महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-154
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युधिष्ठिरेण दुर्योधनपराजयः।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-154-1x |
तदुदीर्णं रथाश्वौघं बलं तव जनाधिप। पाण्डुसेनामतिक्रम्य योधयामास सर्वतः।। | 5-154-1a 5-154-1b |
पाञ्चालाः कुरवश्चैव योधयन्तः परस्परम्। यमराष्ट्राय महते परलोकाय दीक्षिताः।। | 5-154-2a 5-154-2b |
शूराः शूरैः समागम्य शरतोमरशक्तिभिः। विव्यधुः समरेऽन्योन्यं निन्युश्चैव यमक्षयम्।। | 5-154-3a 5-154-3b |
रथिनां रथिभिः सार्धं रुधिरस्रावदारुणम्। प्रावर्तत महद्युद्धं निघ्नतामितरेतरम्।। | 5-154-4a 5-154-4b |
वारणाश्च महाराज समासाद्य परस्परम्। विषाणैर्दारयामासुः सुसङ्क्रुद्धा मदोत्कटाः।। | 5-154-5a 5-154-5b |
हयारोहान्हयारोहाः प्रासशक्तिपरश्वथैः। बिभिदुस्तुमुले युद्धे प्रार्थयन्तो महद्यशः।। | 5-154-6a 5-154-6b |
पत्तयश्च महाबाहो शतशः शस्त्रपाणयः। अन्योन्यमार्दयन्राजन्नित्यं यत्ताः पराक्रमे।। | 5-154-7a 5-154-7b |
गोत्राणां नामधेयानां कुलानां चैव मारिष। श्रवणाद्धि विजानीमः पाञ्चालान्कुरुभिः सह।। | 5-154-8a 5-154-8b |
तेऽन्योन्यं समरे योधाः शरशक्तिपरश्वथैः। प्रैषयन्परलोकाय विचरन्तो ह्यभीतवत्।। | 5-154-9a 5-154-9b |
शरैर्दश दिशो राजंस्तेषां मुक्तैः सहस्रशः। न भ्राजन्ते यथा पूर्वं भास्करस्य च नाशनात्।। | 5-154-10a 5-154-10b |
तथा प्रयुध्यमानेषु पाण्डवेयेषु भारत। दुर्योधनो महाराज व्यवागाहत तद्बलम्।। | 5-154-11a 5-154-11b |
सैन्धवस्य वधेनैव भृशं दुःखसमन्वितः। मर्तव्यमिति संचिन्त्य प्राविशच्च द्विषद्बलम्।। | 5-154-12a 5-154-12b |
नादयन्रथघोषेण कम्पयन्निव मेदिनीम्। अभ्यवर्तत पुत्रस्ते पाण्डवानामनीकिनीम्।। | 5-154-13a 5-154-13b |
स सन्निपातस्तुमुलस्तस्य तेषां च भारत। अभवत्सर्वसैन्यानामभावकरमो महान्।। | 5-154-14a 5-154-14b |
`धृतराष्ट्र उवाच। | 5-154-15x |
तथा हतेषु सैन्येषु तथा कृच्छ्रगतः स्वयम्। कच्चिद्दुर्योधनः सूत नाकार्षीत्पृष्ठतो रणम्।। | 5-154-15a 5-154-15b |
एकस्य च बहुनां च सन्निपातो महानभूत्। विशेषतो हि नृपतेर्विषमं प्रतिभाति मे।। | 5-154-16a 5-154-16b |
सोऽत्यन्तसुखसंवृद्धो रक्ष्यो लोकस्य चेश्वरः। एको बहून्समासाद्य कच्चिन्नासीत्पराङ्मुखः।। | 5-154-17a 5-154-17b |
द्रोणः कर्णः कृपश्चैव कृतवर्मा च सात्वतः। नावारयन्कथं युद्धे राजानं राज्यकाङ्क्षिणः।। | 5-154-18a 5-154-18b |
सर्वोपायैर्हि युद्धेषु रक्षितव्यो महीपतिः। एषा नीतिः परा युद्धे दृष्टा तत्र मनीषिभिः।। | 5-154-19a 5-154-19b |
