महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-164
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सेनाद्वये दीपोद्योxxxनम्।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-164-1x |
वर्तमाने यथा यद्धे घोररूपे भयावहे। तमसा संवृते लोके रजसा च महीपते।। | 5-164-1a 5-164-1b |
नापश्यन्त रणे योधाः परस्परमवस्थिताः। अनुमानेन संज्ञाभिर्युद्धं तद्ववृधे महत्।। | 5-164-2a 5-164-2b |
नरनागाश्वमथनं परमं रोमहर्षणम्। द्रोणकर्णकृपा वीरा भीमपार्षतसात्यकाः। अन्योन्यं क्षोभयामासुः सैन्यानि नृपसत्तम।। | 5-164-3a 5-164-3b 5-164-3c |
वध्यमानानि सैन्यानि समन्तात्तैर्महारथैः। तमसा संवृते चैव समन्ताद्विप्रदुद्रुवुः।। | 5-164-4a 5-164-4b |
ते सर्वतो विद्रवन्तो योधा विध्वस्तचेतनाः। अहन्यन्त महाराज धावमानाश्च संयुगे।। | 5-164-5a 5-164-5b |
महारथसहस्राणि जघ्नुरन्योन्यमाहवे। अन्ये तमसि मूढानि पुत्रस्य तव मन्त्रिते।। | 5-164-6a 5-164-6b |
ततः सर्वाणि सैन्यानि सेनागोपाश्च भारत। व्यमुह्यन्त रणे तत्र तमसा संवृते सति।। | 5-164-7a 5-164-7b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-164-8x |
तेषां संलोड्यमानानां पाण्डवैर्विहतौजसाम्। अन्धे तमसि मग्नानामासीत्किं वो मनस्तदा।। | 5-164-8a 5-164-8b |
कथं प्रकाशस्तेषां वा मम सैन्यस्य वा पुनः। बभूव लोके तमसा तथा सञ्जय संवृते।। | 5-164-9a 5-164-9b |
सञ्जय उवाच। | 5-164-10x |
ततः सर्वाणि सैन्यानि हतशिष्टानि यानि वै। सेनागोप्तॄनथादिश्य पुनर्व्यूहमकल्पयत्।। | 5-164-10a 5-164-10b |
द्रोणः पुरस्ताज्जघने तु शल्य-- स्तथा द्रौणिः कृतवर्मा सौबलश्च। स्वयं तु सर्वाणि बलानि राज-- न्राजाऽभ्ययाद्गोपयन्वै निशायाम्।। | 5-164-11a 5-164-11b 5-164-11c 5-164-11d |
उवाच सर्वांश्च पदातिसङ्घा-- न्दुर्योधनः पार्थिवसान्त्वपूर्वम्। उत्सृज्य सर्वे परमायुधानि गृह्णीत हस्तैर्ज्वलितान्प्रदीपान्।। | 5-164-12a 5-164-12b 5-164-12c 5-164-12d |
ते चोदिताः पार्थिवसत्तमेन ततः प्रहृष्टा जगृहुः प्रदीपान्।। | 5-164-13a 5-164-13b |
देवर्षिगन्धर्वसुरर्षिसङ्घा विद्याधराश्चाप्सरसां गणाश्च। नागाः सयक्षोरगकिन्नराश्च हृष्टा दिविस्था जगृहुः प्रदीपान्।। | 5-164-14a 5-164-14b 5-164-14c 5-164-14d |
दिग्धैर्वतेभ्यश्च समापतन्तो-- ऽदृश्यन्त दीपाः ससुगन्धितैलाः। विशेषतो नारदपर्वताभ्यां सम्बोध्यमानाः कुरुपाण्डवार्थम्।। | 5-164-15a 5-164-15b 5-164-15c 5-164-15d |
