महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-145
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कृष्णार्जुनयोः संवादः कर्णसात्यक्योर्युद्धं च।। 1 ।।
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धृतराष्ट्र उवाच। | 5-145-1x |
तदवस्थे हे तस्मिन्भूरिश्रवसि कौरवे। यथा भूयोऽभवद्युद्धं तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।। | 5-145-1a 5-145-1b |
सञ्जय उवाच। | 5-145-2x |
भूरिश्रवसि सङ्क्रान्ते परलोकाय भारत। वासुदेवं महाबाहुरर्जुनः समचूचुदत्।। | 5-145-2a 5-145-2b |
अर्जुन उवाच। | 5-145-3x |
चोदयाश्वान्भृशं कृष्ण यतो राजा जयद्रथः। [श्रूयते पुण्डरीकाक्ष त्रिषु धर्मेषु वर्तते।] प्रतिज्ञां सफलां चापि कर्तुमर्हसि मेऽनघ।। | 5-145-3a 5-145-3b 5-145-3c |
अस्तमेति महाबाहो त्वरमाणो दिवाकरः।। | 5-145-4a |
एतद्धि पुरुषव्याघ्र महदब्युद्यतं मया। कार्यं संरक्ष्यते चैष कुरुसेनामहारथैः।। | 5-145-5a 5-145-5b |
यथा नाभ्येति सूर्योऽस्तं यथा सत्यं भवेद्वचः। चोदयाश्वांस्तथा कृष्ण यथा हन्यां जयद्रथम्।। | 5-145-6a 5-145-6b |
`ततः कृष्णो महाबाहुरश्वान्रजतसन्निभान्। हयज्ञश्चोदयामास जयद्रथवधं प्रति।। | 5-145-7a 5-145-7b |
तं प्रयान्तममोघेषुमुत्पतद्भिरिवाशुगैः। त्वरमाणा महाराज सेनामुख्याः समाद्रवन्।। | 5-145-8a 5-145-8b |
दुर्योधनश्च कर्णश्च वृषसेनोऽथ मद्रराट्। अश्वत्थामा कृपश्चैव स्वयमेव च सैन्धवः।। | 5-145-9a 5-145-9b |
समासाद्य च बीभत्सुः सैन्धवं समुपस्थितम्। नेत्राभ्यां क्रोधदीप्ताभ्यां सम्प्रैक्षन्निर्दहन्निव'।। | 5-145-10a 5-145-10b |
यथाग्निरिन्धनेद्धौ वै क्रोधेन्धनसमीरितः। सैन्धवस्य मुखं त्यक्त्वा कर्णः सात्वतमभ्ययात्।। | 5-145-11a 5-145-11b |
उपायान्तं* तु राधेयं दृष्ट्वा पार्थो महारथः। प्रहसन्देवकीपुत्रमिदं वचनमब्रवीत्।। | 5-145-12a 5-145-12b |
एष प्रयात्याधिरथिः सात्यकेः स्यन्दनं प्रति। न मृष्यति हतं नूनं भूरिश्रवसमाहवे।। | 5-145-13a 5-145-13b |
यत्र यात्येष तत्र त्वं चोदयाश्वाञ्जनार्दन। न सौमदत्तिपदवीं गमयेत्सात्यकिं वृषः।। | 5-145-14a 5-145-14b |
सञ्जय उवाच। | 5-145-15x |
एवमुक्तो महाबाहुः केशवः सव्यसाचिना। प्रत्युवाच महातेजाः कालयुक्तमिदं वचः।। | 5-145-15a 5-145-15b |
अलमेष महाबाहुः कर्णायैकोऽपि पाण्डव। किं पुनर्द्रौपदेयाभ्यां सहितः सात्वतर्षभः।। | 5-145-16a 5-145-16b |
न च तावत्क्षमः पार्थ तव कर्णेन सङ्गरः। प्रज्वलन्ती महोल्केव तिष्ठत्यस्मिन्हि वासवी। त्वदर्थं पूज्यमानैषा रक्ष्यते परवीरहन्।। | 5-145-17a 5-145-17b 5-145-17c |
`न कर्णं प्राकृतं मन्ये तेन योद्धुं न साम्प्रतम्। यः कर्णो बलवानेष शक्तोऽस्माञ्जेतुमोजसा।। | 5-145-18a 5-145-18b |
कर्णस्यैष महान्दोषो यद्दूयेन पदेपदे। प्रमादाच्च घृणित्वाच्च तेन शोचिति मे मनः'।। | 5-145-19a 5-145-19b |
अतः कर्णः प्रयात्वत्र सात्वतस्य यथा तथा। अहं ज्ञास्यामि कौन्तेय कालमस्य दुरात्मनः।। | 5-145-20a 5-145-20b |
