महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-057
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नारदेन सृञ्जयम्प्रति अङ्गराजगुणवर्णनम्।। 1 ।।
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नारद उवाच। | 5-57-1x |
अङ्गं च पौरवं वीरं मृतं सृञ्जय शुश्रुम। सहस्रं यः सहस्राणां श्वेतानश्वानवासृजत्।। | 5-57-1a 5-57-1b |
तस्याश्वमेधे राजर्षेर्देशाद्देशात्समीयुषाम्। शिक्षाक्षरविधिज्ञानां नासीत्सङ्ख्या विपश्चिताम्।। | 5-57-2a 5-57-2b |
वेदविद्याव्रतस्नाता वदान्याः प्रियदर्शनाः। सुभिक्षाच्छादनगृहाः सुशय्यासनभोजनाः।। | 5-57-3a 5-57-3b |
नटनर्तकगन्धर्वैः पूर्णकैर्वर्धमानकैः। नित्योद्योगैश्च क्रीडद्भिस्तत्र स्म परिहर्षिताः।। | 5-57-4a 5-57-4b |
यज्ञे यज्ञे यथाकालं दक्षिणाः सोऽत्यकालयत्। द्विपान्दशसहस्राख्यानदात्काञ्चनसंवृतान्।। | 5-57-5a 5-57-5b |
यः सहस्रं सहस्राणि कन्या हेमविभूषिताः।। धूर्युजाश्वगजारूढाः सगृहक्षेत्रगोशताः। | 5-57-6a 5-57-6b |
शतं शतसहस्राणि स्वर्णमालानथर्षभान्।। गवां सहस्रानुचरान्दक्षिणामत्यकालयत्। | 5-57-7a 5-57-7b |
हेमशृङ्ग्यो रौप्यखुराः सवत्साः कांस्यदोहनाः।। दासीदासखरोष्ट्रांश्च प्रादादाजाविकं बहु। | 5-57-8a 5-57-8b |
रत्नानां विविधानां च विविधांश्चान्नपर्वतान्।। तस्मिन्संवितते यज्ञे दक्षिणामत्यकालयत्। | 5-57-9a 5-57-9b |
तत्रास्य गाथा गायन्ति ये पुराणविदो जनाः।। `अङ्गस्य यजमानस्य अपि विष्णुपदे वयम्। | 5-57-10a 5-57-10b |
अमाद्यदिन्द्रुः सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः। देवमानुषगन्धर्वांश्चात्यरोचन्त दक्षिणाः'।। | 5-57-11a 5-57-11b |
अङ्गस्य यजमानस्य स्वधर्माधिगताः शुभाः। गुणोत्तरास्तु क्रतवस्तस्यासन्सार्वकामिकाः।। | 5-57-12a 5-57-12b |
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतस्त्वया। पुत्रात्पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः। अयज्वानमदक्षिण्यमभि श्वैत्येत्युदाहरत्।। | 5-57-13a 5-57-13b 5-57-13c |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 57 ।। |
5-57-2 राजर्षेः सर्वे देवाः समाययुः इति ढ.पाठः।। 5-57-4 पूर्णकैः स्वर्णचूडैः। वर्धमानकैः आरार्तिकहस्तैः।। 5-57-7 धूर्युजा रथाः।। 5-57-57 सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।
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