महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-161
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द्रौणिधृष्टद्युम्नयोर्युद्धम्। द्रौणिपराक्रमः।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-161-1x |
दुर्योधनेनैवमुक्तो द्रौणिराहवदुर्मदः। चकारारिवधे यत्नमिन्द्रो दैत्यवधे यथा। प्रत्युवाच महाबाहुस्तव पुत्रमिदं वचः।। | 5-161-1a 5-161-1b 5-161-1c |
सत्यमेतन्महाबाहो यथा वदसि कौरव। प्रिया हि पाण्डवा नित्यं मम चापि पितुश्च मे।। | 5-161-2a 5-161-2b |
तथैवावां प्रियौ तेषां न तु युद्धे कुरूद्वह। शक्तितस्तात युध्यामस्त्यक्त्वा प्राणानभीतवत्।। | 5-161-3a 5-161-3b |
अहं कर्णश्च शल्यश्च कृपो हार्दिक्य एव च। निमेषात्पाण्डवीं सेनां क्षपयेम नृपोत्तम।। | 5-161-4a 5-161-4b |
ते चापि कौरवीं सेनां निमेषार्धात्कुरूद्वह। क्षपयेयुर्महाबाहो न स्याम यदि संयुगे।। | 5-161-5a 5-161-5b |
युध्याम पाण्डवाच्छक्त्या ते चाप्यस्मान्यथाबलम्। तेजस्तेजः समासाद्य प्रशमं यातु भारत।। | 5-161-6a 5-161-6b |
अशक्त्या तरसा जेतुं पाण्डवानामनीकिनी। जीवत्सु पाण्डुपुत्रेषु तद्धि सत्यं ब्रवीमि ते।। | 5-161-7a 5-161-7b |
आत्मार्थं युध्यमानास्ते समर्थाः पाण्डुनन्दनाः। किमर्थं तव सैन्यानि न हनिष्यन्ति भारत।। | 5-161-8a 5-161-8b |
त्वं तु लुब्धतमो राजन्निकृतिज्ञश्च कौरव। सर्वाभिशङ्की मानी च ततोऽस्मानभिशङ्कसे।। | 5-161-9a 5-161-9b |
मन्ये त्वं कुत्सितो राजन्पापात्मा पापपूरुषः। अन्यानपि स नः क्षुद्र शङ्कसे पापभावितः।। | 5-161-10a 5-161-10b |
अहं तु यत्नमास्थाय त्वदर्थे त्यक्तजीवितः। एष गच्छामि सङ्ग्रामं त्वत्कृते कुरुनन्दन। योत्स्येऽहं शत्रुभिः सार्धं जेष्यामि च वरान्वरान्।। | 5-161-11a 5-161-11b 5-161-11c |
पाञ्चालैः सह योत्स्यामि सोमकैः केकयैस्तथा। पाण्डवेयैश्च सङ्ग्रामे त्वत्प्रियार्थमरिन्दम।। | 5-161-12a 5-161-12b |
अद्य मद्बाणनिर्दग्धाः पाञ्चालाः सोमकास्तथा। सिंहेनेवार्दिता गावो विद्रविष्यन्ति सर्वशः।। | 5-161-13a 5-161-13b |
अद्य धर्मसुतो राजा दृष्ट्वा मम पराक्रमम्। अश्वत्थाममयं लोकं मंस्यते सह सोमकैः।। | 5-161-14a 5-161-14b |
आगमिष्यति निर्वेदं धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः। दृष्ट्वा विनिहतान्सङ्ख्ये पाञ्चालान्सोमकैः सह।। | 5-161-15a 5-161-15b |
ये मां युद्धेऽभियोत्स्यन्ति तान्हनिष्यामि भारत। न हि ते वीर मोक्ष्यन्ते मद्बाह्वन्तरमागताः।। | 5-161-16a 5-161-16b |
एवमुक्त्वा महाबाहुः पुत्रं दुर्योधनं तव। अभ्यवर्तत युद्धाय त्रासयन्सर्वधन्विनः। चिकीर्षुस्तव पुत्राणां प्रियं प्राणभृतां वरः।। | 5-161-17a 5-161-17b 5-161-17c |
ततोऽब्रवीत्सकैकेयान्पाञ्चालान्गौतमीसुतः।। | 5-161-18a |
प्रहरध्वमितः सर्वे मम गात्रे महारथाः। स्थिरीभूताश्च युध्यध्वं दर्शयन्तोऽस्त्रलाघवम्।। | 5-161-19a 5-161-19b |
