महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-054
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नारदेन मृत्युब्रह्मसंवादकथनेन अकम्पनस्य शोकपरिहरणम्।। 1 ।। व्यासेनाकम्पनोपाख्यानकथनात् युधिष्ठिरस्य शोकापनोदनम्।। 2 ।।
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नारद उवाच। | 5-54-1x |
विनीय दुःकमबला आत्मन्येव प्रजापतिम्। उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा लतेवावर्जिता पुनः।। | 5-54-1a 5-54-1b |
मृत्युरुवाच। | 5-54-2x |
त्वया सृष्टा कथं नारी ईदृशी वदतां वर। क्रूरं कर्माहितं कुर्यां मूढेव परिजानती।। | 5-54-2a 5-54-2b |
बिभेम्यहमधर्माद्धि प्रसीद भगवन्प्रभो। प्रियान्पुत्रान्वयस्यांश्च भातृन्मातॄः पितॄन्पतीन्।। | 5-54-3a 5-54-3b |
अपध्यास्यन्ति ये देव मृतांस्तेभ्यो बिभेम्यहम्। कृपणानां हि रुदतां ये पतन्त्यश्रुबिन्दवः।। | 5-54-4a 5-54-4b |
तेभ्योऽहं भगवन्भीता शरणं त्वाऽहमागता। यमस्य भवनं देव गच्छेयं न सुरोत्तम।। | 5-54-5a 5-54-5b |
कायेन विनयोपेता मूर्ध्नोदग्रनखेन च। एतदिच्छाम्यहं कामं त्वत्तो लोकपितामह।। | 5-54-6a 5-54-6b |
इच्छेयं त्वत्प्रसादाद्धि तपस्तप्तुं प्रजेश्वर। प्रदिशेमं वरं देव त्वं मह्यं भगवन्प्रभो।। | 5-54-7a 5-54-7b |
त्वया ह्युक्ता गमिष्यामि धेनुकाश्रममुत्तमम्। तत्र तप्स्ये तपस्तीत्रं तवैवाराधने रता।। | 5-54-8a 5-54-8b |
न हि शक्ष्यामि देवेश प्राणान्प्राणभृतां प्रियान्। हर्तुं विलपमानानामधर्मादभिरक्ष माम्।। | 5-54-9a 5-54-9b |
ब्रह्मोवाच। | 5-54-10x |
मृत्यो सङ्कल्पिताऽसि त्वं प्रजासंहारहेतुना। गच्छ संहर सर्वास्त्वं प्रजा मा ते विचारणा।। | 5-54-10a 5-54-10b |
भविता त्वेतदेवं हि नैतज्जात्वन्यथा भवेत्। भव त्वनिन्दिता लोके कुरुष्व वचनं मम।। | 5-54-11a 5-54-11b |
नारद उवाच। | 5-54-12x |
एवमुक्ता भगवता प्राञ्जलिश्चाप्यवाङ्मुखी। संहारे नाकरोद्बुद्धिं प्रजानां हितकाम्यया।। | 5-54-12a 5-54-12b |
तूष्णीमासीत्तदा देवः प्रजानामीश्वरेश्वरः। प्रसादं चागमत्क्षिप्रमात्मनैव प्रजापतिः।। | 5-54-13a 5-54-13b |
स्मयमानश्च देवेशो लोकान्सर्वानवेक्ष्य च। लोकास्त्वासन्यथापूर्वं दृष्टास्तेनापमन्युना।। | 5-54-14a 5-54-14b |
निवृत्तरोषे तस्मिंस्तु भगवत्यपराजिते। सा कन्याऽपि जगामाऽथ समीपात्तस्य धीमतः।। | 5-54-15a 5-54-15b |
अपमृत्याप्रतिश्रुत्य प्रजासंहरणं तदा। त्वरमाणा च राजेन्द्र मृत्युर्धेनुकमभ्यगात्।। | 5-54-16a 5-54-16b |