प्रविष्टे वै मम सुते परेषां वै महद्बलम्। मामका रथिनां श्रेष्ठाः किमकुर्वत स़ञ्जय।। | 5-154-20a 5-154-20b |
सञ्जय उवाच। | 5-154-21x |
राजन्सङ्ग्राममाश्चर्यं पुत्रस्य तव भारत। एकस्य च बहूनां च शृणु मे ब्रुवतो ध्रुवम्।। | 5-154-21a 5-154-21b |
द्रोणेन वार्यमाणोऽसौ कर्णेन च कृपेण च। प्राविशत्पाण्डवीं सेनां मकरः सागरं यथा।। | 5-154-22a 5-154-22b |
किरन्निषुसहस्राणि तत्रतत्र तथातथा। पाञ्चालान्पाण्डवांश्चैव विव्याध निशितैः शरैः।। | 5-154-23a 5-154-23b |
यथोदयगतः सूर्यो रश्मिभिर्नाशयेत्तमः। तथा पुत्रस्तव बलं नाशयत्तन्महाबलः'।। | 5-154-24a 5-154-24b |
यथा मध्यन्दिने सूर्यं प्रतपन्तं गभस्तिभिः। तथा तव सुतं मध्ये प्रतपन्तं शरार्चिभिः। न शेकुर्भारतं युद्धे पाण्डवाः समुदीक्षितुम्।। | 5-154-25a 5-154-25b 5-154-25c |
पलायनकृतोत्साहा निरुत्साहा द्विषज्जये। पर्यधावन्त पाञ्चाला वध्यमाना महात्मना।। | 5-154-26a 5-154-26b |
रुक्मपुङ्खैः प्रसन्नाग्रैस्तव पुत्रेण धन्विना। अर्द्यमानाः शरैस्तूर्णं न्यपतन्पाण्डुसैनिकाः।। | 5-154-27a 5-154-27b |
`व्यद्रवंश्च भयाद्योधा दृष्ट्वा तं परमाहवे। व्यात्ताननमिव प्राप्तमन्तकं प्राणहारिणम्'।। | 5-154-28a 5-154-28b |
न तादृशं रमे कर्म कृतवन्तस्तु तावकाः। यादृशं कृतवान्राजा पुत्रस्तव विशाम्पते।। | 5-154-29a 5-154-29b |
पुत्रेण तव सा सेना पाण्डवी मथिता रणे। नलिनी द्विरदेनेव समन्तात्फुल्लपङ्कजा।। | 5-154-30a 5-154-30b |
क्षीणतोयानिलार्काभ्यां हतत्विडिव पद्मिनी। बभूव पाण्डवी सेना तव पुत्रस्य तेजसा।। | 5-154-31a 5-154-31b |
पाण्डुसेनां हतां दृष्ट्वा तव पुत्रेण भारत। भीमसेनपुरोगास्तु पाञ्चालाः समुपाद्रवन्।। | 5-154-32a 5-154-32b |
स भीमसेनं दशभिर्माद्रीपुत्रौ त्रिभिस्त्रिभिः। विराटद्रुपदौ षड्भिः शतेन च शिखण्डिनम्।। | 5-154-33a 5-154-33b |
धृष्टद्युम्नं च सप्तत्या धर्मपुत्रं च सप्तभिः। केकयांश्चैव चेदींश्च बहुभिर्निशितैः शरैः।। | 5-154-34a 5-154-34b |
सात्वतं पञ्चभिर्विद्धा द्रौपदेयांस्त्रिभिस्त्रिभिः। घटोत्कचं च समरे विद्ध्वा सिंह इवानदत्।। | 5-154-35a 5-154-35b |
शतशश्चापरान्योधान्सद्विपांश्च महारणे। शरैरवचकर्तोग्रैः क्रुद्धोऽन्तक इव प्रजाः।। | 5-154-36a 5-154-36b |
सा तेन पाण्डवी सेना वध्यमाना शिलीमुखैः। तव पुत्रेण सङ्ग्रामे विदुद्राव नराधिप।। | 5-154-37a 5-154-37b |
तं तपन्तमिवादित्यं कुरुराजं महाहवे। नाशकन्वीक्षितुं राजन्पाण्डुपुत्रस्य सैनिकाः।। | 5-154-38a 5-154-38b |
ततो युधिष्ठिरो राजा कुपितो राजसत्तम। अभ्यधावत्कुरुपतिं तव पुत्रं जिघांसया।। | 5-154-39a 5-154-39b |
