महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-040
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अभिमन्युना कर्णदुःशासनपराजयः।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-40-1x |
`ततः समभवद्युद्धं तयोः पुरुषसिंहयोः। तस्मिन्काले महाबाहुः सौभद्रः परवीरहा।। | 5-40-1a 5-40-1b |
सशरं कार्मुकं छित्त्वा लाघवेन व्यपातयत्। दुःशासनं शरैस्तीक्ष्णैः संततक्ष समन्ततः'।। | 5-40-2a 5-40-2b |
शरविक्षतगात्रं तु प्रत्यमित्रमवस्थितम्। अभिमन्युः स्मयन्धीमान्दुःशासनमथाब्रवीत्।। | 5-40-3a 5-40-3b |
दिष्ट्या पश्यामि सङ्ग्रमे मानिनं शूरमागतम्। निष्ठुरं त्यक्तधर्माणमाक्रोशनपरायणम्।। | 5-40-4a 5-40-4b |
यत्सभायां त्वया राज्ञो धृतराष्ट्रस्य शृण्वतः। कोपितः परुषैर्वाक्यैर्धर्मराजो युधिष्ठिरः।। | 5-40-5a 5-40-5b |
जयोन्मत्तेन भीमश्च बह्वबद्धं प्रभाषितः। अक्षकूटं समाश्रित्य सौबलस्यात्मनो बलम्।। | 5-40-6a 5-40-6b |
तत्त्वयेदमनुप्राप्तं तस्य कोपान्महात्मनः। परवित्तापहारस्य कोधस्याप्रशमस्य च।। | 5-40-7a 5-40-7b |
लोभस्य ज्ञाननाशस्य द्रोहस्यात्याहितस्य च। पितॄणां मम राज्यस्य हरणस्योग्रधन्विनाम्।। | 5-40-8a 5-40-8b |
तत्त्वयेदमनुप्राप्तं प्रकोपाद्वै महात्मनाम्। स तस्योग्रमधर्मस्य फलं प्राप्नुहि दुर्मते।। | 5-40-9a 5-40-9b |
शासिताऽस्म्यद्य ते बाणैः सर्वसैन्यस्य पश्यतः। अद्याहमनृणस्तस्य कोपस्य भविता रणे।। | 5-40-10a 5-40-10b |
अमर्षितायाः कृष्णायाः काङ्क्षितस्य च मे पितुः। अद्य कौरव्य भीमस्य भवितास्म्यनृणो युधि। न हि मे मोक्ष्यसे जीवन्यदि नोत्सृजसे रणं।। | 5-40-11a 5-40-11b 5-40-11c |
सञ्जय उवाच। | 5-40-12x |
एवमुक्त्वा महाबाहुर्बाणं दुःशासनान्तकम्। संदधे परवीरघ्नः कालाग्न्यनिलवर्चसम्।। | 5-40-12a 5-40-12b |
तस्योरस्तूर्णमासाद्य जत्रुदेशे विभिद्य तम्। जगाम सह पुङ्खेन वल्मीकमिव पन्नगः। अथैनं पञ्चविंशत्या पुनरेव समार्पयत्।। | 5-40-13a 5-40-13b 5-40-13d |
रणमध्यादपोवाह सौभद्रशरपीडितम्।। | 5-40-15b |
पाण्डवा द्रौपदेयाश्च विराटश्च समीक्ष्य तम्। पाञ्चालाः केकयाश्चैव सिंहनादमथानदन्।। | 5-40-16a 5-40-16b |
वादित्राणि च सर्वाणि नानालिङ्गानि सर्वशः। प्रावादयन्त संहृष्टाः पाण्डूनां तत्र सैनिकाः।। | 5-40-17a 5-40-17b |
अपश्यन्स्मयमानाश्च सौभद्रस्य विचेष्टितम्। अत्यन्तवैरिणं दृप्तं दृष्ट्वा शत्रुं पराजितम्।। | 5-40-18a 5-40-18b |
धर्ममारुतशक्राणामश्विनोः प्रतिमास्तथा। धारयन्तो ध्वजाग्रेषु द्रौपदेया महारथाः।। | 5-40-19a 5-40-19b |
सात्यकिश्चेकितानश्च धृष्टद्युम्नशिखण्डिनौ। केकया धृष्टकेतुश्च मात्स्याः पाञ्चालसृञ्जयाः।। | 5-40-20a 5-40-20b |