सा तत्र परमं तीव्रं चचार व्रतमुत्तमम्। सा तद ह्येकपादेन तस्थौ पद्मानि षोडश।। | 5-54-17a 5-54-17b |
पञ्च चाब्दानि कारुण्यात्प्रजानां तु हितैषिणी। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यः प्रियेभ्यः सन्निवर्त्य सा।। | 5-54-18a 5-54-18b |
ततस्त्वेकेन पादेन पुनरन्यानि सप्त वै। तस्थौ पद्मानि षट् चैव सप्त चैकं च पार्थिवा।। | 5-54-19a 5-54-19b |
ततः पद्मायुतं तात मृगैः सह चचार सा। पुनर्गत्वा ततो नन्दां पुण्यां शीतामलोदकाम्।। | 5-54-20a 5-54-20b |
अप्सु वर्षसहस्राणि सप्त चैकं च साऽनयत्। धारयित्वा तु नियमं नन्दायां वीतकल्मषा।। | 5-54-21a 5-54-21b |
सा पूर्वं कौशिकीं पुण्यां जगाम नियमैधिता। तत्र वायुजलाहारा चचार नियमं पुनः।। | 5-54-22a 5-54-22b |
सप्तगङ्गासु सा पुण्या कन्या वेतसकेषु च। तपोविशेषैर्बहुभिः कर्षयद्देहमात्मनः।। | 5-54-23a 5-54-23b |
ततो गत्वा तु सा गङ्गां महामेरुं च केवलम्। तस्थौ चाश्मेव निश्चेष्टा प्राणायामपरायणा।। | 5-54-24a 5-54-24b |
पुनर्हिमवतो मूर्ध्नि यत्र देवाः पुराऽयजन्। तत्राङ्गुष्ठेन सा तस्थौ निखर्वंल परमा शुभा।। | 5-54-25a 5-54-25b |
पुष्करेष्वथ गोकर्णे नैमिषे मलये तथा। अकर्शयत्स्वकं देहं नियमैर्मानसप्रियैः।। | 5-54-26a 5-54-26b |
अनन्यदेवता नित्यं दृढभक्ता पितामहे। तस्थौ पितामहं चैव तोषयामास धर्मतः।। | 5-54-27a 5-54-27b |
ततस्तामब्रवीत्प्रीतो लोकानां प्रभवोऽव्ययः। सौम्येन मनसा राजन्प्रीतः प्रीतमनास्तदा।। | 5-54-28a 5-54-28b |
मृत्यो किमिदमत्यन्तं तपांसि चरसीति ह। ततोऽब्रवीत्पुनर्मृत्युर्भगवन्तं पितामहम्।। | 5-54-29a 5-54-29b |
नाऽहं हन्यां प्रजा देव स्वस्थाश्चाक्रोशतीस्तथा। एतदिच्छामि सर्वेश त्वत्तो वरमहं प्रभो।। | 5-54-30a 5-54-30b |
अधर्मभयभीताऽस्मि ततोऽहं तप आस्थिता। भीतायास्तु महाभाग प्रयच्छाभयमव्यय।। | 5-54-31a 5-54-31b |
आर्ता चानागसी नारी याचामि भव मे गतिः। तामब्रवीत्ततो देवो भूतभव्यभविष्यवित्।। | 5-54-32a 5-54-32b |
अधर्मो नास्ति ते मृत्यो संहरन्त्या इमाः प्रजाः। मया चोक्तं मृषा भद्रे भविता न कथञ्चन।। | 5-54-33a 5-54-33b |
तस्मात्संहर कल्याणि प्रजाः सर्वाश्चतुर्विधाः। धर्मः सनातनश्च त्वां सर्वथा पावयिष्यति।। | 5-54-34a 5-54-34b |
लोकपालो यमश्चैव सहाया व्याधयश्च ते। अहं च विबुधाश्चैव पुनर्दास्याम ते वरम्।। | 5-54-35a 5-54-35b |