तावुभौ युधि कौरव्यौ समीयतुररिन्दमौ। स्वार्थहेतोः पराक्रान्तौ दुर्योधनयुधिष्ठिरौ।। | 5-154-40a 5-154-40b |
ततो दुर्योधनः क्रुद्धः शरैः सन्नतपर्वभिः। विव्याध दशभिस्तूर्णं ध्वजं चिच्छेद चेषुणा।। | 5-154-41a 5-154-41b |
इन्द्रसेनं त्रिभिश्चैव ललाटे जघ्निवान्नृप। सारथिं दयितं राज्ञः पाण्डवस्य महात्मनः।। | 5-154-42a 5-154-42b |
धनुश्च पुनरन्येन चकर्तास्य महारथः। चतुर्भिश्चतुरश्चैव बाणैर्विव्याध वाजिनाः।। | 5-154-43a 5-154-43b |
ततो युधिष्ठिरः क्रुद्धो निमेषादिव कार्मुकम्। अन्यदादाय वेगेन कौरवं प्रत्यवारयत्।। | 5-154-44a 5-154-44b |
तस्य तान्निघ्नतः शत्रून्रुक्मपृष्ठं महद्धनुः। भल्लाभ्यां पण्डवो ज्येष्ठस्त्रिधा चिच्छेद मारिष।। | 5-154-45a 5-154-45b |
विव्याध चैनं दशभिः सम्यगस्तैः शितैः शरैः। मर्म भित्त्वा तु ते सर्वे संलग्नाः क्षितिमाविशन्।। | 5-154-46a 5-154-46b |
ततः परिवृता योधाः परिवव्रुर्युधिष्ठिरम्। वृत्रेण सह युध्यन्तं यद्वद्देवाः शतक्रतुम्।। | 5-154-47a 5-154-47b |
ततो युधिष्ठिरो राजा तव पुत्रस्य मारिष। शरं च सूर्यरश्म्याभमत्युग्रमनिवारणम्। हा हतोऽसीति राजानमुक्त्वाऽमुञ्चद्युधिष्ठिरः।। | 5-154-48a 5-154-48b 5-154-48c |
स तेनाकर्णमुक्तेन विद्धो बाणेन कौरवः। निषसाद रथोपस्थे भृशं सम्मूढचेतनः।। | 5-154-49a 5-154-49b |
ततः पाञ्चाल्यसेनानां भृशमासीद्रवो महान्। हतो राजेति राजेन्द्र मुदितानां समन्ततः।। | 5-154-50a 5-154-50b |
बाणशब्दरवश्चोग्रः शुश्रुवे तत्र मारिष। अथ द्रोणो द्रुतं तत्र प्रत्यदृश्यत संयुगे।। | 5-154-51a 5-154-51b |
हृष्टो दुर्योधनश्चापि दृढमादाय कार्मुकम्। तिष्ठतिष्ठेति राजानं ब्रुवन्पाण्डवमभ्ययात्।। | 5-154-52a 5-154-52b |
प्रत्युद्ययुस्तं त्वरिताः पाञ्चाला जयगृद्धिनः। तान्द्रोणः प्रतिजग्राह परीप्सन्कुरुसत्तमम्। चण्डवातः समुद्वूतो मेघानम्बुमुचो यथा।। | 5-154-53a 5-154-53b 5-154-53c |
ततो राजन्महानासीत्सङ्ग्रामो भूरिवर्धनः। तावकानां परेषां च समेतानां युयुत्सया।। | 5-154-54a 5-154-54b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे चतुःपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 154 ।। |
5-154-8 गोत्रं पित्रादि नाम शैनेय सात्यके इत्यादि। कुलं पाण्ड्यपाञ्चाल्येत्यादि।। 5-154-46 सम्यगस्तैः दृढं प्रक्षिप्तैः।। 5-154-51 बाणशब्दरवो बाणशब्दसहितो रवः प्राणिशब्दः।। 5-154-54 भूरिवर्धनो बहुच्छेदनः।। 5-154-154 चतुःपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।।
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