महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-167
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सात्यकिना भूरिनाम्नो राज्ञो वधः।। 1 ।। द्रौणिना घटोत्कचपराजयः।। 2 ।। भीमेन दुर्योधनपराभवः।। 3 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-167-1x |
भूरिस्तु समरे राजञ्शैनेयं रथिनां वरम्। आपतन्तमपासेधत्प्रयाणादिव कुञ्जरम्।। | 5-167-1a 5-167-1b |
अथैनं सात्यकिः क्रुद्धः पञ्चभिर्निशितैः शरैः। विव्याध हृदये तस्य प्रास्रवत्तस्य शोणितम्।। | 5-167-2a 5-167-2b |
तथैव कौरवो युद्धे शैनेयं युद्धदुर्मदम्। दशिभिर्निशितैस्तीक्ष्णैरविध्यत भुजान्तरे।। | 5-167-3a 5-167-3b |
तावन्योन्यं महाराज ततक्षाते शरैर्भृशम्। क्रोधसंरक्तनयनौ क्रोधाद्विष्फार्य कार्मुके।। | 5-167-4a 5-167-4b |
तयोरासीन्महाराज शस्त्रवृष्टिः सुदारुणा। क्रुद्धयोः सायकमुचोर्यमान्तकनिकाशयोः।। | 5-167-5a 5-167-5b |
तावन्योन्यं शरैः राजन्सञ्छाद्य समवस्थितौ। मुहूर्तं चैव तद्युद्धं समरूपमिवाभावत्।। | 5-167-6a 5-167-6b |
ततः क्रुद्धो महाराज शैनेयः प्रहसन्निव। धनुश्चिच्छेद समरे कौरव्यस्य महात्मनः।। | 5-167-7a 5-167-7b |
अथैनं छिन्नधन्वानं नवभिर्निशितैः शरैः। विव्याध हृदये तूर्णं तिष्ठतिष्ठेति चाब्रवीत्।। | 5-167-8a 5-167-8b |
सोऽतिविद्धो बलवता शत्रुणा शत्रुतापनः। धनुरन्यत्समादाय सात्वतं प्रत्यविध्यत।। | 5-167-9a 5-167-9b |
स विद्ध्वा सात्वतं बाणैस्त्रिभिरेव विशाम्पते। धनुश्चिच्छेद भल्लेन सुतीक्ष्णेन हसन्निव।। | 5-167-10a 5-167-10b |
छिन्नधन्वा महाराज सात्यकिः क्रोधमूर्च्छितः। प्रजहार महावेगां शक्तिं तस्य महोरसि।। | 5-167-11a 5-167-11b |
स तु शक्त्या विभिन्नाङ्गो निपपात रथोत्तमात्। लोहिताङ्ग इवाकाशाद्दीप्तरश्मिर्यदृच्छया।। | 5-167-12a 5-167-12b |
तं तु दृष्ट्वा हतं शूरमश्वत्थामा महारथः। अभ्यधावत वेगेन शैनेयं प्रति संयुगे।। | 5-167-13a 5-167-13b |
तिष्ठतिष्ठेति चाभाष्य शैनेयं स नराधिप। अभ्यवर्षच्छरौघेण मेरुं वृष्ट्या यथाम्बुदः।। | 5-167-14a 5-167-14b |
तमापतन्तं संरब्धं शैनेयस्य रथं प्रति। घटोत्कचोऽब्रवीद्राजन्नाहं मुक्त्वा महारथः।। | 5-167-15a 5-167-15b |
तिष्ठतिष्ठ न मे जीवन्द्रोणपुत्र गमिष्यसि। एष त्वां निहनिष्यामि महिषं मृगराडिव।। | 5-167-16a 5-167-16b |
युद्धश्रद्धामहं तेऽद्य विनेष्यामि रणाजिरे। इत्युक्त्वा क्रोधताम्राक्षो राक्षसः परवीरहा। द्रोणिमभ्यद्रवत्क्रुद्धो गजेन्द्रमिव केसरी।। | 5-167-17a 5-167-17b 5-167-17c |
रथाक्षमात्रैरिषुभिरभ्यवर्षद्धटोत्कचः। रथिनामृषभं द्रौणिं धाराभिरिव तोयदः।। | 5-167-18a 5-167-18b |
शरवृष्टिं तु तां प्राप्तां शरैराशीविषोपमैः। शातयामास समरे तरसा द्रौणिरुत्स्मयन्।। | 5-167-19a 5-167-19b |
ततः शरशतैस्तीक्ष्णैर्मर्मभेदिभिराशुगैः। समाचिनोद्राक्षसेन्द्रं घटोत्कचमरिन्दमम्।। | 5-167-20a 5-167-20b |
स शरैराचितस्तेन राक्षसो रणमूर्धनि। व्यकाशत महाराज श्वाविच्छललतो यथा।। | 5-167-21a 5-167-21b |
