5-113-27a 5-113-27b |
सिंहनादं ततः कृत्वा द्रोणं विव्याध सात्यकिः। दशभिः सायकैश्चान्यैः षड्भिरष्टाभिरेव च।। | 5-113-28a 5-113-28b |
युयुधानः पुनर्द्रोणं विव्याध दशभिः शरैः। एकेन सारथिं चास्य चतुर्भिश्चतुरो हयान्। ध्वजमेकेन बाणेन विव्याध युधि मारिष।। | 5-113-29a 5-113-29b 5-113-29c |
तं द्रोणः साश्वयन्तारं सरथध्वजमाशुगैः। त्वरन्प्राच्छादयद्बाणैः शलभानामिव व्रजैः।। | 5-113-30a 5-113-30b |
तथैव युयुधानोऽपि द्रोणं बहुभिराशुगैः। `प्राच्छादयदसम्भ्रान्तस्त्वरमाणो महारथः।। | 5-113-31a 5-113-31b |
द्रोणस्तु परमक्रुद्धः सात्यकिं परवीरहा। अवाक्रिच्छितैर्बाणैर्वासुदेवपराक्रमम्।। | 5-113-32a 5-113-32b |
तं तथा शरजालेन प्रच्छाद्य महता पुनः। द्रोणः प्रहस्य शैनेयमिदं वचनमब्रवीत्'।। | 5-113-33a 5-113-33b |
तवाचार्यो रणं हित्वा गतः कापुरुषो यथा। युध्यमानं च मां हित्वा प्रदक्षिणमवर्तत।। | 5-113-34a 5-113-34b |
त्वं हि मे युध्यतो नाद्य जीवन्यास्यसि माधव। यदि मां त्वं रणे हित्वा न यास्याचार्यवद्द्रुतम्।। | 5-113-35a 5-113-35b |
सात्यकिरुवाच। | 5-113-36x |
धनञ्जयस्य पदवीं धर्मराजस्य शासनात्। गच्छामि स्वस्ति ते ब्रह्मन्न मे कालात्ययो भवेत्।। | 5-113-36a 5-113-36b |
आचार्यानुगतो मार्गः शिष्यैरन्वास्यते सदा। तस्मादेव व्रजाम्याशु यथा मे स गुरुर्गतः।। | 5-113-37a 5-113-37b |
सञ्जय उवाच। | 5-113-38x |
एतावदुक्त्वा शैनेय आचार्यं परिवर्जयन्। प्रयातः सहसा राजन्सारथिं चेदमब्रवीत्।। | 5-113-38a 5-113-38b |
द्रोणः करिष्यते यत्नं सर्वथा मम वारणे। यत्तो याहि रणे सूत शृणु चेदं वचः परम्।। | 5-113-39a 5-113-39b |
एतदालोक्यते सैन्यमावन्त्यानां महाप्रभम्। अस्यानन्तरतस्त्वेतद्दाक्षिणात्यं महद्बलम्।। | 5-113-40a 5-113-40b |
तदनन्तरमेतच्च बाह्लिकानां महद्बलम्। बाह्लिकाभ्याशतो युक्तं कर्णस्य च महद्बलम्।। | 5-113-41a 5-113-41b |
अन्योन्येन हि सैन्यानि भिन्नान्येतानि सारथे। अन्योन्यं समुपाश्रित्य न त्यक्ष्यन्ति रणाजिरम्।। | 5-113-42a 5-113-42b |
एतदन्तरमासाद्य चोदयाश्वान्प्रहृष्टवत्। मध्यमं जवमास्थाय वह मामत्र सारथे।। | 5-113-43a 5-113-43b |
बाह्लिका यत्र दृश्यन्ते नानाप्रहरणोद्यताः। दाक्षिणात्याश्च बहवः सूतपुत्रपुरोगमाः।। | 5-113-44a 5-113-44b |
हस्त्यश्वरथसम्बाधं यच्चानीकं विलोक्यते। नानादेशसमुत्थैश्च पदातिभिरधिष्ठितम्।। | 5-113-45a 5-113-45b |
