महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-200
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द्रोणमारणरुष्टेनाश्वत्थाम्ना वैरिसेनायां नारायणास्त्रप्रयोगः।। 1 ।। अस्त्रतेजसा पीड्यमानानां कृष्णवचनात् यानावरोहणशस्त्रन्यासादिना आत्मरक्षणम्।। 2 ।। भीमे एकस्मिन्नेव शस्त्रधारणेन प्रतियुध्यमाने सति तन्मस्तकेऽस्त्रस्य प्रज्वलनम्।। 3 ।।
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सञ्जय उवच। | 5-200-1x |
ततः स कदनं चक्रे रिपूणां द्रोणनन्दनः। युगान्ते सर्वभूतानां कालसृष्ट इवान्तकः।। | 5-200-1a 5-200-1b |
ध्वजद्रुमं शस्त्रशृङ्गं हतनागमहाशिलम्। अश्वकिम्पुरुषाकीर्णं शरासनलतावृतम्।। | 5-200-2a 5-200-2b |
क्रव्यादपक्षिसङ्घुष्टं भूतयक्षणाकुलम्। निहत्य शात्रवान्भल्लैः सोऽचिनोद्देहपर्वतम्।। | 5-200-3a 5-200-3b |
ततो वेगेन महता विनद्य स नरर्षभः। प्रतिज्ञां श्रावयामास पुनरेव तवात्मजम्।। | 5-200-4a 5-200-4b |
यदत्र च्छद्मनाऽऽचार्यं धर्मकञ्चुकमास्थितः। मुञ्च शस्त्रमिति प्राह कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।। | 5-200-5a 5-200-5b |
तस्मात्सम्पश्यतस्तस्य द्रावयिष्यानि वाहिनीम्। विद्राव्यसर्वान्हन्ताऽस्मि जाल्मं पाञ्चाल्यमेव तु।। | 5-200-6a 5-200-6b |
सर्वानेतान्हनिष्यामि यदि योत्स्यन्ति मां रणे। सत्यं ते प्रतिजानामि परिवर्तय वाहिनीम्।। | 5-200-7a 5-200-7b |
तच्छ्रुत्वा तव पुत्रस्तु वाहिनीं पर्यवर्तयत्। सिंहनादेन महता व्यपोह्य सुमहद्भयम्।। | 5-200-8a 5-200-8b |
ततः समागमो राजन्कुरुपाण्डवसेनयोः। पुनरेवाभवत्तीव्रः पूर्णसागरयोरिव।। | 5-200-9a 5-200-9b |
संरब्धा हि स्थिरीभूता द्रोण पुत्रेण कौरवाः। उदग्राः पाण्डुपाञ्चाला द्रोणस्य निधनेन च।। | 5-200-10a 5-200-10b |
तेषां परमहृष्टानां जयमात्मनि पश्यताम्। संरब्धानां महावेगः प्रादुरासीद्विशाम्पते।। | 5-200-11a 5-200-11b |
यथा शिलोच्चये शैलः सागरैः सागरो यथा। प्रतिहन्येत राजेन्द्र तथाऽसन्कुरुपाण्डवाः।। | 5-200-12a 5-200-12b |
`चुक्षुभे पृथिवी सर्वा दिशश्च प्रतिसस्वनुः। सम्भ्रान्तान्यपि भूतानि जलजान्यपि मारिष। ते च सर्वे तदा योधाः सम्प्रहृष्टा युयुत्सवः'।। | 5-200-13a 5-200-13b 5-200-13b |
ततः शङ्खसहस्राणि भेरीणामयुतानि च। अवादयन्त संहृष्टाः कुरुपाण्डवसैनिकाः।। | 5-200-14a 5-200-14b |
यथा निर्मथ्यमानस्य सागरस्य तु निःस्वनः। अभवत्तव सैन्यस्य सुमहानद्भुतोपमः।। | 5-200-15a 5-200-15b |
`वर्तमाने तथा शब्दे रौद्रे तस्मिन्भयानके। सम्पतत्सु रथौघेषु तव तेषां च भारत'।। | 5-200-16a 5-200-16b |