ततः क्रोधसमाविष्टो भैमसेनिः प्रतापवान्। शरैरवचकर्तोग्रैर्द्रौणिं वज्राशनिप्रभैः।। | 5-167-22a 5-167-22b |
क्षुरप्रैरर्धचन्द्रैश्च नाराचैः सशिलीमुखैः। वराहकर्णैर्नालीकैर्विकर्णैश्चाभ्यवीवृषत्।। | 5-167-23a 5-167-23b |
तां शस्त्रवृष्टिमतुलां वज्राशनिसमस्वनाम्। पतन्तीमुपरि क्रुद्धो द्रौणिरव्यथितेन्द्रियः।। | 5-167-24a 5-167-24b |
सुदुःसहां शरैर्घोरैर्दिव्यास्त्रप्रतिमन्त्रितैः। व्यधमत्सुमहातेजा महाभ्राणीव मारुतः।। | 5-167-25a 5-167-25b |
ततोऽन्तरिक्षे बाणानां सङ्ग्रामोऽन्य इवाभवत्। घोररूपो महाराज योधानां हर्षवर्धनः।। | 5-167-26a 5-167-26b |
ततोऽस्त्रसन्धर्षकृतैर्विस्फुलिङ्गैः समन्ततः। वमौ निशामुखे व्योम खद्योतैरिव संवृतम्।। | 5-167-27a 5-167-27b |
स मार्गणगणैर्द्रौणिर्दिशः प्रच्छाद्य सर्वतः. प्रियार्थं तव पुत्राणां राक्षसं समवाकिरत्।। | 5-167-28a 5-167-28b |
ततः प्रववृते युद्धं द्रौणिराक्षसयोर्मृधे। विगाढे रजनीमध्ये शक्रप्रह्लादयोरिव।। | 5-167-29a 5-167-29b |
ततो घटोत्कचो बाणैर्दशभिर्द्रौणिमाहवे। जघानोरसि सङ्क्रुद्धः कालज्वलनसन्निभैः।। | 5-167-30a 5-167-30b |
स तैरभ्यायतैर्विद्धो राक्षसेन महाबलः। चचाल समरे द्रौणिर्वातनुन्न इव द्रुमः।। | 5-167-31a 5-167-31b |
स मोहं समरे प्राप्तो ध्वजयष्टिं समाश्रितः।। | 5-167-32a |
ततो हाहाकृतं सैन्यं तव सर्वं जनाधिप। हतं स्म मेनिरे सर्वे द्रोणसूनुं जनाधिपाः।। | 5-167-33a 5-167-33b |
तं तु दृष्ट्वा तथावस्थमश्वत्थामानमाहवे। पाञ्चालाः सृञ्जयाश्चैव सिंहनादं प्रचक्रिरे।। | 5-167-34a 5-167-34b |
प्रतिलभ्य ततः संज्ञामश्वत्थामा महाबलः। धनुः प्रपीड्य वामेन करेणामित्रकर्शनः।। | 5-167-35a 5-167-35b |
मुमोचाकर्णपूर्णेन धनुषा शरमुत्तमम्। यमदण्डोपमं घोरमुद्दिश्याशु घटोत्कचम्।। | 5-167-36a 5-167-36b |
स भित्त्वा हृदयं तस्य राक्षसस्य शरोत्तमः। विवेश वसुधामुग्रः सपुङ्खः पृथिवीपते।। | 5-167-37a 5-167-37b |
सोऽतिविद्धो महाराज रथोपस्थ उपाविशत्। राक्षसेन्द्रः पुबलवान्द्रौणिना रणशालिना।। | 5-167-38a 5-167-38b |
दृष्ट्वा विमूढं हैडिम्बं सारथिस्तु रणाजिरात्। द्रौणेः सकाशात्सम्भ्रान्तस्त्वपनिन्येत्वरान्वितः।। | 5-167-39a 5-167-39b |
तथा तु समरे विद्ध्वा राक्षसेन्द्रं घटोत्कचम्। ननाद सुमहानादं द्रोणपुत्रो महारथः।। | 5-167-40a 5-167-40b |
पूजितस्तव पुत्रैश्च सर्वयोधैश्च भारत। वपुषाऽतिप्रजज्वाल मध्याह्न इव भास्करः।। | 5-167-41a 5-167-41b |
भीमसेनं तु युध्यन्तं भारद्वाजरथं प्रति। स्वयं दुर्योधनो राजा प्रत्यविध्यच्छितैः शरैः।। | 5-167-42a 5-167-42b |
तं भीमसेनो दशभिः शरैर्विव्याध मारिष। दुर्योधनोऽपि विंशत्या शराणां प्रत्यविध्यत।। | 5-167-43a 5-167-43b |
तौ सायकैरवच्छिन्नावदृश्येतां रणाजिरे। मेघजालसमाच्छन्नौ नभसीवेन्दुभास्करौ।। | 5-167-44a 5-167-44b |
अथ दुर्योधनो राजा भीमं विव्याध पत्रिभिः। पञ्चभिर्भरतश्रेष्ठ तिष्ठतिष्ठेति चाब्रवीत्।। | 5-167-45a 5-167-45b |
तस्य भीमो धनुश्छित्त्वा ध्वजं च दशभिः शरैः। विव्याध कौरवश्रेष्ठं नवत्या नतपर्वणाम्।। | 5-167-46a 5-167-46b |