`*ततः शक्यो महाव्यूहो भेत्तुं स सहसा रणे। तं देशं त्वरिता यामो मृद्ग्रन्तो युधि शात्रवान्।। | 5-113-46a 5-113-46b |
तत्रैते सम्प्रहृष्टत्वान्नास्मान्प्रति युयुत्सवः।। | 5-113-47a |
अयुध्यमानो बहुभिरेकं प्राप्य सुदुर्बलम्। बलं प्रमथ्य गच्छामि मिषतां सर्वधन्विनाम्।। | 5-113-48a 5-113-48b |
मध्यतो याहि यत्रोग्रं कर्णस्य सुमहद्बलम्। यत्रैते परमक्रुद्धा दाक्षिणात्या महारथाः। एतान्विजित्य सङ्ग्रामे ततो यामो धनञ्जयम्।। | 5-113-49a 5-113-49b 5-113-49c |
सञ्जय उवाच। | 5-113-50x |
युयुधानवचः श्रुत्वा युयुधानस्य सारथिः। यथोक्तमगमद्राजन्वर्जयन्द्रोणमाहवे'।। | 5-113-50a 5-113-50b |
तं द्रोणोऽनुययौ क्रुद्धो विकिरन्विशिखान्बहून्। युयुधानं महाभागं गच्छन्तमनिवर्तिनम्।। | 5-113-51a 5-113-51b |
स च सैन्यं महद्भित्त्वा दाक्षिणात्यबलं च तत्। कर्णस्य सैन्यं सुमहदभिहत्य शितैः शरैः।। | 5-113-52a 5-113-52b |
प्राविशद्भारतीं सेनामपर्यन्तां स सात्यकिः। सात्यको हि ततः सैन्यं द्रावयन्स समन्ततः।। | 5-113-53a 5-113-53b |
प्रविष्टे युयुधाने तु सैनिकेषु द्रुतेषु च। अमर्षी कृतवर्मा तु सात्यकिं पर्यवारयत्।। | 5-113-54a 5-113-54b |
तमापतन्तं विशिखैः षड्भिराहत्य सात्यकिः। चतुर्भिश्चतुरोऽस्याश्वानाजघानाशु वीर्यवान्।। | 5-113-55a 5-113-55b |
ततः पुनः षोडशभिर्नतपर्वभिराशुगैः। सात्यकिः कृतवर्माणं प्रत्यविध्यत्स्तनान्तरे।। | 5-113-56a 5-113-56b |
स ताड्यमानो विशिखैर्बहुभिस्तिग्मतेजनैः। सात्वतेन महाराज कृतवर्मा न चक्षमे।। | 5-113-57a 5-113-57b |
स वत्सन्दतं सन्धाय तिग्मांश्वनलसप्रभम्। आकृष्य राजन्नाकर्णाद्विव्याधोरसि सात्यकिम्।। | 5-113-58a 5-113-58b |
स तस्य देहावरणं भित्त्वा देहं च सायकः। सपुङ्खपत्रः पृथिवीं विवेश रुधिरोक्षितः।। | 5-113-59a 5-113-59b |
अथास्य बहुभिर्बाणैरच्छिनत्परमास्त्रवित्। स मार्गणगणं राजन्कृतवर्मा शरासनम्।। | 5-113-60a 5-113-60b |
विव्याध च रणे राजन्सात्यकिं सत्यविक्रमम्। दशभिर्विशिखैस्तीक्ष्णैरभिक्रुद्धः स्तनान्तरे।। | 5-113-61a 5-113-61b |
ततः प्रशीर्णे धनुषि शक्त्या शक्तिमतां वरः। जघान दक्षिणं बहुं सात्यकिः कृतवर्मणः।। | 5-113-62a 5-113-62b |
ततोऽन्यत्सुदृढं चापं पूर्णमायम्य सात्यकिः। व्यसृजद्विशिखांस्तूर्णं शतशोऽथ सहस्रशः।। | 5-113-63a 5-113-63b |
