महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-094
← द्रोणपर्व-093 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-094 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-095 → |
अर्जुनाद्भीतेन दुर्योधनेन द्रोणमेत्य तदुपालम्भपूर्वकं जयद्रथम्प्रति शोचनम्।। 1 ।। द्रोणेन दुर्योधनस्य मन्त्रोच्चारणपूर्वकं कवचमाबध्यार्जुनेन सह युद्धाय प्रेषणम्।। 2 ।।
|
सञ्जय उवाच। | 5-94-1x |
ततः प्रविष्टे कौन्तेये सिन्धुराजजिघांसया। द्रोणानीकं विनिर्भिद्य भोजानीकं च दुस्तरम्।। | 5-94-1a 5-94-1b |
काम्भोजस्य च दायादे हते राजन्सुदक्षिणे। श्रुतायुषि च विक्रान्ते निहते सव्यसाचिना।। | 5-94-2a 5-94-2b |
विप्रद्रुतेष्वनीकेषु विध्वस्तेषु समन्ततः। प्रभग्नं स्वबलं दृष्ट्वा पुत्रस्ते द्रोणमभ्ययात्।। | 5-94-3a 5-94-3b |
त्वरन्नेकरथेनैव समेत्य द्रोणमब्रवीत्। गतः स पुरुषव्याघ्रः प्रमथ्यैतां महाचमूम्।। | 5-94-4a 5-94-4b |
अथ बुद्ध्या समीक्षस्व किन्नु कार्यमनन्तरम्। अर्जुनस्य विघाताय दारुणेऽस्मिञ्जनक्षये।। | 5-94-5a 5-94-5b |
यथा स पुरुषव्याघ्रो न हन्येत जयद्रथः। तथा विधत्स्व भद्रं ते त्वं हि नः परमा गतिः।। | 5-94-6a 5-94-6b |
असौ धनञ्जयाग्निर्हि कोपमारुतचोदितः। सेनाकक्षं दहति मे वह्निः कक्षमिवोत्थितः।। | 5-94-7a 5-94-7b |
अतिक्रान्ते हि कौन्तेये भित्त्वा सैन्यं परन्तप। जयद्रथस्य गोप्तारः संशयं परमं गताः।। | 5-94-8a 5-94-8b |
स्थिरा बुद्धिर्नरेन्द्राणमासीद्ब्रह्मविदां वर। नातिक्रमिष्यति द्रोणं जातु जीवन्धनञ्जयः।। | 5-94-9a 5-94-9b |
योऽसौ पाथो व्यतिक्रान्तो मिषतस्ते महाद्युते। सर्वं ह्यद्यातुरं मन्ये नेदमस्ति बलं मम।। | 5-94-10a 5-94-10b |
जानामि त्वां महाभाग पाण्डवानां हिते रतम्। ततो मुह्यामि च ब्रह्मन्कार्यवत्तां विचिन्तयन्।। | 5-94-11a 5-94-11b |
यथाशक्ति च ते ब्रह्मन्वर्धयन्वृत्तिमुत्तमाम्। प्रीणामि च यथाशक्ति तच्च त्वं नावबुध्यसे।। | 5-94-12a 5-94-12b |
अस्मान्न त्वं सदा भक्तानिच्छस्यमितविक्रम। पाण्डवान्सततं प्रीणास्यास्माकं विप्रिये रतान्।। | 5-94-13a 5-94-13b |
अस्मानेवोपजीवंस्त्वमस्माकं विप्रिये रतः। न ह्यहं त्वां विजानामि मधुदिग्धमिव क्षुरम्।। | 5-94-14a 5-94-14b |
`नह्यहं त्वां विजानामि सर्वं मण्डूकराविणम्'। नादास्यच्चेद्वरं मह्यं भवान्पाण्डवनिग्रहे। नावारयिष्यं गच्छन्तमहं सिन्धुपतिं गृहान्।। | 5-94-15a 5-94-15b 5-94-15c |
