महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-101
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जयद्रथं यियासोरर्जुनस्य दुर्योधनेन निरोधः।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-101-1x |
स्रंसन्त इव मज्जानस्तावकानां भयान्नृप। तौ दृष्ट्वा समतिक्रान्तौ वासुदेवधनञ्जयौ।। | 5-101-1a 5-101-1b |
सर्वे तु प्रतिसंरब्धा हीमन्तः सत्वचोदिताः। स्थिरीभूता महात्मानः प्रत्यगच्छन्धनञ्जयम्।। | 5-101-2a 5-101-2b |
ये गताः पाण्डवं युद्धे रोषामर्षसमन्विताः। तेऽद्यापि न निवर्तन्ते सिन्धवः सागरादिव।। | 5-101-3a 5-101-3b |
असन्तस्तु न्यवर्तन्त वेदेभ्य इव नास्तिकाः। नरकं भजमानास्ते प्रत्यपद्यन्त किल्बिषम्।। | 5-101-4a 5-101-4b |
तावतीत्य रथानीकं विमुक्तौ पुरुषर्षभौ। ददृशाते यथा राहोरास्यान्मुक्तौ प्रभाकरौ।। | 5-101-5a 5-101-5b |
मत्स्याविव महाजालं विदार्य विगतक्लमौ। तथा कृष्णावदृश्येतां सेनाजालं विदार्य तत्।। | 5-101-6a 5-101-6b |
विमुक्तौ शस्त्रसम्बाधाद्रोणानीकात्सुदुर्भिदात्। अदृश्येतां महात्मानौ कालसूर्याविवोदितौ।। | 5-101-7a 5-101-7b |
अस्त्रसम्बाधनिर्मुक्तौ विमुक्तौ शस्त्रसङ्कटात्। अदृश्येतां महात्मानौ शत्रुसम्बाधकारिणौ।। | 5-101-8a 5-101-8b |
विमुक्तौ ज्वलनस्पर्शान्मकरास्याज्झषाविव। अक्षोभयेतां सेनां तौ समुद्रं मकराविव।। | 5-101-9a 5-101-9b |
तावकास्तव पुत्राश्च द्रोणानीकस्थयोस्तयोः। नैतौ तरिष्यतो द्रोणमिति चक्रुस्तदा मतिम्।। | 5-101-10a 5-101-10b |
तौ तु दृष्ट्वा व्यतिक्रान्तौ द्रोणानीकं महाद्युती। नाशशंसुर्महाराज सिन्धुराजस्य जीवितम्।। | 5-101-11a 5-101-11b |
आशा बलवती राजन्सिन्धुराजस्य जीविते। द्रोणहार्दिक्ययोः कृष्णौ न मोक्ष्येते इति प्रभो।। | 5-101-12a 5-101-12b |
तामाशां विफलीकृत्य सन्तीर्णौ तौ परन्तपौ। द्रोणानीकं महाराज भोजानीकं च दुस्तरम्।। | 5-101-13a 5-101-13b |
अथ दृष्ट्वा व्यतिक्रान्तौ ज्वलिताविव पावकौ। निराशाः सिन्धुराजस्य जीवितं न शशंसिरे।। | 5-101-14a 5-101-14b |
मिथश्च समभाषेतामभीतौ भयवर्धनौ। जयद्रथवधे वाचस्तास्ताः कृष्णधनञ्जयौ।। | 5-101-15a 5-101-15b |
असौ मध्ये कृतः षङ्भिर्धार्तराष्ट्रैर्महारथैः। चक्षुर्विषयसम्प्राप्तो न मे मोक्ष्यति सैन्धवः।। | 5-101-16a 5-101-16b |
यद्यस्य समरे गोप्ता शक्रो देवगणैः सह। तथाप्येनं निहंस्याव इति कृष्णावभाषताम्।। | 5-101-17a 5-101-17b |
इति कृष्णौ महाबाहू मिथः कथयतां तदा। सिन्धुराजमवेक्षन्तौ त्वत्पुत्रा बहु चुक्रुशुः।। | 5-101-18a 5-101-18b |
अतीत्य मरुधन्वानं प्रयान्तौ तृषितौ गजौ। पीत्वा वारि समाश्वस्तौ तथैवास्तामरिन्दमौ।। | 5-101-19a 5-101-19b |
व्याघ्रसिंहगजाकीर्णानतिक्रम्य च पर्वतान्। वणिजाविव दृश्येतां हीनमृत्यू जरातिगौ।। | 5-101-20a 5-101-20b |
तथाहि मुखवर्णोऽयमनयोरिति मेनिरे। तावका वीक्ष्य मुक्तौ तौ विक्रोशन्ति स्म सर्वशः।। | 5-101-21a 5-101-21b |
द्रोणादाशीविषाकाराज्ज्वलितादिव पावकात्। अन्येभ्यः पार्थिवेभ्यश्च भास्वन्ताविव भास्करौ।। | 5-101-22a 5-101-22b |
विमुक्तौ सागरप्रख्याद्रोणानीकादर्रिदमौ। अदृश्येतां मुदा युक्तौ समुत्तीर्यार्णवं यथा।। | 5-101-23a 5-101-23b |