एवमुक्तास्तु ते सर्वे शस्त्रवृषीरपातयन्। द्रौणिं प्रति महाराज जलं जलधरा इव।। | 5-161-20a 5-161-20b |
तान्निहत्य शरान्द्रौणिर्दश वीरानपोथयत्। प्रमुखे पाण्डुपुत्राणां धृष्टद्युम्नस्य च प्रभो।। | 5-161-21a 5-161-21b |
ते हन्यमानाः समरे पाञ्चालाः सोमकास्तथा। परित्यज्य रणे द्रौणिं व्यद्रवन्त दिशो दश।। | 5-161-22a 5-161-22b |
तान्दृष्ट्वा द्रवतः शूरान्पाञ्चालान्सहसोमकान्। धृष्टद्युम्नो महाराज द्रौणिमभ्यद्रवद्रणे।। | 5-161-23a 5-161-23b |
ततः काञ्चनचित्राणां सजलाम्बुदनादिनाम्। वृतः शतेन शूराणां रथानामनिवर्तिनाम्।। | 5-161-24a 5-161-24b |
पुत्रः पाञ्चालराजस्य धृष्टद्युम्नो महारथः। द्रौणिमित्यब्रवीद्वाक्यं दृष्ट्वा योधान्निपातितान्।। | 5-161-25a 5-161-25b |
आचार्यपुत्र भद्रं ते किमन्यैर्निहतैस्तव। समागच्छ मया सार्धं यदि शूरोऽसि संयुगे। अहं त्वां निहनिष्यामि तिष्ठेदानीं ममाग्रतः।। | 5-161-26a 5-161-26b 5-161-26c |
ततस्तमाचार्यसुतं धृष्टद्युम्नः प्रतापवान्। मर्मभिद्भिः शरैस्तीक्ष्णैर्जघान भरतर्षभ।। | 5-161-27a 5-161-27b |
ते तु पङ्क्तीकृता द्रौणिं शरा विविशुराशुगाः। रुक्मपुङ्खाः प्रसन्नाग्राः सर्वकायावदारणाः। मध्वर्थिन इवोद्दामा भ्रमराः पुष्पितं द्रुमम्।। | 5-161-28a 5-161-28b 5-161-28c |
सोऽतिविद्धो भृशं क्रुद्धः पदाक्रान्त इवोरगः। मानी द्रौणिरसम्भ्रान्तो बाणपाणिरभाषत।। | 5-161-29a 5-161-29b |
धृष्टद्युम्न स्थिरो भूत्वा मुहूर्तं प्रतिपालय। यावत्त्वां निशितैर्बाणैः प्रेषयामि यमक्षयम्।। | 5-161-30a 5-161-30b |
द्रौणिरेवमथाभाष्य पार्षतं परवीरहा। छादयामास बाणौघैः समन्ताल्लुघुहस्तवत्।। | 5-161-31a 5-161-31b |
स बाध्यमानः समरे द्रौणिना युद्धदुर्मदः। द्रौणिं पाञ्चालतनयो वाग्भिरातर्जयत्तदा।। | 5-161-32a 5-161-32b |
न जानीषे प्रतिज्ञां मे विप्रोत्पत्तिं तथैव च। द्रोणं हत्वा किल मया हन्तव्यस्त्वं सुदुर्मते।। | 5-161-33a 5-161-33b |
ततस्त्वाऽहं न हन्म्यद्य द्रोणे जीवति संयुगे।। | 5-161-34a |
इमां तु रजनीं प्राप्तामप्रभातां सुदुर्मते। निहत्य पितरं तेऽद्य ततस्त्वामपि संयुगे। नेष्यामि प्रेतलोकाय ह्येतन्मे मनसि स्थितम्।। | 5-161-35a 5-161-35b 5-161-35c |
यस्ते पार्थेषु विद्वेषो या भक्तिः कौरवेषु च। तां दर्शय स्थिरो भूत्वा न मे जीवन्विमोक्ष्यसे।। | 5-161-36a 5-161-36b |
यो हि ब्राह्मण्यमुत्सृज्य क्षत्रधर्मरतो द्विजः। स वध्यः सर्वलोकस्य यथा त्वं पुरुषाधमः।। | 5-161-37a 5-161-37b |
इत्युक्तः परुषं वाक्यं पार्षतेन द्विजोत्तमः। क्रोधमाहारयत्तीव्रं तिष्ठतिष्ठेति चाब्रवीत्।। | 5-161-38a 5-161-38b |
निर्दहन्निव चक्षुर्भ्यां पार्षतं सोऽभ्यवैक्षत। छादयामास च शरैर्निःश्वसन्पन्नगो यथा।। | 5-161-39a 5-161-39b |
स च्छाद्यमानः समरे द्रौणिना राजसत्तम। सर्वपाञ्चालसेनाभिः संवृतो रथसत्तमः।। | 5-161-40a 5-161-40b |
