महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-037
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अभिमन्युपराक्रमवर्णनम्।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-37-1x |
तां प्रभाग्नां चमूं दृष्ट्वा सौभद्रेणामितौजसा। दुर्योधनो भृशं क्रुद्धः स्वयं सौभद्रमभ्ययात्।। | 5-37-1a 5-37-1b |
ततो राजानमावृत्तं सौभद्रं प्रति संयुगे। दृष्ट्वा द्रोणोऽब्रवीद्योधान्परीप्सध्वं नराधिपम्।। | 5-37-2a 5-37-2b |
पुराऽभिमन्युर्लक्षं नः पश्यतां हन्ति वीर्यवान्। तमाद्रवत माभैष्ट क्षिप्रं रक्षत कौरवम्। | 5-37-3a 5-37-3b |
सञ्जय उवाच। | 5-37-4x |
`एवमुक्तास्ततस्तेन भारद्वाजेन धीमता'। कृतज्ञानबलोत्सेधाः सुहृदो जितकाशिनः। त्रास्यमाना भयाद्वीरं परिवव्रुस्तवात्मजम्।। | 5-37-4a 5-37-4b 5-37-4c |
द्रोणो द्रौणिः कृपः कर्णः कृतवर्मा च सौबलः। बृहद्बलो मद्रराजो भूरिर्भूरिश्रवाः शलः।। | 5-37-5a 5-37-5b |
पौरवो वृषसेनश्च विसृजन्तः शिताञ्शरान्। सौभद्रं शरवर्षेण महता समवाकिरन्।। | 5-37-6a 5-37-6b |
सम्मोहयित्वा तमथ दुर्योधनममोचयन्। आस्याद्ग्रासमिवाक्षिप्तं ममृषे नार्जुनात्मजः।। | 5-37-7a 5-37-7b |
ताञ्शरौघेण महता साश्वसूतान्महारथान्। विमुखीकृत्य सौभद्रः सिंहनादमथानदत्।। | 5-37-8a 5-37-8b |
तस्य नादं ततः श्रुत्वा सिंहस्येवामिषैषिणः। नामृष्यन्त सुसंरब्धाः पुनर्द्रोणमुखा रथाः।। | 5-37-9a 5-37-9b |
त एनं कोष्ठकीकृत्य रथवंशेन मारिष। व्यसृजन्निषुजालानि नानालिङ्गानि सङ्घशः।। | 5-37-10a 5-37-10b |
तान्यन्तरिक्षे चिच्छेद पौत्रस्ते निशितैः शरैः। तांश्चैव प्रतिविव्याध तदद्भुतमिवाभवत्।। | 5-37-11a 5-37-11b |
`ततो रथपदात्योघाः कुञ्जराः सादिनश्च ह'। कोपितास्तेन शूरेण शरैराशीविषोपमैः। परिवब्रुर्जिघांसन्तः सौभद्रमपराजितम्।। | 5-37-12a 5-37-12b 5-37-12c |
समुद्रमिव पर्यस्तं त्वदीयं तं बलार्णवम्। दधारैकोऽर्जुनिर्बाणैर्वेलेवोद्वृत्तमर्णवम्।। | 5-37-13a 5-37-13b |
शूराणां युध्यमानानां निघ्नतामितरेतरम्। अभिमन्योः परेषां च नासीत्कश्चित्पराङ्मुखः।। | 5-37-14a 5-37-14b |
तस्मिंस्तु घोरे सङ्ग्रामे वर्तमाने भयङ्करे। दुःसहो नवभिर्बाणैरभिमन्युमविध्यत।। | 5-37-15a 5-37-15b |
दुःशानो द्वादशभिः कृपः शारद्वतस्त्रिभिः। द्रोणस्तु सप्तदशभिः शरैराशीविषोपमैः।। | 5-37-16a 5-37-16b |
विविंशतिस्तु सप्तत्या कृतवर्मा च सप्तभिः। बृहद्बलस्तथाऽष्टाभिरश्वत्थामा च सप्तभिः।। | 5-37-17a 5-37-17b |
भूरिश्रवास्त्रिभिर्बाणैर्मद्रेशः षङ्भिराशुगैः। द्वाभ्यां शराभ्यां शकुनिस्त्रिभिर्दुर्योधनो नृपः।। | 5-37-18a 5-37-18b |
स तु तान्प्रतिविव्याध त्रिभिस्त्रिभिरजिह्मगैः। | 5-37-19a |
नृत्यन्निव महाराज चापहस्तः प्रतापवान्।। | 5-37-19a |