यत्रैनं विशिखैस्तीक्ष्णैः पातयिष्यसि भूतले। तदा गन्तासि पार्थ त्वं तेन योद्धुं दुरात्मना।। | 5-145-21a 5-145-21b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-145-22x |
योऽसौ कर्णेन वीरस्य वार्ष्णेयस्य समागमः। हते तु भूरिश्रवसि तद्युद्धमभवत्कथम्।। | 5-145-22a 5-145-22b |
सात्यकिश्चापि विरथः कं समारूढवान्रथम्। चक्ररक्षौ च पाञ्चाल्यौ तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।। | 5-145-23a 5-145-23b |
सञ्जय उवाच। | 5-145-24x |
हन्त ते कथयिष्यामि यथावृत्तं महारणे। पश्यतां सर्वसैन्यानां केशवार्युनयोरपि। शुश्रूषस्व स्थिरो भूत्वा दुराचरितमात्मनः।। | 5-145-24a 5-145-24b 5-145-24c |
xxमेव हि कृष्णस्य मनोगतमिदं प्रभो। विजेतव्यो यथा वीरः सात्यकिः सौमदत्तिना।। | 5-145-25a 5-145-25b |
अतीतानागते राजन्स हि वेत्ति जनार्दनः। ततः सूतं समाहूय दारुकं संदिदेश ह। | 5-145-26a 5-145-26b |
रथो मे युज्यतां कल्यमिति राजन्महाबालः।। न हि देवा न गन्धर्वा न यक्षोरगराक्षसाः। मानवा वाऽपि जेतारः कृष्णयोः सन्ति केचन। | 5-145-27a 5-145-27b 5-145-27c |
पितामहपुरोगाश्च देवाः सिद्धाश्च तं विदुः। तयोः प्रभावमतुलं शृणु युद्धं तु तत्तथा।। | 5-145-28a 5-145-28b |
सात्यकिं विरथं दृष्ट्वा कर्णं चाभ्युद्यतं रणे। दध्मौ शङ्खं महानादमार्षभेणाथ माधवः।। | 5-145-29a 5-145-29b |
दारुकोऽवेत्य सन्देशं श्रुत्वा शङ्खस्य च स्वनम्। रथमन्वानयत्तस्मै सुपर्णोच्छ्रितकेतनम्।। | 5-145-30a 5-145-30b |
स केशवस्यानुमते रथं दारुकसंयुतम्। आरुरोह शिनेः पौत्रो ज्वलनादित्यसन्निभम्।। | 5-145-31a 5-145-31b |
कामगैः शैव्यसुग्रीवमेघपुष्पवलाहकैः। हयोदग्रैर्महावेगैर्हेमभाण्डविभूषितैः।। | 5-145-32a 5-145-32b |
युक्तं समारुह्य च तं विमानप्रतिमं रथम्। अभ्यद्रवत राधेयं प्रवपन्सायकान्बहून्।। | 5-145-33a 5-145-33b |
चक्ररक्षावपि तदा युधामन्यूत्तमौजसौ। धनञ्जयरथं हित्वा राधेयं प्रत्युदीयतुः।। | 5-145-34a 5-145-34b |
राधेयोऽपि महाराज शरवर्षं समुत्सृजन्। अभ्यद्रवत्सुसङ्क्रुद्धो रणे शैनेयमच्युतम्।। | 5-145-35a 5-145-35b |
नैव दैवं न गान्धर्वं नासुरं न च राक्षसम्। तादृशं भुवि नो युद्धं दिवि वा श्रुतमित्युत। उपारसत तत्सैन्यं सरथाश्वनरद्विपम्।। | 5-145-36a 5-145-36b 5-145-36c |
तयोर्दृष्ट्वा महाराज कर्म सम्मूढचेतसः। सर्वे च समपश्यन्त तद्युद्धमतिमानुषम्।। | 5-145-37a 5-145-37b |
तयोर्नृवरयो राजन्सारथ्यं दारुकस्य च।। | 5-145-38a |
गतप्रत्यागतावृत्तैर्मण्डलैः सन्निवर्तनैः। सारथेस्तु रथस्थस्य काश्यपेयस्य विस्मिताः।। | 5-145-39a 5-145-39b |
नभस्तलगताश्चैव देवगान्धर्वदानवाः। अतीवावहिता द्रष्टुं कर्णशैनेययो रणम्।। | 5-145-40a 5-145-40b |
मित्रार्थे तौ पराक्रान्तौ शुष्मिणौ स्पर्धिनौ रमे।। | 5-145-41a |
कर्णश्चामरसङ्काशो युयुधानश्च सात्यकिः। अन्योन्यं तौ महाराज शरवर्षैरवर्षताम्।। | 5-145-42a 5-145-42b |