प्रादुश्चक्रे ततो द्रौणिरस्त्रं नारायणं तदा। अभिसन्धाय पाण्डूनां पाञ्चालानां च वाहिनीं।। | 5-200-17a 5-200-17b |
प्रादुरासंस्ततो बाणा दीप्ताग्राः खे सहस्रशः। पाण्डवान्क्षपयिष्यन्तो दीप्तास्यः पन्नगा इव।। | 5-200-18a 5-200-18b |
ते दिशः खं च सैन्यं च समावृण्वन्महाहवे। मुहूर्ताद्भास्करस्येव लोके राजन्गभस्तयः।। | 5-200-19a 5-200-19b |
तथाऽपरे द्योतमाना ज्योतींषीवामलाम्बरे। प्रादुरासन्महाराज कार्ष्णायसमया गुडाः।। | 5-200-20a 5-200-20b |
चतुश्चक्रा द्विचक्राश्च शतघ्नो बहुला गदाः। चक्राणि च क्षुरान्तानि मण्डलानीव भास्वतः।। | 5-200-21a 5-200-21b |
शस्त्राकृतिभिराकीर्णमतीव पुरुषर्षभ। दृष्ट्वान्तरिक्षमाविग्नाः पाण्डुपाञ्चालसृञ्जयाः।। | 5-200-22a 5-200-22b |
यथायथा ह्ययुध्यन्त पाण्डवानां महारथाः। तथातथा तदस्त्रं वै व्यवर्धत जनाधिप।। | 5-200-23a 5-200-23b |
वध्यमानास्तदाऽस्त्रेण तेन नारायणेन वै। दह्यमानाऽनलेनेव सर्वतोऽभ्यर्दिता रणे।। | 5-200-24a 5-200-24b |
यथा हि शिशिरापाये दहेत्कक्षं हुताशनः। तथा तदस्त्रं पाण्डूनां ददाह ध्वजिनीं प्रभो।। | 5-200-25a 5-200-25b |
आपूर्यमाणेनास्त्रेण सैन्ये क्षीयति च प्रभो। जगाम परमं त्रासं धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।। | 5-200-26a 5-200-26b |
द्रवमाणं तु तत्सैन्यं दृष्ट्वा विगतचेतनम्। मध्यस्थतां च पार्थस्य धर्मपुत्रोऽब्रवीदिदम्।। | 5-200-27a 5-200-27b |
धृष्टद्युम्न पलायस्व सह पाञ्चालसेनया। सात्यके त्वं च गच्छस्व वृष्ण्यन्धकवृतो महान्।। | 5-200-28a 5-200-28b |
वासुदेवोऽपि धर्मात्मा करिष्यत्यात्मनः क्षमम्। श्रेयो ह्युपदिशत्येष लोकस्य किमुतात्मनः।। | 5-200-29a 5-200-29b |
सङ्ग्रामस्तु न कर्तव्यः सर्वसैन्यान्ब्रवीमि वः। अहं हि सह सोदर्यैः प्रवेक्ष्ये हव्यवाहनम्।। | 5-200-30a 5-200-30b |
भीष्मद्रोणार्णवं तीर्त्वा सङ्ग्रामे भीरुदुस्तरे। विमज्जिष्यामि सलिले सगणो द्रौणिगोष्पदे।। | 5-200-31a 5-200-31b |
कामः सम्पद्यतामस्य बीभत्सोराशु मां प्रति। कल्याणवृत्तिराचार्यो मया युधि निपातितः।। | 5-200-32a 5-200-32b |
येन बालः स सौभद्रो युद्धानामविशारदः। समर्थैर्बहुभिः क्रूरैर्घातितो नाभिपालितः।। | 5-200-33a 5-200-33b |
येन विब्रुवती प्रश्नं तथा कृष्णा सभां गता। उपेक्षिता सपुत्रेण दासीभावं नियच्छती।। | 5-200-34a 5-200-34b |
`रक्षणे च महान्यत्नः सैन्धवस्य कृतो युधि। अर्जुनस्य विघातार्थं प्रतिज्ञा येन रक्षिता।। | 5-200-35a 5-200-35b |
व्यूहद्वारि वयं चैव धृता येन जिगीषवः। वारितं च महत्सैन्यं प्रविशत्तद्यथाबलम्'।। | 5-200-36a 5-200-36b |