मया त्वाशंसमानेन त्वत्तस्त्राणमबुद्धिना। आश्वासितः सिन्धुपतिर्मोहाद्दत्तश्च मृत्यवे।। | 5-94-16a 5-94-16b |
यमदंष्ट्रान्तरं प्राप्तो मुच्येतापि हि मानवः। नार्जुनस्य वशं प्राप्तो मुच्येताजौ जयद्रथः।। | 5-94-17a 5-94-17b |
स तथा कुरु शोणश्व यथा मुच्येत सैन्धवः। मम चार्तप्रलापानां माक्रुधः पाहि सैन्धवम्।। | 5-94-18a 5-94-18b |
द्रोण उवाच। | 5-94-19x |
नाभ्यसूयामि ते वाक्यमश्वत्थाम्नाऽसि मे समः। सत्यं तु ते प्रवक्ष्यामि तज्जुषस्व विशाम्पते।। | 5-94-19a 5-94-19b |
सारथिः प्रवरः कृष्णः शीघ्राश्चास्य हयोत्तमाः। अल्पं च विवरं कृत्वा पूर्णं याति धनञ्जयः।। | 5-94-20a 5-94-20b |
किं न पश्यसि बाणौघान्क्रोशमात्रे किरीटिनः। पश्चाद्रथस्य पतितान्क्षिप्ताञ्शीघ्रं हि गच्छतः।। | 5-94-21a 5-94-21b |
न ताबं शीघ्रयानेऽद्य समर्थो वयसान्वितः। सेनामुखे च पार्थानामेतद्बलमुपस्थितम्।। | 5-94-22a 5-94-22b |
युधिष्ठिरश्च मे ग्राह्यो मिषतां सर्वधन्विनाम्। एवं मया प्रतिज्ञातं क्षत्रमध्ये महाभुज।। | 5-94-23a 5-94-23b |
धनञ्जयेन चोत्सृष्टो वर्तते प्रमुखे नृप। तस्माद्व्यूहमुखं हित्वा नाहं यास्यामि फल्गुनम्।। | 5-94-24a 5-94-24b |
तुल्याभिजनकर्माणं शत्रुमेकं सहायवान्। गत्वा योधय मा भैस्त्वं त्वं ह्यस्य जगतः पतिः।। | 5-94-25a 5-94-25b |
राजा शूरः कृती दक्षो वैरमुत्पाद्य पाण्डवैः। वीरः स्वयं प्रयाह्याशु यत्र पार्थो धनञ्जयः।। | 5-94-26a 5-94-26b |
दुर्योधन उवाच। | 5-94-27x |
कथं त्वामप्यतिक्रान्तः सर्वशस्त्रभृतां वरम्। धनञ्जयो मया शक्य आचार्य प्रतिबाधितुम्।। | 5-94-27a 5-94-27b |
अपि शक्यो रणे जेतुं वज्रहस्तः पुरन्दरः। नार्जुनः समरे शक्यो जेतुं परपुरञ्जयः।। | 5-94-28a 5-94-28b |
येन भोजश्च हार्दिक्यो भवांश्च त्रिदशोपमः। अस्त्रप्रतापेन जितौ श्रुतायुश्च निबर्हितः।। | 5-94-29a 5-94-29b |
सुदक्षिणश्च निहतः स च राजा श्रुतायुधः। श्रुतायुश्चाश्रुतायुश्च भ्लेच्छाश्चायुतशो हताः।। | 5-94-30a 5-94-30b |
तं कथं पाण्डवं युद्धे दहन्तमिव पावकम्। प्रतियोत्स्यामि दुर्धर्षं तन्ममाचक्ष्व सत्तम्। | 5-94-31a 5-94-31b |
क्षमं चेन्मन्यसे युद्धं मम तेनाद्य शाधि माम्। परवानस्मि भवतः प्रेष्यवद्रक्ष मे यशः।। | 5-94-32a 5-94-32b |