प्रममाथ शिनेः पौत्रं कर्णः सायकवृष्टिभिः। अमृष्यमाणो निधनं कौरव्यजलसन्धयोः।। | 5-145-43a 5-145-43b |
कर्णः शोकसमाविष्टो महोरग इव श्वसन्। स शैनेयं रणे क्रुद्धः प्रदहन्निव चक्षुषा। अभ्यधावत वेगेन पुनःपुनररिन्दम।। | 5-145-44a 5-145-44b 5-145-44c |
तं तु सक्रोधमालोक्य सात्यकिः प्रत्ययुध्यत। महता शरवर्षेण गजं प्रतिगजो यथा।। | 5-145-45a 5-145-45b |
तौ समेतौ नरव्याघ्रौ व्याघ्राविव तरस्विनौ। अन्योन्यं सन्ततक्षाते रणेऽनुपमविक्रमौ।। | 5-145-46a 5-145-46b |
ततः कर्णं शिनेः पौत्रः सर्वपारसवैः शरैः। बिभेद सर्वगात्रेषु पुनःपुनररिन्दम।। | 5-145-47a 5-145-47b |
सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपातयत्। अश्वांश्च चतुरः श्वेतान्निजघान शितैः शरैः।। | 5-145-48a 5-145-48b |
छित्त्वा ध्वजं रथं चैव शतधा पुनर्षर्षभ। चकार विरथं कर्णं तव पुत्रस्य पश्यतः।। | 5-145-49a 5-145-49b |
ततो विमनसो राजंस्तावकास्ते महारथाः। वृषसेनः कर्णसुतः शल्यो मद्राधिपस्तथा। | 5-145-50a 5-145-50b |
द्रोणपुत्रश्च शैनेयं सर्वतः पर्यवारयन्।। ततः पर्याकुलं सर्वं न प्राज्ञायत किंचन।। | 5-145-51a 5-145-51b |
तथा सात्यकिना वीरे विरथे सूतजे कृते। हाहाकारस्ततो राजन्सर्वसैन्येष्वभून्महान्।। | 5-145-52a 5-145-52b |
कर्णोऽपि विरथो राजन्सात्वतेन कृतः शरैः। दुर्योधनरथं तूर्णमारुरोह विनिःश्वसन्।। | 5-145-53a 5-145-53b |
मानयंस्तव पुत्रस्य बाल्यात्प्रभृति सौहृदम्। कृतां राज्यप्रदानेन प्रतिज्ञां परिपालयन्।। | 5-145-54a 5-145-54b |
तथा तु विरथं कर्णं पुत्रांश्च परिपालयन्।। दुःशासनमुखान्वीरान्नावधीत्सात्यकिर्वशी।। | 5-145-55a 5-145-55b |
रक्षन्प्रतिज्ञां भीमेन पार्थेन च पुराकृताम्। विरथान्विह्वलांश्चक्रे न तु प्राणैर्व्ययोजयत्।। | 5-145-56a 5-145-56b |
भीमसेनेन तु वदः पुत्राणां ते प्रतिश्रुतः। अनुद्यूते च पार्थेन वधः कर्णस्य संश्रुतः।। | 5-145-57a 5-145-57b |
वधे त्वकुर्वन्यत्नं ते तस्य कर्णमुखास्तदा। नाशक्नुवंस्ततो हन्तुं सात्यकिं प्रवरा रथाः।। | 5-145-58a 5-145-58b |
द्रौणिश्च कृतवर्मा च तथैवान्ये महारथाः। निर्जिता धनुषैकेन शतशः क्षत्रियर्षभाः। काङ्क्षता परलोकं च धर्मराजस्य च प्रियम्।। | 5-145-59a 5-145-59b 5-145-59c |
कृष्णयोः सदृशो वीर्ये सात्यकिः शत्रुतापनः। जितवान्सर्वसैन्यानि तावकानि हसन्निव।। | 5-145-60a 5-145-60b |
कृष्णो वाऽपि भवेल्लोके पार्थो बाऽपि धनुर्धरः। शैनेयो वा नरव्याघ्र चतुर्थस्तु न विद्यते।। | 5-145-61a 5-145-61b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-145-62x |
अजय्यं वासुदेवस्य रथमास्थाय सात्यकिः। विरथं कृतवान्कर्णं वासुदेवसमो युधि। दारुकेण समायुक्तः स्वबाहुबलदर्पितः।। | 5-145-62a 5-145-62b 5-145-62c |
कच्चिदन्यं समारूढः सात्यकिः शत्रुतापनः। एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं कुशलो ह्यसि भाषितुम्। असह्यं तमहं मन्ये तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।। | 5-145-63a 5-145-63b 5-145-63c |