सा भूय एव ध्वजिनी विभक्ता व्यरोचताग्निप्रभया निशायाम्। महाधनैराभरणैश्च दिव्यैः शस्त्रैश्च दीप्तैरपि सम्पतद्भिः।। | 5-164-16a 5-164-16b 5-164-16c 5-164-16d |
रथेरथे पञ्च विदीपकास्तु प्रदीपकास्तत्र गजे त्रयश्च। प्रत्यश्वमेकश्च महाप्रदीपः कृतास्तु तैः पाण्डवैः कौरवेयैः।। | 5-164-17a 5-164-17b 5-164-17c 5-164-17d |
क्षणेन सर्वे विहिताः प्रदीपा व्यादीपयन्तो ध्वजिनीं तवासु।। | 5-164-18a 5-164-18b |
सर्वास्तु सेना व्यतिसेव्यमानाः पदातिभिः पावकतैलहस्तैः। प्रकाश्यमाना ददृशुर्निशायां यथान्तरिक्षे जलदास्तडिद्भिः।। | 5-164-19a 5-164-19b 5-164-19c 5-164-19d |
प्रकाशितायां तु ततो ध्वजिन्यां द्रोणोऽग्निकल्पः प्रतपन्सपत्नान्। रराज राजेन्दर सुवर्णवर्मा मध्यं गतः सूर्य इवांशुमाली।। | 5-164-20a 5-164-20b 5-164-20c 5-164-20d |
जाम्बूनदेष्वाभरणेषु चैव निष्केषु शुद्धेषु शरासनेषु। पीतेषु शस्त्रेषु च पावकस्य प्रतिप्रभास्तत्र तदा बभूवुः।। | 5-164-21a 5-164-21b 5-164-21c 5-164-21d |
गदाश्च शैक्याः परिघाश्च शुभ्रा रथेषु शक्त्यश्च विवर्तमानाः। प्रतिप्रभारश्मिभिराजमीढ पुनःपुनः सञ्जनयन्ति दीपान्।। | 5-164-22a 5-164-22b 5-164-22c 5-164-22d |
छत्राणि वालव्यजनानि खङ्गा दीप्ता महोल्काश्च तथैव राजन्। व्याघूर्णमानाश्च सुवर्णमाला व्यायच्छतां तत्र तदा विरेजुः।। | 5-164-23a 5-164-23b 5-164-23c 5-164-23d |
शस्त्रप्रभाभिश्च विराजमानं दीपप्रभाभिश्च तदा बलं तत्। प्रकाशितं चाभरणप्रभाभि-- र्भृशं प्रकाशं नृपते बभूव।। | 5-164-24a 5-164-24b 5-164-24c 5-164-24d |
पीतानि शस्त्राण्यसृगुक्षितानि वीरावधूतानि तनुच्छदानि। दीप्तां प्रभां प्राजनयन्त तत्र तपात्यये विद्युदिवान्तरिक्षे।। | 5-164-25a 5-164-25b 5-164-25c 5-164-25d |
प्रकम्पितानामभिधातवेगै-- रभिघ्नतां चापततां जवेन। वक्राण्यकाशन्त तदा नराणां वाय्वीरितानीव महाम्बुजानि।। | 5-164-26a 5-164-26b 5-164-26c 5-164-26d |
महावने दारुमये प्रदीप्ते यथा प्रभा भास्करस्यापि नश्येत्। तथा तदाऽऽसीद्वजिनी प्रदीप्ता महाभया भारत भीमरूपा।। | 5-164-27a 5-164-27b 5-164-27c 5-164-27d |
तत्संप्रदीप्तां बलमस्मदीयं निशाम्य पार्थास्त्वरितास्तथैव। सर्वेषु सैन्येषु पदातिसङ्घा-- नचोदयंस्तेऽपि चक्रुः प्रदीपान्।। | 5-164-28a 5-164-28b 5-164-28c 5-164-28d |
गजेगजे सप्त कृपाः प्रदीपा रथेरथे चैव दश प्रदीपाः। द्वावश्वपृष्ठे परिपार्श्वतोऽन्ये ध्वजेषु चान्ये जघनेषु चान्ये।। | 5-164-29a 5-164-29b 5-164-29c 5-164-29d |