द्रोण उवाच। | 5-94-33x |
सत्यं वदसि कौरव्य दुराधर्षो धनञ्जयः। अहं तु तत्करिष्यामि यथैनं प्रसहिष्यसि।। | 5-94-33a 5-94-33b |
अद्भुतं चाद्य पश्यन्तु लोके सर्वधनुर्धराः। विषक्तं त्वयि कौन्तेयं वासुदेवस्य पश्यतः।। | 5-94-34a 5-94-34b |
एष ते कवचं राजंस्तथा बध्नामि काञ्चनम्। यथा न बाणा नास्त्राणि प्रहरिष्यन्ति ते रणे।। | 5-94-35a 5-94-35b |
यदि त्वां सासुरसुराः सयक्षोरगराक्षसाः। योधयन्ति त्रयो लोकाः सनरा नास्ति ते भयम्।। | 5-94-36a 5-94-36b |
न कृष्णो न च कौन्तेयो न चान्यः शस्त्रभृद्रणे। शरानर्पयितुं कश्चित्कवचे तव शक्ष्यति।। | 5-94-37a 5-94-37b |
स त्वं कवचमास्थाय क्रुद्धमद्य रणेऽर्जुनम्। त्वरमाणः स्वयं याहि न त्वाऽसौ विषहिष्यति।। | 5-94-38a 5-94-38b |
सञ्जय उवाच। | 5-94-39x |
एवमुक्त्वा त्वरन्द्रोणः स्पृष्ट्वाम्भो वर्म भास्वरम्। आबबन्धाद्भुततमं जपन्मन्त्रं यथाविधि।। | 5-94-39a 5-94-39b |
रणे तस्मिन्सुमहति विजयस्य सुतस्य ते। विसिष्मापयिषुर्लोकान्विद्यया ब्रह्मवित्तमः।। | 5-94-40a 5-94-40b |
द्रोण उवाच। | 5-94-41x |
करोतु स्वस्ति ते ब्रह्मा स्वस्ति कुर्वन्तु ब्राह्मणाः। सरीसृपाश्च ये श्रेष्ठास्तेभ्यस्ते स्वस्ति भारत।। | 5-94-41a 5-94-41b |
ययातिर्नहुषश्चैव धुन्धुमारो भगीरथः। तुभ्यं राजर्षयः सर्वे स्वस्ति कुर्वन्तु ते सदा।। | 5-94-42a 5-94-42b |
स्वस्ति तेऽस्त्वेकपादेभ्यो बहुपादेभ्य एव च। स्वस्त्यस्त्वपादकेभ्यश्च नित्यं तव महारणे।। | 5-94-43a 5-94-43b |
स्वाहा स्वधा शची चैव स्वस्ति कुर्वन्तु ते सदा। लक्ष्मीररुन्धती चैव कुरुतां स्वस्ति तेऽनघ।। | 5-94-44a 5-94-44b |
अमितो देवलश्चैव विश्वामित्रस्तथाङ्गिराः। वसिष्ठः कश्यपश्चैव स्वस्ति कुर्वन्तु ते नृप।। | 5-94-45a 5-94-45b |
धाता विधाता लोकेशो दिशश्च सदिगीश्वराः। स्वस्ति तेऽद्य प्रयच्छन्तु कार्तिकेयश्च षण्मुखः।। | 5-94-46a 5-94-46b |
`येन देवाः सकृद्भग्नाः सङ्ग्रमे तारकामये। धृताः स च हतः शूरो ह्यवध्यो देवतागणैः।। | 5-94-47a 5-94-47b |
विवस्वान्कुरुतां स्वस्ति तथा वैवस्वतो यमः। पार्षिदा वशगा यस्य स्वस्ति तुभ्यं प्रयच्छतु'।। | 5-94-48a 5-94-48b |
दिग्गजाश्चैव चत्वारः क्षितिश्च गगनं ग्रहाः। `दिशश्च विदिशश्चैव सिद्धा लोकहिते रताः। स्वस्ति कुर्वन्तु ते नित्यं मन्त्रेणानेन रस्तुताः'।। | 5-94-49a 5-94-49b 5-94-49c |