ततो दुर्योधनः क्रुद्धो भनुरन्यन्महत्तरम्। गृहीत्वा भरतश्रेष्ठो भीमसेनं शितैः शरैः। अपीडयद्रणमुखे पश्यतां सर्वधन्विनाम्।। | 5-167-47a 5-167-47b 5-167-47c |
तान्निहत्य शरान्भीमो दुर्योधनधनुश्च्युतान्। कौरवं पञ्चविंशत्या क्षुद्रकाणां समार्पयत्।। | 5-167-48a 5-167-48b |
दुर्योधनस्तु सङ्क्रुद्धो भीमसेनस्य मारिष। क्षुरप्रेण धनुश्छित्त्वा दशभिः प्रत्यविध्यत।। | 5-167-49a 5-167-49b |
अथान्यद्धनुरादाय भीमसेनो महाबलः। विव्याध नृपतिं तूर्णं सप्तभिर्निशितैः शरैः।। | 5-167-50a 5-167-50b |
तदप्यस्य धनुः क्षिप्रं चिच्छेद लघुहस्तवत्। द्वितीयं च तृतीयं च चतुर्थं पञ्चमं तथा।। | 5-167-51a 5-167-51b |
आत्तमात्तं महाराज भीमस्य धनुराच्छिनत्। तव पुत्रो महाराज जितकाशी मदोत्कटः।। | 5-167-52a 5-167-52b |
स तथा भिद्यमानेषु कार्मुकेषु पुनः पुनः। शक्तिं चिक्षेप समरे सर्वपारशवीं शुभाम्।। | 5-167-53a 5-167-53b |
मृत्योरिव स्वसारं हि दीप्तां वह्निशिखामिव। सीमन्तमिव कुर्वन्तीं नभसोऽग्निसमप्रभाम्।। | 5-167-54a 5-167-54b |
अप्राप्तामेव तां शक्तिं त्रिधा चिच्छेद कौरवः। पश्यतः सर्वलोकस्य भीमस्य च महात्मनः।। | 5-167-55a 5-167-55b |
ततो भीमो महाराज गदां गुर्वीं महाप्रभाम्। चिक्षेपाविध्य वेगेन दुर्योधनरथं प्रति।। | 5-167-56a 5-167-56b |
ततः सा सहसा वाहांस्तव पुत्रस्य संयुगे। सारथिं च गदा गुर्वी ममर्दास्य रथं पुनः।। | 5-167-57a 5-167-57b |
पुत्रस्तु तव राजेन्द्र भीमाद्भीतः प्रणश्य च। आरुरोह रथं चान्यं नन्दकस्य महात्मनः।। | 5-167-58a 5-167-58b |
ततो भीमो हतं मत्वा तव पुत्रं महारथम्। सिंहनादं महच्चक्रे तर्जयन्निशि कौरवान्।। | 5-167-59a 5-167-59b |
तावकाः सैनिकाश्चापि मेनिरे निहतं नृपम्। ततोऽतिचुक्रुशुः सर्वे ते हाहेति समन्ततः।। | 5-167-60a 5-167-60b |
तेषां तु निनदं श्रुत्वा त्रस्तानां सर्वयोधिनाम्। भीमसेनस्य नादं च श्रुत्वा राजन्महात्मनः।। | 5-167-61a 5-167-61b |
ततो युधिष्ठिरो राजा हतं मत्वा सुयोधनम्। अभ्यवर्तत वेगेन यत्र पार्थो वृकोदरः।। | 5-167-62a 5-167-62b |
पाञ्चलाः केकया मात्स्याः सृञ्जयाश्च विशाम्पते। सर्वोद्योगेनाभिजग्मुद्रोणमेव युयुत्सया।। | 5-167-63a 5-167-63b |
तत्रासीत्सुमहद्युद्धं द्रोणस्याथ परैः सह। घोरे तमसि मग्नानां निघ्नतामितरेतरम्।। | 5-167-64a 5-167-64b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे सप्तषष्ट्यधिक शततमोऽध्यायः।। 167 ।। |
5-167-1 प्रयाणाद्यानस्थानात्। प्रवणादिति पाठे प्रवणं प्रकृष्टं वनं जलम्।। 5-167-2 तस्य सात्यकेः। तस्य तस्माद्धृदयात्।। 5-167-12 लोहिताङ्गः कुजः। यदृच्छया दैवेनेत्यभूतोपमा।। 5-167-16 महिषमसुरम्। महिषं षण्मुखो यथा इति घ.ङ.झ.पाठः।। 5-167-21 श्वाविच्छल्यकः। शललतः शललीभिः।। 5-167-58 प्रणश्य निलीनो भूत्वा।। 5-167-167 सप्तषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 167 ।।
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