ततोऽभिमन्युः सङ्क्रुद्धस्त्रास्यमानस्तवात्मजैः। विदर्शयन्वै सुमहच्छिक्षौरसकृतं बलम्।। | 5-37-20a 5-37-20b |
गरुडानिलरंहोभिर्यन्तुर्वाक्यकरैर्हयैः। अभ्यद्रवत तं कार्ष्णिमश्मकेन्द्रः कृतत्वरः।। | 5-37-21a 5-37-21b |
अश्वाश्चाश्मकमादाय त्वरमाणाऽभ्यहारयन्। विव्याध दशभिर्बाणैस्तिष्ठतिष्ठेति चाब्रवीत्।। | 5-37-22a 5-37-22b |
तस्याभिमन्युर्दशभिर्हयान्सूतं ध्वजं शरैः। बाहू धनुः शिरश्चोर्व्यां स्मयमानोऽभ्यपातयत्।। | 5-37-23a 5-37-23b |
ततस्तस्मिन्हते वीरे सौभद्रेणाश्मकेश्वरे। सञ्चचाल बलं सर्वं पलायनपरायणम्।। | 5-37-24a 5-37-24b |
ततः कर्णः कृपो द्रोणो द्रौणिर्गान्धारराट् शलः। शल्यो भूरिश्रवाः क्राथः सोमदत्तो विविंशतिः। वृषसेनः सुषेणश्च कुण्डभेदी प्रतर्दनः।। | 5-37-25a 5-37-25b 5-37-25c |
बृन्दारको ललित्थश्च प्रबाहुर्दीर्घलोचनः। दुर्योधनश्च सङ्क्रुद्धः शरवर्षैरवाकिरन्।। | 5-37-26a 5-37-26b |
सोऽतिविद्धो महेष्वासैरभिमन्युरजिह्मगैः। शरमादत्त कर्णाय वर्मकायावभेदिनम्।। | 5-37-27a 5-37-27b |
तस्य भित्त्वा तनुत्राणं देहं निर्भिद्य चाशुगः। प्राविशद्धरणीं वेगाद्वल्मी कमिव पन्नगः।। | 5-37-28a 5-37-28b |
स तेनातिप्रहारेण व्यथितो विह्वलन्निव। सञ्चचाल रणे कर्णः क्षितिकम्पे यथाऽचलः।। | 5-37-29a 5-37-29b |
तथान्यैर्निशितैर्बाणैः सुषेणं दीर्घलोचनम्। कुण्डभेदिं च सङ्क्रुद्धस्त्रिभिस्त्रीनवधीद्बली।। | 5-37-30a 5-37-30b |
कर्णस्तं पञ्चविंशत्या नाराचानां समार्पयत्। अश्वत्थामा च विंशत्या कृतवर्मा च सप्तभिः।। | 5-37-31a 5-37-31b |
स शराचितसर्वाङ्गः क्रुद्धः शक्रात्मजात्मजः। विचरन्ददृशे सैन्ये पाशहस्त इवान्तकः।। | 5-37-32a 5-37-32b |
शल्यं च शरवर्षेण समीपस्थामवाकिरत्। उदक्रोशन्महाबाहुस्तव सैन्यानि भीषयन्।। | 5-37-33a 5-37-33b |
ततः स विद्धोऽस्त्रविदा मर्मभिद्भिरजिह्मगैः। शल्यो राजन्रथोपस्थे निषसाद मुमोह च।। | 5-37-34a 5-37-34b |
तं हि दृष्ट्वा तथा विद्धं सौभद्रेण यशास्विना। सम्प्राद्रवच्चमूः सर्वा भारद्वाजस्य पश्यतः।। | 5-37-35a 5-37-35b |
सम्प्रेक्ष्य तं महाबाहुं रुक्मपुङ्खैः समावृतम्। त्वदीयाः प्रपलायन्ते मृगाः सिंहार्दिता इव।। | 5-37-36a 5-37-36b |
`सौभद्रशरनिर्भग्नाः समरेऽमरविक्रमाः। एवं शल्यो विमृदितस्तव पौत्रेण भारत'।। | 5-37-37a 5-37-37b |
स तु रणयशसाऽभिपूज्यमानः पितृसुरचारणसिद्धयक्षसङ्गैः अवनितलगतैश्च भूतसङ्घै-- रतिविबभौ हुतभुग्यथाऽऽज्यसिक्तः।। | 5-37-38a 5-37-38b 5-37-38c 5-37-38d |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि त्रयोदशदिवसयुद्धे सप्तत्रिंशोऽध्यायः।। 37 ।। |
5-37- त्रास्यमानाः पालयिष्यन्तः।। 5-37- पर्यस्तं उत्क्रान्तमर्यादम्।। 5-37- शिक्षौरसकृतं अभ्यासकृतं निसर्गभवं च।।
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