महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-017
← द्रोणपर्व-016 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-017 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-018 → |
संशप्तकैराहूतस्यार्जुनस्य युधिष्ठिररक्षणे सत्यजितं नियोज्य तान्प्रति युद्धाय गमनम्।। 1 ।।
|
सञ्जय उवाच। | 5-17-1x |
ते सेने शिबिरं गत्वा न्यविशेतां विशाम्पते। यथाभागं यथान्यायं यथागुल्मं च सर्वशः।। | 5-17-1a 5-17-1b |
कृत्वाऽवहारं सैन्यानां द्रोणः परमदुर्मनाः। दुर्योधनमभिप्रेक्ष्य सव्रीडमिदमब्रवीत्।। | 5-17-2a 5-17-2b |
उक्तमेतन्मया पूर्वं न तिष्ठति धन्जये। शक्यो ग्रहीतुं सङ्ग्रामे देवैरपि युधिष्ठिरः।। | 5-17-3a 5-17-3b |
इति तद्वः प्रयततां कृतं पार्थेन संयुगे। मा विशङ्कीर्वचो मह्यमजेयौ कृष्णपाण्डवौ।। | 5-17-4a 5-17-4b |
अपनीते तु योगेन केनचिच्छ्वेतवाहने। तत एष्यति ते राजन्वशमेष युधिष्ठिरः।। | 5-17-5a 5-17-5b |
कश्चिदाहूय तं सङ्ख्ये देशमन्यं प्रकर्षतु। तमजित्वा न कौन्तेयो निवर्तेत कथञ्चन।। | 5-17-6a 5-17-6b |
एतस्मिन्नन्तरे शून्येधर्मराजमहं नृप। ग्रहीष्यामि चमूं भित्त्वा धृष्टद्युम्नस्य पश्यतः।। | 5-17-7a 5-17-7b |
अर्जुनेन परित्यक्तो न चेत्त्रासात्पलायते। मामुपायान्तमालोक्य गृहीतं विद्धि पाण्डवम्।। | 5-17-8a 5-17-8b |
एवं तेऽहं महाराज धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्। समानेष्यामि सगणं वशमद्य न संशयः।। | 5-17-9a 5-17-9b |
यदि तिष्ठति सङ्ग्रामे मुहूर्तमपि पाण्डवः। अथापयाति सङ्ग्रामाद्विजयात्तद्विशिष्यते।। | 5-17-10a 5-17-10b |
सञ्जय उवाच। | 5-17-11x |
द्रोणस्य तद्वचः श्रुत्वा त्रिगर्ताधिपतिस्तदा। भ्रातृभिः सहितो राजन्निदं वचनमब्रवीत्।। | 5-17-11a 5-17-11b |
वयं विनिकृता राजन्सदा गाण्डीवधन्वना। अनागःस्वपि चागस्तत्कृतमस्मासु तेन वै।। | 5-17-12a 5-17-12b |
ते वयं स्मरमाणास्तान्विनिकारान्पृथग्विधान्। क्रोधाग्निना दह्यमाना ह्यशेमहि सदा निशि।। | 5-17-13a 5-17-13b |
स नो दिष्ट्याऽस्त्रसम्पन्नश्चक्षुर्विषयमागतः। कर्तारः स्मरयं कर्म यच्चिकीर्षाम हृद्गतम्।। | 5-17-14a 5-17-14b |
भवतश्च प्रियं यत्स्यादस्माकं च यशस्करम्। वयमेनं हनिष्यामो निकृष्यायोधनाद्बहिः।। | 5-17-15a 5-17-15b |
अद्यास्त्वनर्जुना भूमिरत्रिगर्ताऽवा पुनः। सत्यं ते प्रतिजानीमो नैतन्मिथ्या भविष्यति।। | 5-17-16a 5-17-16b |
