महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-079
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श्रीकृष्णेन रात्रावर्जुनेन त्र्यम्बकाय बलिप्रदापनम्।। 1 ।। कृष्णदारुकसम्भाषणम्।। 2 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-79-1x |
ततोऽर्जुनस्य भवनं प्रविश्याप्रतिमं विभुः। स्पृष्ट्वाम्भः पुण्डरीकाक्षः स्थण्डिले शुभलक्षणे। सन्तस्तार शुभां शय्यां दर्भैर्वैदूर्यसन्निभैः।। | 5-79-1a 5-79-1b 5-79-1c |
ततो माल्येन विधिवल्लाजैर्गन्धैः सुमङ्गलैः। अलञ्चकार तां शय्यां परिवार्यायुधोत्तमैः।। | 5-79-2a 5-79-2b |
ततः स्पृष्टोदकं पार्थं विनीतपरिचारकम्। नैत्यकं दर्शयाञ्चक्रे नैशं त्रैयम्बकं बलिम्।। | 5-79-3a 5-79-3b |
ततः प्रीतमनाः पार्थो गन्धमाल्यैश्च माधवम्। अलङ्कृत्योपहारं तं नैशं तस्मै न्यवेदयत्।। | 5-79-4a 5-79-4b |
साधुसाध्विति गोविन्दः फल्गुनं प्रत्यभाषत।। | 5-79-5a |
सुप्यतां पार्थ भद्रं ते कल्याणाय व्रजाम्यहम्। स्थापयित्वा ततो द्वास्थान्गोप्तॄंश्चात्तायुधान्नरान्।। | 5-79-6a 5-79-6b |
दारुकानुगतः श्रीमान्विवेश शिबिरं स्वकम्। शिश्ये च शयने शुभ्रे बहुकृत्य विचिन्तयन्।। | 5-79-7a 5-79-7b |
पार्थाय सर्वं भगवाञ्शोकदुःखापहं विधिम्। व्यदधात्पुण्डरीकाक्षस्तेजोद्युतिविवर्धनम्।। | 5-79-8a 5-79-8b |
योगमास्थाय युक्तात्मा सर्वेषामीश्वरेश्वरः। श्रेयस्कामः पृथुयशा विष्णुर्जिष्णुप्रियङ्करः।। | 5-79-9a 5-79-9b |
न पाण्डवानां शिबिरे कश्चित्सुष्वाप तां निशाम्। प्रजागरः सर्वजनं ह्याविवेश विशाम्पते।। | 5-79-10a 5-79-10b |
पुत्रशोकाभितप्तेन प्रतिज्ञातो महात्मना। श्वः सिन्धुराजस्य वधः कार्यो गाण्डीवधन्वना।। | 5-79-11a 5-79-11b |
तत्कथं नु महाबाहुर्वासविः परवीरहा। प्रतिज्ञां सफलां कुर्यादिति ते समचिन्तयन्।। | 5-79-12a 5-79-12b |
कष्टं हीदं व्यवसितं पाण्डवेन महात्मना। पुत्रशोकाभिभूतेन प्रतिज्ञा महती कृता।। | 5-79-13a 5-79-13b |
भ्रातरश्चापि विक्रान्ता बहुलानि बलानि च। धृतराष्ट्रस्य पुत्रेण सर्वतः सन्निवेशिताः।। | 5-79-14a 5-79-14b |
स हत्वा सैन्धवं सङ्ख्ये पुनरेतु जयी सुखी। `हत्वा रिपुगणं सर्वं पारयित्वा महाव्रतम्।। | 5-79-15a 5-79-15b |
यद्यस्ति सुकृतं किञ्चिदस्माकं हन्तु सैन्धवम्। जित्वा सर्वान्रिपून्पार्थस्त्रातु नोऽस्मान्महाभयात्।। | 5-79-16a 5-79-16b |
एवमाशंसमानास्ते केचित्तस्थुरुपश्रुतिम्। श्रुत्वा चेष्टं सुमनसो व्यक्तमाशंसिरे जयम्।। | 5-79-17a 5-79-17b |
भविता नु कथं कृत्यमिदमित्यब्रुवञ्जनाः'। श्वोऽहत्वा सिन्धुराजं वै धूमकेतुं प्रवेक्ष्यति।। | 5-79-18a 5-79-18b |
न शक्यमनृतां कर्तुं प्रतिज्ञां विजयेन हि। `महद्धि साहसं पार्थः कृतवाच्छोकमोहितः'।। | 5-79-19a 5-79-19b |
धर्मपुत्रः कथं राजा भविष्यति मृतेऽर्जुने। तस्मिन्हि विजयः कृत्स्नः पाण्डवेन समाहितः।। | 5-79-20a 5-79-20b |
यदि नोऽस्ति कृतं किञ्चिद्यदि दत्तं हुतं यदि। फलेन तस्य सर्वस्य सव्यसाची जयत्वरीन्।। | 5-79-21a 5-79-21b |
सञ्जय उवाच। | 5-79-22x |
एवं कथयतां तेषां जयमाशंसतां प्रभो। कृच्छ्रेण महता राजन्रजनी व्यत्यवर्तत।। | 5-79-22a 5-79-22b |
तस्या रजन्या मध्ये तु प्रतिबुद्धो जनार्दनः। स्मृत्वा प्रतिज्ञां पार्थस्य दारुकं प्रत्यभाषत।। | 5-79-23a 5-79-23b |
अर्जुनेन प्रतिज्ञातमार्तेन हतबन्धुना। जयद्रथं वधिष्यामि श्वोभूत इति दारुक।। | 5-79-24a 5-79-24b |
