महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-013
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अर्जुनेन द्रोणप्रतिज्ञाभीतस्य युधिष्ठिरस्य समाश्वासनम्।। 1 ।। युद्धारम्भो द्रोणपराक्रमश्च।। 2 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-13-1x |
सान्तरे तु प्रतिज्ञाने राज्ञो द्रोणेन निग्रहे। ततस्ते सैनिकाः श्रुत्वा तं युधिष्ठिरनिग्रहम्। सिंहनादरवांश्चक्रुर्बाहुशब्दांश्च कृत्स्नशः।। | 5-13-1a 5-13-1b 5-13-1c |
तच्च सर्वं यथान्यायं धर्मराजेन भारत। आप्तैश्चारैः परिज्ञातं भारद्वाजचिकीर्षितम्।। | 5-13-2a 5-13-2b |
ततः सर्वान्समानाय्य भ्रातृनन्यांश्च सर्वशः। अव्रवीद्धर्मराजस्तु धनञ्जयमिदं वचः।। | 5-13-3a 5-13-3b |
श्रुतं ते पुरुषव्याघ्र द्रोणस्याद्य चिकीर्षितम्। यथा तन्न भवेत्सत्यं तथा नीतिर्विधीयताम्।। | 5-13-4a 5-13-4b |
सान्तरं हि प्रतिज्ञातं द्रोणेनामित्रघातिना। तच्चान्तरममोघेषौ त्वयि तेन समाहितम्।। | 5-13-5a 5-13-5b |
तत्त्वमद्य महाबाहो युध्यस्व मदनन्तरम्। यथा दुर्योधनः कामं नेमं द्रोणादवाप्नुयात्।। | 5-13-6a 5-13-6b |
अर्जुन उवाच। | 5-13-7x |
यथा मे न वधः कार्य आचार्यस्य कथञ्चन। तथा तव परित्यागो न मे राजंश्चिकीर्षितः।। | 5-13-7a 5-13-7b |
अप्येवं पाण्डव प्राणानुत्सृजेयमहं युधि। प्रतियाताऽहमाचार्यं त्वां न जह्यां कथञ्चन।। | 5-13-8a 5-13-8b |
त्वां निगृह्याहवे राजन्धार्तराष्ट्रो यमिच्छति। न स तं जीवलोकेऽस्मिन्कामं प्राप्ता कथञ्चन।। | 5-13-9a 5-13-9b |
प्रपतेद्द्यौः सनक्षत्रा पृथिवी शकली भवेत्। न त्वां द्रोणो निगृह्णीयाज्जीवमाने मयि ध्रुवम्।। | 5-13-10a 5-13-10b |
यदि तस्य रणे साह्यं कुरुते वज्रभृत्स्वयम्। विष्णुर्वा सहितो देवैर्न त्वां प्राप्स्यत्यसौ मृधे।। | 5-13-11a 5-13-11b |
मयि जीवति राजेन्द्र न भयं कर्तुमर्हसि। द्रोणादस्त्रभृतां श्रेष्ठात्सर्वशस्त्रभृतामपि।। | 5-13-12a 5-13-12b |
अन्यच्च ब्रूयां राजेन्द्र प्रतिज्ञां मम निश्चलाम्।। | 5-13-13a |
न स्मराम्यनृतं तावन्न स्मरामि पराजयम्। न स्मरामि प्रतिश्रुत्य विस्मृत्य मनस्वऽकृतम्।। | 5-13-14a 5-13-14b |
सञ्जय उवाच। | 5-13-15x |
ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च मृदङ्गाश्चानकैः सह। प्रावाद्यन्त महाराज पाण्डवानां निवेशने।। | 5-13-15a 5-13-15b |
सिंहनादश्च संजज्ञे पाण्डवानां महात्मनाम्।। धनुर्ज्यातलशब्दश्च गगनस्पृक्सुभैरवः।। | 5-13-16a 5-13-16b |
श्रुत्वा शङ्खस्य निर्घोषं पाण्डवस्य महौजसः। त्वदीयेष्वप्यनीकेषु वादित्राण्यभिजघ्निरे।। | 5-13-17a 5-13-17b |
ततो व्यूढान्यनीकानि तव तेषां च भारत। शनैरुपेयुरन्योन्यं योत्स्यमानानि संयुगे।। | 5-13-18a 5-13-18b |
ततः प्रववृते युद्धं तुमुलं रोमहर्षणम्। पाण्डवानां कुरूणां च द्रोणपाञ्चाल्ययोरपि।। | 5-13-19a 5-13-19b |