एवं सत्यरथश्चोक्त्वा सत्यवर्मा च भारत। सत्यव्रतश्च सत्येषुः सत्यकर्मा तथैव च।। | 5-17-17a 5-17-17b |
सहिता भ्रातरः पञ्च रथानामयुतेन च। न्यवर्तन्त महाराज कृत्वा शपथमाहवे।। | 5-17-18a 5-17-18b |
मालवास्तुण्डिकेराश्च रथानामयुतैस्त्रिभिः। सुशर्मा च नरव्याघ्रस्त्रिगर्तः प्रस्थलाधिपः।। | 5-17-19a 5-17-19b |
मावेल्लकैर्ललित्थैश्च सहितो मद्रकैरपि। रथानामयुतेनैव सोऽगमद्धातृभिः सह।। | 5-17-20a 5-17-20b |
नानाजनपदेभ्यश्च रथानामयुतं पुनः। समुत्थितं विशिष्टानां शपथार्थमुपागमत्।। | 5-17-21a 5-17-21b |
ततो ज्वलनमानर्च्य हुत्वा सर्वे पृथक्पृथक्। जगृहुः कुशचीराणि चित्राणि कवचानि च।। | 5-17-22a 5-17-22b |
ते च बद्धतनुत्राणा घृताक्ताः कुशचीरिणः। मौर्वीमेखलिनो वीराः सहस्रशतदक्षिणाः।। | 5-17-23a 5-17-23b |
यज्वानः पुत्रिणो लोक्याः कृतकृत्यास्तनुत्यजः। योक्ष्यमाणास्तदाऽऽत्मानं यशसा विजयेन च।। | 5-17-24a 5-17-24b |
ब्रह्मचर्युश्रुतिमुखैः क्रतुभिश्चाप्तदक्षिणैः। प्राप्याँल्लोकान्सुयुद्धेन क्षिप्रमेव यियासवः।। | 5-17-25a 5-17-25b |
ब्राह्ममांस्तर्पयित्वा च निष्कान्दत्वा पृथक्पृथक्। गाश्च वासांसि च पुनः समाभाष्य परस्परम्।। | 5-17-26a 5-17-26b |
`द्विजमुख्यैः समुदितैः कृतस्वस्त्ययनाशिषः। मुदिताश्च प्रहृष्टाश्च जलं संस्पृश्य निर्मलम्'।। | 5-17-27a 5-17-27b |
प्रज्वाल्य कृष्णवर्त्मानमुपागम्य रणव्रतम्। तस्मिन्नग्नौ तदा चक्रुः प्रतिज्ञां दृढनिश्चयाः।। | 5-17-28a 5-17-28b |
शृण्वतां सर्वभूतानामुच्चैर्वाचो बभाषिरे। सर्वे धनञ्जयवधे प्रतिज्ञां चापि चक्रिरे। | 5-17-29a 5-17-29b |
ये वै लोकाश्चाव्रतिनां ये चैव ब्रह्मघातिनाम्। मद्यपस्य च ये लोका गुरुदाररतस्य च।। | 5-17-30a 5-17-30b |
ब्रह्मस्वहारिणश्चैव राजपिण्डापहारिणः। शरणागतं च त्यजतो याचमानं तथा घ्नतः।। | 5-17-31a 5-17-31b |
अगारदाहिनां चैव ये च गां निघ्नतामपि। अपकारिणां च ये लोका ये च ब्रह्मद्विषामपि।। | 5-17-32a 5-17-32b |
स्वभार्यामृतुकालेषु मोहाद्वै नाभिगच्छताम्। श्राद्धमैथुनिकानां च ये चाप्यात्मापहारिणाम्।। | 5-17-33a 5-17-33b |
न्यासापहारिणां ये च श्रुतं नाशयतां च ये। क्लीबने युध्यमानानां ये च नीचानुसारिणाम्।। | 5-17-34a 5-17-34b |
नास्तिकानां च ये लोका येऽग्निमातृपितृत्यजाम्। तानाप्नुयामहे लोकान्ये च पापकृतामपि।। | 5-17-35a 5-17-35b |
यद्यहत्वा वयं युद्धे निवर्तेम धनञ्जयम्। तेन चाभ्यर्दितास्त्रासाद्भवेमहि पराङ्मुखाः।। | 5-17-36a 5-17-36b |