अधस्ताद्धरणीं योऽसौ सदा धारयते नृप। शेषश्च पन्नगश्रेष्ठः स्वस्ति तुभ्यं प्रयच्छतु।। | 5-94-50a 5-94-50b |
गान्धारे युधि विक्रम्य निर्जिते पाकशासनेः। पुरा वृत्रेण दैत्येन भिन्नदेहाः सहस्रशः।। | 5-94-51a 5-94-51b |
हृततेजोबलाः स्रवे तदा सेन्द्रा दिवौकसः। ब्रह्माणं शरणं जग्मुर्वृत्राद्भीतां महासुरात्।। | 5-94-52a 5-94-52b |
देवा ऊचुः। | 5-94-53x |
प्रमार्दितानां वृत्रेण देवानां देवसत्तम। गतिर्भव सुरश्रेष्ठ त्राहि नो महतो भयात्।। | 5-94-53a 5-94-53b |
अथ पार्श्वे स्थितं विष्णुं शक्रादींश्च सुरोत्तमान्। प्राह पथ्यमिदं वाक्यं विषण्णान्सुरसत्तमान्।। | 5-94-54a 5-94-54b |
रक्ष्या मे सततं देवाः सहेन्द्राः सद्विजातयः। त्वष्टुः सुदुर्धरं तेजो येन वृत्रो विनिर्मितः।। | 5-94-55a 5-94-55b |
त्वष्ट्रा पुरा तपस्तप्त्वा वर्षायुतशतं तदा। वृत्रो विनिर्मितो देवाः प्राप्यानुज्ञां महेश्वरात्।। | 5-94-56a 5-94-56b |
शंकरस्य प्रसादाद्वै हन्याद्देवरिपुर्बली। नागत्वा शंकरस्थानं भगवान्दृश्यते हरः।। | 5-94-57a 5-94-57b |
दृष्ट्वा जेष्यथ वृत्रं तं क्षिप्रं गच्छत मन्दरम्। यत्रास्ते तपसां योनिर्दक्षयज्ञविनाशनः।। | 5-94-58a 5-94-58b |
पिनाकी सर्वभूतेशो भगनेत्रनिपातनः। ते गत्वा सहिता देवा ब्रह्मणा सह मन्दरम्।। | 5-94-59a 5-94-59b |
अपश्यंस्तेजसां राशिं सूर्यकोटिसमप्रभम्। सोऽब्रवीत्स्वागतं देवा ब्रूत किं करवाण्यहम्।। | 5-94-60a 5-94-60b |
अमोघं दर्शनं मह्यं कामप्राप्तिरतोऽस्तु वः। एवमुक्तास्तु ते सर्वे प्रत्युचूस्तं दिवौकसः।। | 5-94-61a 5-94-61b |
हृतौजसां नो वृत्रेण गतिर्भव दिवौकसाम्। मूर्तीरीक्षस्व नो देव प्रहारैर्जर्जरीकृताः। शरणं त्वां प्रपन्नाः स्म गतिर्भव महेश्वर।। | 5-94-62a 5-94-62b 5-94-62b |
शर्वे उवाच। विदितं वो यथा देवाः कृत्येयं सुमहाबला। | 5-94-63a 5-94-63b |
त्वष्टुस्तेजोभवा घोरा दुर्निवार्याऽकृतात्मभिः।। अवश्यं तु मया कार्यं साह्यं सर्वदिवौकसाम्। | 5-94-64a 5-94-64b |
ममेदं गात्रजं शक्र कवचं गृह्य भास्वरम्।। बधानानेन मन्त्रेण मानसेन सुरेश्वर। | 5-94-65a 5-94-65b |
वधायासुरमुख्यस्य वृत्रस्य सुरघातिनः।। | 5-94-66a |
द्रोण उवाच। | 5-94-66x |
इत्युक्त्वा वरदः प्रादाद्वर्म तन्मन्त्रमेव च। स तेन वर्मणा गुप्तः प्रायाद्वृत्रचमूं प्रति।। | 5-94-66a 5-94-66b |