यथा त्वमेनसा मुक्ता विरजाः ख्यातिमेष्यसि। | 5-54-36a |
नारद उवाच। | 5-54-36x |
सैवमुक्ता महाराज कृताञ्जलिरिदं विभुम्। | 5-54-36b |
पुनरेवाब्रवीद्वाक्यं प्रसाद्य शिरसा तदा। यद्येवमेतत्कर्तव्यं धर्मतो नास्त्यतो भयम्।। | 5-54-37a 5-54-37b |
तवाज्ञा मूर्ध्नि मे न्यस्ता यत्ते वक्ष्यामि तच्छृणु। लोभः क्रोधोऽभ्यसूयेर्ष्या द्रोहो मोहश्च देहिनां।। | 5-54-38a 5-54-38b |
अहूश्चान्योन्यपरुषा देहं भिन्द्युः पृथिग्वधाः। | 5-54-39a |
ब्रह्मोवाच। | 5-54-39x |
तथा भविष्यते मृत्यो साधु संहर भोः प्रजाः। अधर्मस्ते न भविता नापध्यास्याम्यहं शुभे।। | 5-54-39a 5-54-39b |
यान्यश्रुबिन्दूनि करे ममासं-- स्ते व्याधयः प्राणिनामात्मजाताः। ते मारयिष्यन्ति नरान्गतासू-- न्नाधर्मस्ते भविता मा स्म भैषीः।। | 5-54-40a 5-54-40b 5-54-40c 5-54-40d |
नाधर्मस्ते भविता प्राणिनां वै त्वं वै धर्मस्त्वं हि धर्मस्य चेशा। धर्म्या भूत्वा धर्मनित्या धरित्री तस्मात्प्राणान्सर्वथेमान्नियच्छ।। | 5-54-41a 5-54-41b 5-54-41c 5-54-41d |
मिथ्यावृत्तं मारयिष्यत्यधर्मः।। | 5-54-42f |
तेनात्मानं पावयस्वात्मना त्वं पापेऽऽत्मानं मज्जयिष्यन्त्यसत्यात्। तस्मात्कामं रोषमप्यागतं त्वं सन्त्यज्यान्तः संहरस्वेति जीवान्।। | 5-54-43a 5-54-43b 5-54-43c 5-54-43d |
नारद उवाच। | 5-54-44x |
सा वै भीमा मृत्युसंज्ञोपदेशा-- च्छापाद्भीता बाढमित्यब्रवीत्तम्। सा च प्राणं प्राणिनामन्तकाले कामक्रोधौ त्यज्य हरत्यसक्ता।। | 5-54-44a 5-54-44b 5-54-44c 5-54-44d |
मृत्युस्त्वेषां व्याधयस्तत्प्रसूता व्याधी रोगो रुज्यते येन जन्तुः। सर्वेषां च प्राणिनां प्रायणान्ते तस्माच्छोकं माकृथा निष्फलं त्वम्।। | 5-54-45a 5-54-45b 5-54-45c 5-54-45d |
सर्वे देवाः प्राणिभिः प्रायणान्ते गत्वा वृत्ताः सन्निवृत्तास्तथैव। एवं सर्वे प्राणिनस्तत्र गत्वा वृत्ता देवा मर्त्यवद्राजसिंह।। | 5-54-46a 5-54-46b 5-54-46c 5-54-46d |
वायुर्भीमो भीमनादो महौजा भेत्ता देहान्प्राणिनां सर्वगोऽसौ। नो वा वृत्तिं कदाचि-- त्प्राप्नोत्युग्रोऽनन्ततेजोविशिष्टः।। | 5-54-47a 5-54-47b 5-54-47c 5-54-47d |
सर्वे देवा मर्त्यसंज्ञाविशिष्टा-- स्तस्मात्पुत्रं माशुचो राजसिंह। स्वर्गं प्राप्तो मोदते ते तनूजो नित्यं रम्यान्वीरलोकानवाप्य।। | 5-54-48a 5-54-48b 5-54-48c 5-54-48d |
त्यक्त्वा दुःखं सङ्गतः पुण्यकृद्भि-- रेषा मृत्युर्देवदिष्टा प्रजानाम्। प्राप्ते काले संहरन्ती यथाव-- त्स्वयं कृता प्राणहरा प्रजानाम्।। | 5-54-49a 5-54-49b 5-54-49c 5-54-49d |