यदि त्वसुकरं लोके कर्म कुर्याम संयुगे। इष्टाँल्लोकान्प्राप्नुयामो वयमद्य न संशयः।। | 5-17-37a 5-17-37b |
एवमुक्त्वा तदा राजंस्तेऽभ्यवर्तन्त संयुगे। आह्वयन्तोऽर्जुनं वीराः पितृजुष्टां दिशं प्रति।। | 5-17-38a 5-17-38b |
आहूतस्तैर्नरव्याघ्रैः पार्थः परपुरञ्चयः। धर्मराजमिदं वाक्यमपदान्तरमब्रवीत्।। | 5-17-39a 5-17-39b |
आहूतो न निवर्तेयमिति मे व्रतमाहितम्। संशप्तकाश्च मां राजन्नाह्वयन्ति महामृधे।। | 5-17-40a 5-17-40b |
एष च भ्रातृभिः सार्धं सुशर्माऽऽह्वयते रणे। वधाय सगणस्यास्य मामनुज्ञातुमर्हसि।। | 5-17-41a 5-17-41b |
नैतच्छक्नोमि संसोढुमाह्वानं पुरुषर्षभ। सत्यं ते प्रतिजानामि हतान्विद्धि परान्युधि।। | 5-17-42a 5-17-42b |
युधिष्ठिर उवाच। | 5-17-42x |
श्रुतं ते तत्त्वतस्तात यद्द्रोणस्य चिकीर्षितम्। यथा तदनृतं तस्य भवेतत्त्वं समाचर।। | 5-17-43a 5-17-43b |
द्रोणो हि बलवाञ्शूरः कृतास्त्रश्च जितश्रमः। प्रतिज्ञातं च तेनैतद्ग्रहणं मे महारथ।। | 5-17-44a 5-17-44b |
अर्जुन उवाच। | 5-17-45x |
अयं वै सत्यजिद्राजन्नद्य त्वां रक्षिता युधि। ध्रियमाणे च पाञ्चाल्ये नाचार्यः काममाप्स्यति।। | 5-17-45a 5-17-45b |
हते तु पुरुषव्याघ्रे रणे सत्यजिति प्रभो। सर्वैरपि समेतैर्वा न स्थातव्यं कथंचन।। | 5-17-46a 5-17-46b |
सञ्जय उवाच। | 5-17-47x |
अनुज्ञातस्ततो राज्ञा परिष्वक्तश्च फल्गुनः। प्रेम्णा दृष्टश्च बहुधा ह्याशिषश्चास्य योजिताः।। | 5-17-47a 5-17-47b |
विहायैनं ततः पार्थस्त्रिगर्तान्प्रत्ययाद्बली। क्षुधितः क्षुद्विघातार्थं सिंहो मृगगणानिव।। | 5-17-48a 5-17-48b |
ततो दौर्योधनं सैन्यं मुदा परमया युतम्। ऋतेऽर्जुनं भृशं क्रुद्धं धर्मराजस्य निग्रहे।। | 5-17-49a 5-17-49b |
ततोऽन्योन्येन ते सैन्ये समाजग्मतुरोजसा। गङ्गासरय्वौ वेगेन प्रावृषीवोल्बणोदके।। | 5-17-50a 5-17-50b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि सप्तदशोऽध्यायः।। 17 ।। |
5-17-5 योगेन उपायेन।। 5-17-24 लोक्याः पुण्यलोकार्हाः।। 5-17-25 ब्रह्मचर्यं वेदव्रताचरणम्। श्रुतिर्वेदाध्ययनं ते एव मुखं प्रधानं येषु तैः। कर्मभिरिति शेषः।। 5-17-33 आत्मापहारिणां स्वजातिगोपकानाम्।। 5-17-34 श्रुतं प्रतिज्ञातम्।। 5-17-39 अपदान्तरमव्यवहितम्।। 5-17-17 सप्तदशोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-016 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-018 |