अस्त्रौघान्महतो मुक्तौ द्रोणहार्दिक्यरक्षितात्। रोचमानावदृश्येतामिन्द्राग्न्योः सदृशौ रणे।। | 5-101-24a 5-101-24b |
उद्भिन्नरुधिरौ कृष्णौ भारद्वाजस्य सायकैः। शितैश्चितौ व्यरोचेतां कर्णिकारैरिवाचलौ।। | 5-101-25a 5-101-25b |
द्रोणग्राहहूदान्मुक्तौ शक्त्याशीविषसङ्कटात्। अयःशरोग्रमकरात्क्षत्रियप्रवराम्भसः।। | 5-101-26a 5-101-26b |
ज्याघोषतलनिर्हादाद्गदानिस्त्रिंशविद्युतः। द्रोणास्त्रमेघान्निर्मुक्तौ सूर्येन्दू तिमिरादिव।। | 5-101-27a 5-101-27b |
बाहुभ्यामिव सन्तीर्णौ सिन्धुषष्ठाः समुद्रगाः। तपान्ते सरितः पूर्णा महाग्राहसमाकुलाः।। | 5-101-28a 5-101-28b |
`महाशैलोच्चयां घोरां लङ्घयित्वा महानदीम्। निस्तीर्णावध्वगौ यद्वत्तद्वत्तौ तारितौ रणे'।। | 5-101-29a 5-101-29b |
इति कृष्णौ महेष्वासौ प्रशस्तौ लोकविश्रुतौ। सर्वभूतान्यमन्यन्त द्रोणास्त्रबलवारणात्।। | 5-101-30a 5-101-30b |
जयद्रथं समीपस्थमवेक्षन्तौ जिघांसया। रुरुं वनान्ते लिप्सन्तौ व्याघ्रवत्तावतिष्ठताम्।। | 5-101-31a 5-101-31b |
यथा हि मुखवर्णोऽयमनयोरिति मेनिरे। तव योधा महाराज हतमेव जयद्रथम्।। | 5-101-32a 5-101-32b |
लोहिताक्षौ महाबाहू संयुक्तौ कृष्णपाण्डवौ। सिन्धुराजमभिप्रेक्ष्य हृष्टौ व्यनदतां मुहुः।। | 5-101-33a 5-101-33b |
शौरेरभीषुहस्तस्य पार्थस्य च धनुष्मतः। तयोरासीत्प्रभा राजन्सूर्यपावकयोरिव।। | 5-101-34a 5-101-34b |
हर्ष एव तयोरासीद्द्रोणानीकप्रमुक्तयोः। समीपे सैन्धवं दृष्ट्वा श्येनयोरामिषं यथा।। | 5-101-35a 5-101-35b |
तौ तु सैन्धवमालोक्य वर्तमानमिवान्तिके। सहसा पेततुःक्रुद्धौ क्षिप्रं श्येनाविवामिपम्।। | 5-101-36a 5-101-36b |
तौ दृष्ट्वा तु व्यतिक्रान्तौ हृषीकेशधनञ्जयौ। सिन्धुराजस्य रक्षार्थं पराक्रान्तः सुतस्तव।। | 5-101-37a 5-101-37b |
द्रोणेनाबद्धकवचो राजा दुर्योधनस्ततः। ययावेकरथेनाजौ हयसंस्करावित्प्रभो।। | 5-101-38a 5-101-38b |
कृष्णपार्थौ महेष्वासौ व्यतिक्रम्याथ ते सुतः। अग्रतः पुण्डरीकाक्षं प्रतीयाय नराधिप।। | 5-101-39a 5-101-39b |
ततः सर्वेषु सैन्येषु वादित्राणि प्रहृष्टवत्। प्रावाद्यन्त व्यतिक्रान्ते तव पुत्रे धनञ्जयम्।। | 5-101-40a 5-101-40b |
सिंहनादरवाश्चासञ्शङ्खशब्दविमिश्रिताः। दृष्ट्वा दुर्योधनं तत्र कृष्णयोः प्रमुखे स्थितम्।। | 5-101-41a 5-101-41b |
ये च ते सिन्धुराजस्य गोप्तारः पावकोपमाः। ते प्राहृष्यन्त समरे दृष्ट्वा पुत्रं तव प्रभो।। | 5-101-42a 5-101-42b |
दृष्ट्वा दुर्योधनं कृष्णो व्यतिक्रान्तं सहानुगम्। अब्रवीदर्जुनं राजन्प्राप्तकालमिदं वचः।। | 5-101-43a 5-101-43b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे एकाधिकशततमोऽध्यायः।। 101 ।। |
5-101-3 अमर्षश्चिरानुंवद्धः कोपः।। 5-101-5 प्रभाकरौ चन्द्रादित्यौ।। 5-101-19 मरुधन्वानं मरुस्थलम्।। 5-101-28 सिन्धुः षष्ठी यासाम्। ताश्च शतद्रुविपाशेरावतीचन्द्रभागावितस्ताः। एताहि नितान्तदुस्तराः।। 5-101-31 रुरुं निपाने इति ट. पाठः। रूरुन्निपाते इति क. पाठः।। 5-101-39 अग्रतः प्रमुखे।। 5-101-101 एकाधिकशततमोऽध्यायः।।
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