जिघांसुर्धार्तराष्ट्रश्च श्रान्तेष्वन्येषु फल्गुनम्। कवचेन तथा गुप्तो रक्षार्थं सैन्धवस्य च।। | 5-200-37a 5-200-37b |
येन ब्रह्मास्त्रविदुषा पाञ्चालाः सत्यजिन्मुखाः। कुर्वाणा मज्जये यत्नं समूला विनिपातिताः।। | 5-200-38a 5-200-38b |
`ग्रहणे च परो यत्नः कृतस्तेन यथा मम। विदितं सर्वमेवैतद्भवतां सर्वयोधिनाम्'।। | 5-200-39a 5-200-39b |
येन प्रव्राज्यमानाश्च राज्याद्वयमधर्मतः। निवार्यमाणेनास्माभिरनुगन्तुं तदेषिताः।। | 5-200-40a 5-200-40b |
`वनवासान्निवृत्तानां समये च तथा कृते। स्नेहश्च दर्शितो नित्यं प्रत्यक्षं वो महारथाः'।। | 5-200-41a 5-200-41b |
योऽसावत्यन्तमस्मासु कुर्वाणः सौहृदं परम्। हतस्तदर्थे मरणं गमिष्यामि सबान्धवः।। | 5-200-42a 5-200-42b |
सञ्जय उवाच। | 5-200-43x |
एवं ब्रुवति कौन्तेये दाशार्हस्त्वरितस्ततः। निवार्य सैन्यं बाहुभ्यामिदं वचनमब्रवीत्।। | 5-200-43a 5-200-43b |
शीघ्रं न्यस्यत शस्त्राणि वाहेभ्यश्चावरोहत। एष योगोऽत्र विहितः प्रतिघाते महात्मनः।। | 5-200-44a 5-200-44b |
द्विपाश्वस्यन्दनेभ्यश्च क्षितिं सर्वेऽवरोहत। एवमेतन्न वो हन्यादस्त्रं भूमौ निरायुधान्।। | 5-200-45a 5-200-45b |
यथायथा हि युध्यन्ते योधा ह्यस्त्रमिदं प्रति। तथातथा भवन्त्येते कौरवा बलवत्तराः।। | 5-200-46a 5-200-46b |
निक्षेप्स्यन्ति च शस्त्राणि वाहनेभ्योऽवरुह्य ये। येऽञ्जलिं कुर्वते वीर नमस्ति च विवाहनाः। तान्नैतदस्त्रं सङ्ग्रामे निहनिष्यति मानवान्।। | 5-200-47a 5-200-47b 5-200-47c |
ये त्वेतत्प्रतियोत्स्यन्ति मनसाऽपीह केचन। निहनिष्यति तान्सर्वान्रसातलगतानपि।। | 5-200-48a 5-200-48b |
ते वचस्तस्य तच्छ्रुत्वा वासुदेवस्य भारत। ईषुः सर्वे समुत्स्रष्टुं मनोभिः करणेन च।। | 5-200-49a 5-200-49b |
तत उत्स्रष्टुकामांस्तानस्त्राण्यालक्ष्य पाण्डवः। भीमसेनोऽब्रवीद्राजन्निदं संहर्षयन्वचः।। | 5-200-50a 5-200-50b |
न कथञ्चन शस्त्राणि मोक्तव्यानीह केनचित्। अहमावारयिष्यामि द्रोणपुत्रास्त्रमाशुगैः।। | 5-200-51a 5-200-51b |
गदयाऽप्यनया गुर्व्या हेमविग्रहया रणे। कालवत्प्रहरिष्यामि द्रौणेरस्त्रं विशातयन्।। | 5-200-52a 5-200-52b |
न हि मे विक्रमे तुल्यः कश्चिदस्ति पुमानिह। यथैव सवितुस्तुल्यं ज्योतिरन्यन्न विद्यते।। | 5-200-53a 5-200-53b |
पश्यतेमौ हि मे बाहू नागराजकरोपमौ। समर्थौ पर्वतस्यापि शैशिरस्य निपातने।। | 5-200-54a 5-200-54b |
नागायुतसमप्राणो ह्यहमेको नरेष्विह। शक्रो यथाऽप्रतिद्वन्द्वो दिवि देवेषु विश्रुतः।। | 5-200-55a 5-200-55b |