पुत्रान्नष्टाच्छोकमाशु त्यजस्व।। | 5-54-50f |
द्वैपायन उवाच। | 5-54-51x |
एतच्छ्रुत्वार्थवद्वाक्यं नारदेन प्रकाशितम्। उवाचाकम्पनो राजा सखायं नारदं तथा।। | 5-54-51a 5-54-51b |
व्यपेतशोकः प्रीतोऽस्मि भगवन्नृषिसत्तम। श्रुत्वेतिहासं त्वत्तस्तु कृतार्थोऽस्म्यभिवादये।। | 5-54-52a 5-54-52b |
तथोक्तो नारदस्तेन राज्ञा देवर्षिसत्तमः। जगाम नन्दनं शीघ्रमशोकवनमात्मनः।। | 5-54-53a 5-54-53b |
पुण्यं यशस्यं स्वर्ग्यं च धन्यमायुष्यमेव च। अस्येतिहासस्य सदा श्रवणं श्रावणं तथा।। | 5-54-54a 5-54-54b |
एतदर्थपदं श्रुत्वा तदा राजा युधिष्ठिर। क्षत्रधर्मं च विज्ञाय शूराणां च परां गतिम्। सम्प्राप्तोऽसौ महावीर्यः स्वर्गलोकं महारथः।। | 5-54-55a 5-54-55b 5-54-55c |
अभिमन्युः परान्हत्वा प्रमुखे सर्वधन्विनाम्। युध्यमानो महेष्वासो हतः सोऽभिमुखो रणे।। | 5-54-56a 5-54-56b |
असिना गदया शक्त्या धनुषा च महारथः। विरजाः सोमसूनुः स पुनस्तत्र प्रलीयते।। | 5-54-57a 5-54-57b |
तस्मात्परां धृतिं कृत्वा भ्रातृभिः सह पाण्डव। अप्रमत्तः सुसन्नद्धः शीघ्रं योद्धुमुपाक्रम।। | 5-54-58a 5-54-58b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि चतुःपञ्चाशोऽध्यायः।। 54 ।। |
5-54-6 उदग्रनखेन अञ्जलिना। विनयोपेता शरणागतास्मीत्यर्थः।। 5-54-14 अपमन्युना गतामर्षेणेत्यर्थः।। 5-54-16 अप्रतिश्रुत्यानङ्गीकृत्य।। 5-54-17 पद्मं शतं कोठ्यो वर्षाणि तानि षोडश पञ्च च।। 5-54-39 अन्योन्यपरुषा वागिति शेषः।। 5-54-45 प्रायणान्ते आयुष्यकर्मणोऽवसाने।। 5-54-46 सर्वे इति। देवा इन्द्रियाणि। प्राणिभिः जीवैः) सह। गत्वा तत्रैव परलोके। वृत्ता वृत्तवन्तः। पुनर्भूत्वा सन्निवृत्ता भवन्ति। मर्त्यभावार्था एव देवा इन्द्रादयः मर्त्यवदेव गत्वा वृत्ता भवन्ति नतु निवृत्ता भवन्ति मर्त्यभावाय। कर्मदेवा एव निवर्तन्ते नत्वाजानदेवास्तेषां क्रममुक्तियोग्यत्वादिति भावः।। 5-54-48 सर्वेदेवा इति। मर्त्यत्वं मरणधर्मत्वं ब्रह्मादीनामपि स्वाभाविकमस्त्यतोऽनर्थकः शोक इत्यर्थः।। 5-54-49 स्वयमेव स्वस्य मृत्युः अथापि जनानां प्राणहरा मृत्युर्जनादन्येति कल्पना कृता अनभिज्ञैरिति शेषः।। 5-54-50 नष्टात जातमिति शेषः।। 5-54-53 चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 54 ।।
द्रोणपर्व-053 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-055 |