यतमानाः प्रयतेन द्रोणानीकविशातने। न शेकुः सृञ्जया युद्धे तद्धि द्रोणेन पालितम्।। | 5-13-20a 5-13-20b |
तथैव तव पुत्रस्य रथोदाराः प्रहारिणः। न शेकुः पाण्डवीं सेनां पाल्यमानां किरीटीना।। | 5-13-21a 5-13-21b |
आस्तां ते स्तिमिते सेने रक्ष्यमाणे परस्परम्। सम्प्रसुप्ते यथा नक्तं वनराज्यौ सुपुष्पिते।। | 5-13-22a 5-13-22b |
ततो रुक्मरथो राजन्नर्केणेव विराजता। वरूथिना विनिष्पत्य व्यचरत्पृतनामुखे।। | 5-13-23a 5-13-23b |
तमुद्यन्तं रथेनैकमाशुकारिणमाहवे। अनेकमिव सन्त्रसान्मेनिरे पाण्डुसृञ्जयाः।। | 5-13-24a 5-13-24b |
तेन मुक्ताः शरा घोरा विचेरुः सर्वतोदिशम्। त्रासयन्तो महाराज पाण्डवेयस्य वाहिनीम्।। | 5-13-25a 5-13-25b |
मध्यन्दिनमनुप्राप्तो गभस्तिशतसंवृतः। यथा दृश्येत घर्मोशुस्तथा द्रोणोऽप्यदृश्यत।। | 5-13-26a 5-13-26b |
न चैनं पाण्डवेयानां कश्चिच्छक्नोति भारत। वीक्षितुं समरे क्रुद्धं महेन्द्रमिव दानवाः।। | 5-13-27a 5-13-27b |
मोहयित्वा ततः सैन्यं भारद्वाजः प्रतापवान्। धृष्टद्युम्नबलं तूर्णं व्यधमन्निशितैः शरैः।। | 5-13-28a 5-13-28b |
स दिशः सर्वतो रुद्ध्वा संवृत्य खमजिह्मगैः। पार्षतो यत्र तत्रैनामभिनत्पाण्डुवाहिनीम्।। | 5-13-29a 5-13-29b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि एकादशदिवसयुद्धे त्रयोदशोऽध्यायः।। 13 ।। | |
0 अपनीते ततः पार्थे धर्मराजो जितस्त्वया।। | </text> 5-12-28b |
ग्रहणे हि जयस्तस्य न वधे पुरुषर्षभ। `ग्रहणं हि वधात्तस्य धर्मराजस्य मन्यसे'। अनेनैवाभ्युपायेन ग्रहणं समुपैष्यसि।। | 5-12-29a 5-12-29b 5-12-29c |
अहं गृहीत्वा राजानं सत्यधर्मपरायणम्। आनयिष्यामि ते राजन्वशमद्य न संशयः।। | 5-12-30a 5-12-30b |
यदि स्यास्यति सङ्ग्रामे मुहूर्तमपि मेऽग्रतः। अपनीते नरव्याघ्रे कुन्तीपुत्रे धनञ्जये।। | 5-12-31a 5-12-31b |
फल्गुनस्य समीपे तु न हि शक्यो युधिष्ठिरः। ग्रहीतुं समरे राजन्सेन्द्रैरपि सुरासुरैः।। | 5-12-32a 5-12-32b |
सञ्जय उवाच। | 5-12-33x |
`एवमुक्ते तदा तस्मिन्युद्धे देवासुरोपमे'। सान्तरं तु प्रतिज्ञाते राज्ञो द्रोणेन निग्रहे। गृहीतं तममन्यन्त तव पुत्राः सुबालिशाः।। | 5-12-33a 5-12-33b 5-12-33c |
ततो दुर्योधनेनापि ग्रहणं पाण्डवस्य तत्। `स्कन्धावारेषु सर्वेषु यथास्थानेषु मारिष'। सैन्यस्थानेषु सर्वेषु सुघोषितमरिन्दम।। | 5-12-34a 5-12-34b 5-12-34c |
पाण्डवेयेषु सापेक्षं द्रोणं जानाति ते सुतः। ततः प्रतिज्ञास्थैर्यार्थं स मन्त्रो बहुलीकृतः।। | 5-12-35a 5-12-35b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि द्वादशोऽध्यायः।। 12 ।। |
5-13-22 सम्प्रसुप्ते कृतपत्रसङ्कोचे।। 5-13-23 वरूथिना रथेन।। 5-13-13 त्रयोदशोऽध्यायः।।
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