अद्य पश्यत मे वीर्यं बाह्वोः पीनांसयोर्युधि। ज्वलमानस्य दीप्तस्य द्रौणेरस्त्रस्य वारणे।। | 5-200-56a 5-200-56b |
यदि नारायणास्त्रस्य प्रतियोद्वा न विद्यते। अद्यैतत्प्रतियोत्स्यामि पश्यत्सु कुरुपाण्डुपु।। | 5-200-57a 5-200-57b |
अर्जुनार्जुन बीभत्सो न न्यस्यं गाण्डिवं त्वया। शशाङ्कस्येव ते पङ्को नैर्मल्यं पातयिष्यति।। | 5-200-58a 5-200-58b |
अर्जुन उवाच। | 5-200-59x |
भीम नारायणास्त्रे मे गोषु च ब्राह्मणेषु च। एतेषु गाण्डिवं न्यस्यमेतद्धि व्रतमुत्तमम्।। | 5-200-59a 5-200-59b |
एवमुक्तस्ततो भीमो द्रोणपुत्रमरिन्दमम्। अभ्ययान्मेघघोषेण रथेनादित्यवर्चसा।। | 5-200-60a 5-200-60b |
`कम्पयन्मेदिनीं सर्वां त्रासयंश्च चमूं तव। शङ्खशब्दं महत्कृत्वा भुजशब्दं च पाण्डवः।। | 5-200-61a 5-200-61b |
तस्य शङ्खस्वनं श्रुत्वा बाहुशब्दं च तावकाः। समन्तात्कोष्ठकीकृत्य शरव्रातैरवाकिरन्'।। | 5-200-62a 5-200-62b |
स एनमिषुजालेन लघुत्वाच्छीघ्रविक्रमः। निमेषमात्रेणासाद्य कुन्तीपुत्रोऽभ्यवाकिरत्।। | 5-200-63a 5-200-63b |
ततो द्रौणिः प्रहस्यैनं द्रवन्तमभिभाष्य च। अवाकिरत्प्रदीप्ताग्रैः शरैस्तैरभिमन्त्रितैः।। | 5-200-64a 5-200-64b |
पन्नगैरिव दीप्तास्यैर्वमद्भिर्ज्वलनं रणे। अवकीर्णोऽभवत्पार्थः स्फुलिङ्गैरिव काञ्चनैः।। | 5-200-65a 5-200-65b |
तस्य रूपमभूद्राजन्भीमसेनस्य संयुगे। खद्योतैरावृतस्येव पर्वतस्य दिनक्षये।। | 5-200-66a 5-200-66b |
तदस्त्रं द्रोणपुत्रस्य तस्मिन्प्रतिसमस्यति। अवर्धत महाराज यथाऽग्निरनिलोद्धतः।। | 5-200-67a 5-200-67b |
विवर्धमानमालक्ष्य तदस्त्रं भीमविक्रमम्। पाण्डुसैन्यमृते भीमं सुमहद्भयमाविशत्।। | 5-200-68a 5-200-68b |
ततः शस्त्राणि ते सर्वे समुत्सृज्य महीतले। अवारोहन्रथेभ्यश्च हस्त्यश्वेभ्यश्च सर्वशः।। | 5-200-69a 5-200-69b |
तेषु निक्षिप्तशस्त्रेषु वाहनेभ्यश्च्युतेषु च। तदस्त्रवीर्यं विपुलं भीममूर्धन्यथापतत्।। | 5-200-70a 5-200-70b |
हाहाकृतानि भूतानि पाण्डवाश्च विशेषतः। भीमसेनमपश्यन्त तेजसा संवृतं तथा।। | 5-200-71a 5-200-71b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि नारायणास्त्रमोक्षपर्वणि पञ्चदशदिवसयुद्धे द्विशततमोऽध्यायः।। 200 ।। |
5-200-20 गुडाः गोलाः हला इति क. क. पाठः।। 5-200-40 अस्माभिरस्मदीयैर्विदुरादिभिर्निवार्यमाणेन निषिध्यमानेनापि तद्वनमनुगन्तुं प्रवेष्टुमेषिता अनुमता नतु प्रतिषिद्धा इत्यर्थः।। 5-200-200 द्विशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-199 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-201 |