नानाविधैश्च शस्त्रौघैः पात्यमानैर्महारणे। न सन्धिः शक्यते भेत्तुं वर्मबन्धस्य तस्य तु।। | 5-94-67a 5-94-67b |
स तेन वर्मणा गुप्तो वृत्रं देवरिपुं तदा। जघान समरेऽभीतः शक्रो देवाग्रणीस्तदा।। | 5-94-68a 5-94-68b |
तं च मन्त्रमयं बन्धं वर्म चाङ्गिरसे ददौ। अङ्गिराः प्राह पुत्रस्य मन्त्रज्ञस्य बृहस्पतेः। बृहस्पतिरथोवाच अग्निवेश्याय धीमते।। | 5-94-69a 5-94-69b 5-94-69c |
अग्निवेश्यो मम प्रादात्तेन बध्नामि वर्म ते। तवाह्य देहरक्षार्थं मन्त्रेण नृपसत्तम।। | 5-94-70a 5-94-70b |
सञ्जय उवाच। | 5-94-71x |
एवमुक्त्वा ततो द्रोणस्तव पुत्रं महाद्युतिम्। पुनरे वचः प्राह शनैराचार्यपुङ्गवः।। | 5-94-71a 5-94-71b |
ब्रह्मसूत्रेण बध्नामि कथचं तव भारत। हिरण्यगर्भेण यथा बद्धं विष्णोः पुरा रणे।। | 5-94-72a 5-94-72b |
यथा च ब्रह्मणा बद्धं सङ्ग्रामे तारकामये। शक्रस्य कवचं दिव्यं तथा बध्नाम्यहं तव।। | 5-94-73a 5-94-73b |
सञ्जय उवाच। | 5-94-74x |
बद्धा तु कवचं तस्य मन्त्रेण विधिपूर्वकम्। प्रेषयामास राजानं युद्धाय महते द्विजः।। | 5-94-74a 5-94-74b |
स सन्नद्धो महाबाहुराचार्येण महात्मना। `प्रस्थितः सहसा राजन्यत्र यातो धनञ्जयः'।। | 5-94-75a 5-94-75b |
रथानां च सहस्रेण त्रिगर्तानां प्रहारिणाम्। तथा दन्तिसहस्रेण मत्तानां वीर्यशालिनाम्।। | 5-94-76a 5-94-76b |
अश्वानां नियुतेनैव तथाऽन्यैश्च महारथैः। वृतः प्रायान्महाबाहुरर्जुनस्य रथं प्रति।। | 5-94-77a 5-94-77b |
नानावादित्रघोषेण यथा वैरोचनिस्तथा।। | 5-94-78a |
ततः शब्दो महानासीत्सैन्यानां तव भारत। अगाधं प्रस्थितं दृष्ट्वा समुद्रमिव कौरवम्।। | 5-94-79a 5-94-79b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे चतुर्नवतितमोऽध्यायः।। 94 ।। |
5-94-10 आतुरमनवस्पितम्।। 5-94-12 नावबुध्यसे न स्मरसि।। 5-94-13 नेच्छसि नानुरुध्यते।। 5-94-14 वचसा ललितं सदा। हृदयेन भृशं तीक्ष्णं इति क. पाठः।। 5-94-35 ते त्वाम्।। 5-94-49 चत्वार ऐरावतवामनाञ्जनसार्वभौमाः।। 5-94-56 अनुज्ञां वरम्।। 5-94-57 हन्याद्धन्तुमर्हति।। 5-94-65 मानसेन मनसोच्चारणीयेन।। 5-94-72 ब्रह्मसूत्रेण ब्रह्मणा सूचितेनो पदेशेन।। 5-94-94 चतुर्नवतितमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-093 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-095 |