पाण्डवाश्च मुदा युक्ता युधिष्ठिरपुरोगमाः। अभ्यद्रवन्त त्वरिता द्रोणानीकं बिभित्सवः।। | 5-40-21a 5-40-21b |
ततोऽभवन्महायुद्धं त्वदीयानां परैः सह। जयमाकाङ्क्षमाणानां शूराणामनिवर्तिनाम्।। | 5-40-22a 5-40-22b |
तथा तु वर्तमाने वै सङ्ग्रामेऽतिभयंकरे। दुर्योधनो महाराज राधेयमिदमब्रवीत्।। | 5-40-23a 5-40-23b |
पश्य दुःशासनं वीरमभिमन्युवशंगतम्। प्रतपन्तमिवादित्यं निघ्नन्तं शात्रवान्रणे। | 5-40-24a 5-40-24b |
अथ चैते सुसंरब्धाः सिंहा इव बलोत्कटाः। सौभद्रमुद्यतास्त्रातुमभ्यधावन्त पाण्डवाः।। | 5-40-25a 5-40-25b |
सञ्जय उवाच। | 5-40-26x |
ततः कर्णः शरैस्तीक्ष्णैरभिमन्युं दुरासदम्। अभ्यवर्षत सङ्क्रुद्धः पुत्रस्य हितकृत्तव।। | 5-40-26a 5-40-26b |
तस्य चानुचरांस्तीक्ष्णैर्विव्याघ परमेषुभिः। अवज्ञापूर्वकं शूरः सौभद्रस्य परणाजिरे।। | 5-40-27a 5-40-27b |
अभिमन्युस्तु राधेयं त्रिसप्तत्या शिलीमुखैः। अविध्यत्त्वरितो राजन्द्रोणं प्रेप्सुर्महामनाः।। | 5-40-28a 5-40-28b |
तं तथा नाशकत्कश्चिद्दोणाद्वारयितुं रथी। आरुजन्तं रथव्रातान्वज्रहस्तात्मजात्मजम्।। | 5-40-29a 5-40-29b |
ततः कर्णो जयप्रेप्सुर्मानी सर्वधनुष्मताम्। सौभद्रं शतशोऽविध्यदुत्तमास्त्राणि दर्शयन्।। | 5-40-30a 5-40-30b |
सोऽस्त्रैरस्त्रविदां श्रेष्ठो रामशिष्यः प्रतापवान्। समरे शत्रुदुर्धर्षमभिमन्युमपीडयत्।। | 5-40-31a 5-40-31b |
स तथा पीड्यमानस्तु राधेयेनास्त्रवृष्टिभिः। समरेऽमरसङ्काशः सौभद्रो न व्यशीर्यत।। | 5-40-32a 5-40-32b |
ततः शिलाशितैस्तीक्ष्णैर्भल्लैरानतपर्वभिः। छित्त्वा धनूंषि शूराणामार्जुनिः कर्णमार्दयत्।। | 5-40-33a 5-40-33b |
धनुर्मण्डलनिर्मुक्तैः शरैराशीविषोपमैः। सच्छत्रध्वजयन्तारं साश्वमाशु स्मयन्निव।। | 5-40-34a 5-40-34b |
कर्णोऽपि चास्य चिक्षेप बाणान्सन्नतपर्वणः। असम्ब्रान्तश्च तान्सर्वानगृह्णात्फल्गुनात्मजः।। | 5-40-35a 5-40-35b |
ततो मुहूर्तात्कर्णस्य बाणेनैकेन वीर्यवान्। सध्वजं कार्मुकं वीरश्छित्त्वा भूमावपातयत्।। | 5-40-36a 5-40-36b |
ततः कृच्छ्रगतं कर्णं दृष्ट्वा कर्णादनन्तरः। सौभद्रमभ्ययात्तूर्णं दृढमुद्यम्य कार्मुकम्।। | 5-40-37a 5-40-37b |
तत उच्चुक्रुशुः पार्थास्तेषां चानुचरा जनाः। वादित्राणि च सञ्जघ्नः सौभद्रं चापि तुष्टुवुः।। | 5-40-38a 5-40-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि त्रयोदशदिवसयुद्धे चत्वारिंशोऽध्यायः।। 40 ।। |
5-40-8 अत्याहितस्य जीवानपेक्षकर्मणः। साहसस्येतियावत्।। 5-40-40 चत्वारिंशोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-039 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-041 |