तत्तु दुर्योधनः श्रुत्वा मन्त्रिभिर्मन्त्रयिष्यति। यथा जयद्रथं पार्थो न हन्यादिति संयुगे।। | 5-79-25a 5-79-25b |
अक्षौहिण्यो हि ताः सर्वा रक्षिष्यन्ति जयद्रथम्। द्रोणश्च सहपुत्रेण सर्वास्त्रविधिपारगः।। | 5-79-26a 5-79-26b |
एको वीरः सहस्राक्षो दैत्यदानवदर्पहा। सोऽपि तं नोत्सहेताजौ हन्तुं द्रोणेन रक्षितम्।। | 5-79-27a 5-79-27b |
सोऽहं श्वस्तत्करिष्यामि यथा कुन्तीसुतोऽर्जुनः। अप्राप्तेऽस्तं दिनकरे हनिष्यति जयद्रथम्।। | 5-79-28a 5-79-28b |
न हि दारा न मित्राणि ज्ञातयो न च बान्धवाः। कश्चिदन्यः प्रियतरः कुन्तीपुत्रान्ममार्जुनात्।। | 5-79-29a 5-79-29b |
अनर्जुनमिमं लोकं मुहूर्तमपि दारुक। उदीक्षितुं न शक्तोऽहं भविता न च तत्तथा।। | 5-79-30a 5-79-30b |
अहं विजित्य तान्सर्वान्सहसा सहयद्विपान्। अर्जुनार्थे हनिष्यामि सकर्णान्ससुयोधनान्।। | 5-79-31a 5-79-31b |
श्वो निरीक्षन्तु मे वीर्यं त्रयो लोका महाहवे। धनञ्जयार्थे समरे पराक्रान्तस्य दारुक।। | 5-79-32a 5-79-32b |
श्वो नरेन्द्रसहस्राणि राजपुत्रशतानि च। साश्वद्विपरथान्याजौ विद्रविष्यामि दारुक।। | 5-79-33a 5-79-33b |
श्वस्तां चक्रप्रमथितां द्रक्ष्यसे नृपवाहिनीम्। मया क्रुद्धेन समरे पाण्डवार्थे निपातिताम्।। | 5-79-34a 5-79-34b |
श्वः सदेवाः सगन्धर्वाः पिशाचोरगराक्षसाः। ज्ञास्यन्ति लोकाः सर्वे मां सुहृदं सव्यसाचिनः।। | 5-79-35a 5-79-35b |
यस्तं द्वेष्टि स मां द्वेष्टि यस्तं चानु स मामनु। इति सङ्कल्प्यतां बुद्ध्या शरीरार्धं ममार्जुनः।। | 5-79-36a 5-79-36b |
यथा त्वं मे प्रभातायामस्यां निशि रथोत्तमम्। कल्पयित्वा यथाशास्त्रमादाय व्रज संयतः।। | 5-79-37a 5-79-37b |
गदां कौमोदकीं दिव्यां शक्तिं चक्रं धनुः शरान्। आरोप्य वै रथे सूत सर्वोपकरणानि च।। | 5-79-38a 5-79-38b |
स्थानं च कल्पयित्वाऽथ रथोपस्थे ध्वजस्य मे। वैनतेयस्य वीरस्य समरे रथशोभिनः।। | 5-79-39a 5-79-39b |
छत्रं जाम्बूनदैर्जालैरर्कज्वलनसप्रभैः।। विश्वकर्मकृतैर्दिव्यैरश्वानपि विभूषय।। | 5-79-40a 5-79-40b |
बलाहकं मेघपुष्पं शैब्यं सुग्रीवमेव च। युक्त्वा वाजिवरांस्तत्र कवची तिष्ठ दारुक।। | 5-79-41a 5-79-41b |
पाञ्चजन्यस्य निर्घोषं पर्जन्यनिनदोपमम्। श्रुत्वा च भैरवं नादमुपेयास्त्वं जवेन माम्।। | 5-79-42a 5-79-42b |
एकाह्नाऽहममर्षं च सर्वदुःखानि चैव ह। भ्रातुः पैतृष्वसेयस्य व्यपनेष्यामि दारुक।। | 5-79-43a 5-79-43b |
सर्वोपायैर्यतिष्यामि यथा बीभत्सुराहवे। पश्यतां धार्तराष्ट्राणां हनिष्यति जयद्रथम्।। | 5-79-44a 5-79-44b |
यस्ययस्य च बीभत्सुर्वधे यत्नं करिष्यति। आशंसेऽहं रणे तन्तं तत्रतत्र हनिष्यति।। | 5-79-45a 5-79-45b |
दारुक उवाच। | 5-79-46x |
जय एव ध्रुवस्तस्य कुत एव पराजयः। यस्य त्वं पुरुषव्याघ्र सारथ्यमुपजग्मिवान्।। | 5-79-46a 5-79-46b |
एवं चैतत्करिष्यामि यथा मामनुभाषसे। सुप्रभातामिमां रात्रिं जयाय विजयस्य हि।। | 5-79-47a 5-79-47b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि एकोनाशीतितमोऽध्यायः।। 79 ।। |
5-79-3 लाजैरक्षतैः।। 5-79-4 तस्मै त्र्यम्बकाय।। 5-79-8 पार्थाय तादर्थ्ये चतुर्थी। तेजः प्रतापः।। 5-79-13 महात्मना इत्यस्यानन्तरं स च राजा महावीर्यः पारयत्वर्जुनः स ताम् इत्येकमर्ध ङ. च.झ.ञ. पुस्तकेषु अधिकं वर्तते।। 5-79-31 सहसा बलेन।। 5-79-36 अनु अनुगतः।। 5-79-79 एकोनाशीतितमोऽध्यायः।।
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