महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-144
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सञ्जयेन धृतराष्ट्रम्प्रति सात्यकेः भूरिश्रवसा पराभवकारणकथनम्।। 1 ।। तथा यादवानां प्रशंसनम्।। 2 ।।
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धृतराष्ट्र उवाच। | 5-144-1x |
अजितो द्रोणराधेयविकर्णकृतवर्मभिः। `यश्चैवोत्सहते वेतुं समस्तं मामकं बलम'। तीर्णः सैन्यार्णवं वीरः प्रतिश्रुत्य युधिष्ठिरे।। | 5-144-1a 5-144-1b 5-144-1c |
स कथं कौरवेयेण समरेष्वनिवारितः। निगृह्य भूरिश्रवसा बलाद्भुवि निपातितः।। | 5-144-2a 5-144-2b |
सञ्जय उवाच। | 5-144-3x |
शृणु राजन्निहोत्पत्तिं शैनेयस्य यथा पुरा। यथा च भूरिश्रवसो यत्र ते संशयो नृप।। | 5-144-3a 5-144-3b |
`ब्रह्मणस्त्वभवत्पुत्रो मानसोऽत्रिर्महातपाः'। अत्रेः पुत्रोऽभवत्सोमः सोमस्य तु बुधः स्मृतः।। | 5-144-4a 5-144-4b |
बुधस्यैलो महाबाहुः पुत्र आसीत्पुरूरवाः। पुरूरवस आयुस्तु आयुषो नहुषः सुतः।। | 5-144-5a 5-144-5b |
नहुषस्य ययातिस्तु राजा देवर्षिसम्मतः। ययातेर्देवयान्यां तु यदुर्ज्येष्ठोऽभवत्सुतः।। | 5-144-6a 5-144-6b |
यदोरभूदन्ववाये आजमीढ इति स्मृतः। यादवस्तस्य तु सुतः शूरस्त्रैलोक्यसम्मतः।। | 5-144-7a 5-144-7b |
शूरस्य शौरिर्नृवरो वसुदेवो महायशाः। धनुष्यनवरः शूरः कार्तवीर्यसमो युधि। धनुष्यनवरः शूरः कार्तवीर्यसमो युधि। तद्वार्यश्चापि तत्रैव कुले शिनिरभून्नृप।। | 5-144-8a 5-144-8b 5-144-8c 5-144-8d |
एतस्मिन्नेव काले तु देवकस्य महात्मनः। दुहितः स्वयंवरे राजन्सर्वक्षत्रसमागमे।। | 5-144-9a 5-144-9b |
तत्र वै देवकीं देवीं वसुदेवार्थमाशु वै। निर्जित्व पार्थिवान्सर्वान्रथमारोपयच्छिनिः।। | 5-144-10a 5-144-10b |
तां दृष्ट्वा देवकीं शूरो रथस्थां पुरुषर्षभः। नामृष्यत महातेजाः सोमदत्तः शिनेर्नृप।। | 5-144-11a 5-144-11b |
तयोर्युद्धमभूद्राजन्दिनार्धं चित्रमुद्भतम्। बाहुयुद्धं सुबलिनोः प्रसक्तं पुरुषर्षभः।। | 5-144-12a 5-144-12b |
शिनिना सोमदत्तस्तु प्रसह्य भुवि पातितः। असिमुद्यम्य केशेषु प्रगृह्य च पदा हतः।। | 5-144-13a 5-144-13b |
मध्ये राजसहस्राणां प्रेक्षकाणां समन्ततः। कृपया च पुनस्तेन स जीवेति विसर्जितः।। | 5-144-14a 5-144-14b |
तदवस्थः कृतस्तेन सोमदत्तोऽथ मारिष। प्रासादयन्महादेवममर्षवशमास्थितः।। | 5-144-15a 5-144-15b |
तस्य तुष्टो महादेवो वराणां वरदः प्रभुः। वरेण च्छन्दयामास स तु वव्रे वरं नृपः।। | 5-144-16a 5-144-16b |
पुत्रमिच्छामि भगवन्यो निपात्य शिनेः सुतम्। मध्ये राजसहस्राणां पदा हन्याच्च संयुगे।। | 5-144-17a 5-144-17b |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा सोमदत्तस्य पार्थिव। एवमस्त्विति तत्रोक्त्वा स देवोऽन्तरधीयत। स तेन वरदानेन लब्धवान्भूरिदक्षिणम्।। | 5-144-18a 5-144-18b 5-144-18c |
अपातयच्च समरे सौमदत्तिः शिनेः सुतम्। पश्यतां सर्वसैन्यानां पदा चैनमताडयत्।। | 5-144-19a 5-144-19b |
एतत्ते कथितं राजन्यन्मां त्वं परिपृच्छसि। न हि शक्यो रणे जेतुं सात्वतो मनुजर्षभैः।। | 5-144-20a 5-144-20b |
लब्धलक्ष्याश्च सङ्ग्रामे बहुशश्चित्रयोधिनः। देवदानवगन्धर्वान्विजेतारो ह्यविस्मिताः। स्ववीर्यविजये युक्ता नैते परपरिग्रहाः।। | 5-144-21a 5-144-21b 5-144-21c |
न तुल्यं वृष्णिभिरिह दृश्यते किञ्चन प्रभो। भूतं भव्यं भविष्यच्च बलेन भरतर्षभ।। | 5-144-22a 5-144-22b |
न ज्ञातिमवमन्यन्ते वृद्धानां शासने रताः।। | 5-144-23a |
न देवासुरगन्धर्वा न यक्षोरगराक्षसाः। जेतारो वृष्णिवीराणां किं पुनर्मानवा रणे।। | 5-144-24a 5-144-24b |
ब्रह्मद्रव्ये गुरुद्रव्ये ज्ञातिस्वे चाप्यहिंसकाः। एतेषां रक्षितारश्च ये स्युः कस्याञ्चिदापदि।। | 5-144-25a 5-144-25b |
अर्थवन्तो न चोत्सिक्ता ब्रह्मण्याः सत्यवादिनः। समर्थान्नावमन्यन्ते दीनानभ्युद्वरन्ति च।। | 5-144-26a 5-144-26b |
नित्यं देवपरा दान्तास्त्रातारश्चाविकत्थनाः। तेन वृष्णिप्रवीराणां चक्रं न प्रतिहन्यते।। | 5-144-27a 5-144-27b |
अपि मेरुं वहेत्कश्चित्तरेद्वा मकरालयम्। न तु वृष्णिप्रवीराणां समेत्यान्तं व्रजेन्नृप।। | 5-144-28a 5-144-28b |
एतत्ते सर्वमाख्यातं यत्र ते संशयः प्रभो। कुरुराज नरश्रेष्ठ तव व्यपनयो महान्।। | 5-144-29a 5-144-29b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 144 ।। |
5-144-21 परपग्रहाः रिपराधीनाः।। 21 ।। 5-144-27 चक्रं प्रतापः।। 5-144-144 चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।।
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