सरथं कृतवर्माणं समन्तात्पर्यवारयत्। छादयित्वा रणे राजन्हार्दिक्यं स तु सात्यकिः। अथास्य भल्लेन शिरः सारथेः समकृन्तत।। | 5-113-64a 5-113-64b 5-113-64c |
स पपात हतः सूतो हार्दिक्यस्य महारथात्। ततस्ते यन्तृरहिताः प्राद्रवंस्तुरगा भृशम्।। | 5-113-65a 5-113-65b |
अथ भोजस्तु सम्भ्रान्तो निगृह्य तुरगामन्स्वयम्। तस्थौ वीरो धनुष्पाणिस्तत्सैन्यान्यभ्यपूजयन्।। | 5-113-66a 5-113-66b |
स मुहूर्तमिवाश्वास्य सदश्वान्समनोदयत्। व्यपेत भीरमित्राणामावहत्सुमहद्भयम्।। | 5-113-67a 5-113-67b |
सात्यकिश्चात्यगात्तस्मात्स तु भीममुपाद्रवत्।। | 5-113-68a |
युयुधानोऽपि राजेन्द्र भोजानीकाद्विनिःसृतः। प्रययौ त्वरितस्तूर्णं काम्भोजानां महाचमूम्।। | 5-113-69a 5-113-69b |
स तत्र बहुभिः शूरैः सन्निरुद्धो महारथैः। न चचाल तदा राजन्सात्यकिः सत्यविक्रमः।। | 5-113-70a 5-113-70b |
सन्धाय च चमूं द्रोणो भोजे भारं निवेश्य च। अभ्यधावद्रणे यत्तो युयुधानं युयुत्सया।। | 5-113-71a 5-113-71b |
तथा तमनुधावन्तं युयुधानस्य पृष्ठतः। न्यवारयन्त संहृष्टाः पाण्डुसैन्ये ब्रृहत्तमाः। समासाद्य तु हार्दिक्यं रथानां प्रवरं रथम्।। | 5-113-72a 5-113-72b 5-113-72c |
पाञ्चाला विगतोत्साहा भीमसेनपुरोगमाः। विक्रम्य वारिता राजन्वीरेण कृतवर्मणा।। | 5-113-73a 5-113-73b |
यतमानांश्च तान्सर्वानीषद्विगतचेतसः। अभितस्ताञ्शरौघेण क्लान्तवाहानकारयत्।। | 5-113-74a 5-113-74b |
निगृहीतास्तु भोजेन भोजानीकेप्सवो रणे। अतिष्ठन्नार्यवद्वीराः प्रार्थयन्तो महद्यशः। `हार्दिक्यं समरे यत्ता न शेकुः प्रतिवीक्षितुम्'।। | 5-113-75a 5-113-75b 5-113-75c |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे त्रयोधशाधिकशततमोऽध्यायः।। 2 ।। |
5-113-12 ईशो रुद्रः।। 5-113-19 ऋषोभस्येवाक्षीणि येषाम्।। 5-113-35 त्वंहि त्वमपि।। 5-113-42 भिन्नानि पृथग्भूतानि।। 5-113-* एतदादि पञ्चश्लोकानां स्थाने अधो लिखित एकएव श्लोकः झ. पुस्तकेऽस्ति। एतावदुक्त्वा यन्तारं ब्राह्मणं परिवर्जयन्। मध्यतो याहि यच्चोग्रं कर्णस्य च महद्वलम्।। 5-113-58 जिह्मागानिलसन्निभम् इति। झ. पाठः।। 5-113-71 सन्धाय यथास्थानमानीय।। 5-113-75 आर्यवत्कुलीनवत्। कुलीनत्वादितियावत्।। 5-113-113 त्रयोदशाधिकरशथतमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-112 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-114 |