सञ्जय उवाच। | 5-145-64x |
शृणु राजन्यथावृत्तं रथमन्यं महामतिः। दारुकस्यानुजस्तूर्णं कल्पनाविदिकल्पितम्।। | 5-145-64a 5-145-64b |
आयसैः काञ्चनैश्चापि पट्टैः सन्नद्धकूबरम्। तारासहस्रखचितं सिंहध्वजपताकिनम्।। | 5-145-65a 5-145-65b |
अश्वैर्वातजवैर्युक्तं हेमभाण्डपरिच्छदैः। सैन्धवैरिन्दुसङ्काशैः सर्वशब्दातिगैर्दृढैः।। | 5-145-66a 5-145-66b |
चित्रकाञ्चनसन्नाहैर्वाजिमुख्यैर्विशाम्पते। घण्टाजालाकुलरवं शक्तितोमरविद्युतम्।। | 5-145-67a 5-145-67b |
युक्तं साङ्ग्रामिकैर्द्रव्यैर्बहुशस्त्रपरिच्छदैः। रथं सम्पादयामास मेघगम्भीरनिःस्वनम्।। | 5-145-68a 5-145-68b |
तं समारुह्य शैनेयस्तव सैन्यमुपाद्रवत्। दारुकोऽपि यथाकामं प्रययौ केशवान्तिकम्।। | 5-145-69a 5-145-69b |
कर्णस्यापि रथं राजञ्शङ्खगोक्षीरपाण्डुरैः। चित्रकाञ्चनसन्नाहैः सदश्वैर्वेगवत्तरैः।। | 5-145-70a 5-145-70b |
हेमकक्ष्याध्वजोपेतं क्लृप्तयन्त्रपताकिनम्। अग्र्यं रथं सुयन्तारं बहुशस्त्रपरिच्छदम्। उपाजह्रुस्तमास्थाय कर्णोऽप्यभ्यद्रवद्रिपून्।। | 5-145-71a 5-145-71b 5-145-71c |
एतत्ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि। भूयश्चापि निबोधेमं तवापन्नयजं क्षयम्।। | 5-145-72a 5-145-72b |
एकत्रिंशत्तव सुता भीमसेनेन पातिताः। दुर्मुखं प्रमुखे कृत्वा सततं चित्रयोधिनम्।। | 5-145-73a 5-145-73b |
शतशो निहताः शूराः सात्वतेनार्जुनेन च। भीष्मं प्रमुखतः कृत्वा भगदत्तं च भारत। एवमेष क्षयो वृत्तो राजन्दुर्मन्त्रिते तव।। | 5-145-74a 5-145-74b 5-145-74c |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे पञ्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 145 ।। |
5-145-3 हेपुण्डरीकाक्ष स जयद्रथस्त्रिषु धर्मेषु वर्तते इति श्रूयते के पुनस्ते त्रयो धर्माः। अत्रोच्यते। यदि युध्यमानो हन्यते तदा तूर्णं स्वर्गप्राप्तिरेव तस्य धर्मः। अथ पलायमानो हन्यते तदा नरकप्राप्तिरेव तस्य धर्मः। अथ मद्भयात्स्वदेशं गच्छति तदा यशःशरीरनाश एव तस्य धर्मः। यावदसौ युद्धाभिमुखः प्रथमधर्मे तिष्ठति तावदेव हन्तुमुचितः अतः शीघ्रमश्वांश्चोदयेति। कुण्डलितोऽयं श्लोकार्धः झ.पुस्तक एव दृश्यते।। 5-145-7 हयज्ञः हयहृदयज्ञः।। 5-145-8 आशुगैः मारुतैः।। 5-145-14 वृषः कर्णः।। 5-145-* इत आरभ्य उत्तराध्यायस्थ--मन्दरश्मिः सहस्रांशुरस्तङ्गिरिमुपाद्रवत् इति 25 तमश्लोकपर्यन्तं विद्यमानाः श्लोकः झ. पुस्तके जयद्रथवधादनन्तरं वर्तन्ते। 5-145-17 वासवी शक्तिरिति शेषः।। 5-145-20 यथा प्रयाति तथा प्रयात्विति योज्यम्। ज्ञास्यमि ज्ञापयिष्यामि।। 5-145-21 यत्र काले।। 5-145-25 पूर्वं पूर्वेद्युः।। 5-145-26 कल्यं प्रातः।। 5-145-29 आर्षभेण स्वार्थे तद्वितः। ऋषभस्वरेण।। 5-145-39 काश्यपेयस्य दारुकस्य।। 5-145-57 अनुद्यूते पुनर्द्यूते।। 5-145-145 पञ्चचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-144 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-146 |