सेनासु सर्वासु च पार्श्वतोऽन्ये पश्चात्पुरस्ताच्च समन्ततश्च। मध्ये तथाऽन्ये ज्वलिताग्निहस्ता व्यदीपयन्पाण्डुसुतस्य सेनाम्।। | 5-164-30a 5-164-30b 5-164-30c 5-164-30d |
मध्ये तथाऽन्ये ज्वलिताग्निहस्ताः सेनाद्वयेऽपि स्म नरा विचेरुः।। | 5-164-31a 5-164-31b |
सर्वेषु सैन्येषु पदातिसङ्घा विमिश्रिता हस्तिरथाश्वबृन्दैः। व्यदीपयंस्ते ध्वजिनीं प्रदीप्ता-- स्तथा बलं पाण्डवेयाभिगुप्तम्।। | 5-164-32a 5-164-32b 5-164-32c 5-164-32d |
तेन प्रदीप्तेन तथा प्रदीप्तं-- बलं तवासीद्बलवद्बलेन। भाः कुर्वता भानुमता ग्रहेण दिवाकरेणाग्निरिवाभिगुप्तः।। | 5-164-33a 5-164-33b 5-164-33c 5-164-33d |
तयोः प्रभाः पृथिवीमन्तरिक्षं सर्वा व्यतिक्रम्य दिशश्च वृद्धाः। तेन प्रकाशेन भृशं प्रकाशं बभूव तेषां तव चैव सैन्यम्।। | 5-164-34a 5-164-34b 5-164-34c 5-164-34d |
तेन प्रकाशेन दिवं गतेन सम्बोधिता देवगणाश्च राजन्। गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घाः समागमन्नप्सरसश्च सर्वाः।। | 5-164-35a 5-164-35b 5-164-35c 5-164-35d |
तद्देवगन्धर्वसमाकुलं च यक्षासुरेन्द्राप्सरसां गणैश्च। हतैश्च शूरैर्दिवमारुहद्भि-- रायोधनं दिव्यकल्पं बभूव।। | 5-164-36a 5-164-36b 5-164-36c 5-164-36d |
रथाश्वनागाकुलदीपदीप्तं संरब्धयोधं हतविद्रुताश्वम्। महद्बलं व्यूढरथाश्वनागं सुरासुरव्यूहसमं बभूव।। | 5-164-37a 5-164-37b 5-164-37c 5-164-37d |
तच्छक्तिसङ्घाकुलचण्डवातं महारथाभ्रं गजवाजिघोषम्। शस्त्रौगवर्षं रुधिराम्बुधारं निशि प्रवृत्तं रथदुर्दिनं तत्।। | 5-164-38a 5-164-38b 5-164-38c 5-164-38d |
तस्मिन्महाग्निप्रतिमो महात्मा सन्तापंयन्पाण्डवान्विप्रमुख्यः। गभस्तिभिर्मध्यगतो यथाऽर्को वर्षात्यये तद्वदभून्नरेन्द्र।। | 5-164-39a 5-164-39b 5-164-39c 5-164-39d |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे चतुःषष्ठ्यधिकशततमोऽध्यायः।। 164 ।। |
5-164-6 अन्धे आन्ध्यहेतौ।। 5-164-8 वो युष्मत्सम्बन्धिनां मनः किं किंविधम्। कातरं धृष्टं वेत्यर्थः।। 5-164-10 तत इति। द्रोण इत्यपकृयते। तेषां सैन्यानां व्यूहमिध्याहृत्य योज्यम्।। 5-164-14 देवर्षीति। भुवि पदातिभिर्दीपेषु गृहीतेषु दिविस्था देवा अपि दीपान् जगृहुर्युद्धोत्सवप्रेक्षकाः।। 5-164-164 चतुःषष्ठ्यधिकशततमोऽध्यायः।।
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