नाकम्पत महाबाहुः स्ववीर्यं समुपाश्रितः। सायकांश्चैव विविधानश्वत्थाम्नि मुमोच ह।। | 5-161-41a 5-161-41b |
तौ पुनः सन्न्यवर्तेतां प्राणद्यूतपणे रणे। निपीडयन्तौ बाणौघैः परस्परममर्षिणौ। उत्सृजन्तौ महेष्वासौ शरवृष्टीः समन्ततः।। | 5-161-42a 5-161-42b 5-161-42c |
द्रौणिपार्षतयोर्युद्धं घोररूपं भयानकम्। दृष्ट्वा सम्पूजयामासुः सिद्धचारणवादिकाः।। | 5-161-43a 5-161-43b |
शरौघैः पूरयन्तौ तावाकाशं च दिशस्तथा। अलक्ष्यौ समयुध्येतां महत्कृत्वा शरैस्तमः।। | 5-161-44a 5-161-44b |
नृत्यमानाविव रणे मण्डलीकृतकार्मुकौ। परस्परवधे यत्तौ सर्वभूतभयङ्करौ।। | 5-161-45a 5-161-45b |
अयुध्येतां महाबाहू चित्रं लघु च सुष्ठु च। सम्पूज्यमानौ समरे योधमुख्यैः सहस्रशः।। | 5-161-46a 5-161-46b |
तौ प्रबुद्धौ रणे दृष्ट्वा वने वन्यौ गजाविव। उभयोः सेनयोर्हर्षस्तुमुलः समपद्यत।। | 5-161-47a 5-161-47b |
सिंहनादरवाश्चासन्दध्मुः शङ्खांश्च सैनिकाः। वादित्राण्यभ्यवाद्यन्त शतशोऽथ सहस्रशः।। | 5-161-48a 5-161-48b |
तस्मिंस्तु तुमुले युद्धे भीरुणां भयवर्धने। मुहूर्तमपि तद्युद्धं समरूपं तदाऽभवत्।। | 5-161-49a 5-161-49b |
ततो द्रौणिर्महाराज पार्षतस्य महात्मनः। ध्वजं धनुस्तथा छत्रमुभौ च पार्ष्णिसारथी। सूतमश्वांश्च चतुरो निहत्याभ्यद्रवद्रणे।। | 5-161-50a 5-161-50b 5-161-50c |
पाञ्चालांश्चैव तान्सर्वान्बाणैः सन्नतपर्वभिः। व्यद्रावयदमेयात्मा शतशोऽथ सहस्रशः।। | 5-161-51a 5-161-51b |
ततस्तु विव्यथे सेना पाण्डवी भरतर्षभ। दृष्ट्वा द्रौणेर्महत्कर्म वासवस्येव संयुगे।। | 5-161-52a 5-161-52b |
शतेन च शतं हत्वा पाञ्चालानां महारथः। त्रिभिश्च निशितैर्बाणैर्हत्वा त्रीन्वै महारथान्।। | 5-161-53a 5-161-53b |
द्रौणिर्द्रुपदपुत्रस्य फल्गुनस्य च पश्यतः। नाशयामास पाञ्चालान्भूयिष्ठं ये व्यवस्थिताः।। | 5-161-54a 5-161-54b |
ते वध्यमानाः पाञ्चालाः समरे सह सृञ्जयैः। अगच्छन्द्रौणिमुत्सृज्य विप्रकीर्णरथध्वजाः।। | 5-161-55a 5-161-55b |
स जित्वा समरे शत्रून्द्रोणपुत्रो महारथः। ननाद सुमहानादं तपान्ते जलदो यथा।। | 5-161-56a 5-161-56b |
स निहत्य बहूञ्छूरानश्वत्थामा व्यरोचत। युगान्ते सर्वभूतानि भस्म कृत्वेव पावकः।। | 5-161-57a 5-161-57b |
सम्पूज्यमानो युधि कौरवेयै-- र्निर्जित्य सङ्ख्येऽरिगणान्सहस्रशः। व्यरोचत द्रोणसुतः प्रतापवा-- न्यथा सुरेन्द्रोऽरिगणान्निहत्य वै।। | 5-161-58a 5-161-58b 5-161-58c 5-161-58d |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे एकषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 161 ।। |
5-161-9 निकृतिर्वञ्चनम्।। 5-161-43 वादिकाः वन्दिनः।। 5-161-161 एकषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।।
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