महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-082
← द्रोणपर्व-081 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-082 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-083 → |
श्रीकृष्णस्य कृताह्निकं युधिष्ठिरं प्रत्यागमनम्।। 1 ।।
|
सञ्जय उवाच। | 5-82-1x |
तयोः संवदतोरेव कृष्णदारुकयोस्तथा। साऽत्यगाद्रजनी राजन्नथ राजा स्म बोध्यते।। | 5-82-1a 5-82-1b |
पठन्ति पाणिध्वनिका मागधाः स्तवगायकाः। वैतालिकाश्च सूताश्च तुष्टुवुः पुरुषर्षभम्।। | 5-82-2a 5-82-2b |
नर्तकाश्चाप्यनृत्यन्त जगुर्गीतानि गायकाः। कुरुवंशस्तवार्थानि मधुरं रक्तकण्ठिनः।। | 5-82-3a 5-82-3b |
मृदङ्गा झर्झरा भेर्यः पणवानकगोमुखाः। आडम्बराश्च शङ्खाश्च दुन्दुभ्यश्च महास्वनाः।। | 5-82-4a 5-82-4b |
एवमेतानि सर्वाणि तथान्यान्यपि भारत। वादयन्ति स्म संहृष्टाः कुशलाः साधुशिक्षिताः।। | 5-82-5a 5-82-5b |
स मेघसमनिर्घोषो महाञ्शब्दोऽस्पृशद्दिवम्। पार्थिवप्रवरं सुप्तं युधिष्ठिरमबोधयत्।। | 5-82-6a 5-82-6b |
प्रतिबुद्धः सुखं सुप्तो महार्हे शयनोत्तमे। उत्थायावश्यकार्यार्थं ययौ स्नानगृहं नृपः।। | 5-82-7a 5-82-7b |
ततः शुक्लाम्बराः स्नातास्तरुणाः शतमष्ट च। स्नापकाः काञ्चनैः कुम्भैः पूर्णैः समुपतस्थिरे।। | 5-82-8a 5-82-8b |
भद्रासने सूपविष्टः परिधायाम्बरं लघु। सस्नौ चन्दनसंयुक्तैः पानीयैरभिमन्त्रितैः।। | 5-82-9a 5-82-9b |
उत्सादितः कषायेण बलवद्भिः सुशिक्षितैः। आप्लुतः साधिवासेन जलेन ससुगन्धिना।। | 5-82-10a 5-82-10b |
राजहंसनिभं प्राप्य उष्णीषं शिथिलार्पितम्। जलक्षयनिमित्तं वै वेष्टयामास मूर्धनि।। | 5-82-11a 5-82-11b |
हरिणा चन्दनेनाङ्गमुपलिप्य महाभुजः। स्रग्वी चाक्लिष्टवसनः प्राङ्मुखः प्राञ्जलिः स्थितः।। | 5-82-12a 5-82-12b |
`कृत्वेन्द्रियाणामैकाग्र्यं मनसश्च महामनाः'। जजाप जप्यं कौन्तेयः सतां मार्गमनुष्ठितः। तत्राग्निशरणं दीप्तं प्रविवेश विनीतवत्।। | 5-82-13a 5-82-13b 5-82-13c |
समिद्भिः स पवित्राभिरग्निमाहुतिभिस्तथा। मन्त्रपूताभिरर्चित्वा निश्चक्राम गृहात्ततः।। | 5-82-14a 5-82-14b |
द्वितीयां पुरुषव्याघ्रः कक्ष्यां निर्गम्य पार्थिवः। ततो वेदविदो वृद्धानपश्यद्ब्राह्मणर्षभान्।। | 5-82-15a 5-82-15b |
दान्तान्वेदव्रतस्नातान्स्नातानवभृथेषु च। सहस्रानुचरान्सौरान्सहस्रं चाष्ट चापरान्।। | 5-82-16a 5-82-16b |
अक्षतैः सुमनोभिश्च वाचयित्वा महाभुजः। तान्द्विजान्मधुसर्पिर्भ्यां फलैः श्रेष्ठैः सुमङ्गलैः।। | 5-82-17a 5-82-17b |
प्रादात्काञ्चनमेकैकं निष्कं विप्राय पाण्डवः। अलङ्कृतं चाश्वशतं वासांसीष्टाश्च दक्षिणाः।। | 5-82-18a 5-82-18b |
तथा गाः कपिला दोग्ध्रीः सवत्साः पाण्डुनन्दनः। हेमशृङ्गा रौप्यखुरा दत्त्वा तेभ्यः प्रदक्षिणम्।। | 5-82-19a 5-82-19b |
स्वस्तिकान्वर्धमानांश्च नन्द्यावर्तांश्च काञ्चनान्। माल्यं च जलकुम्भांश्च ज्वलितं च हुताशनम्।। | 5-82-20a 5-82-20b |
पूर्णान्यक्षतपात्राणि रुचकं रोचनास्तथा। स्वलङ्कृताः शुभाः कन्या दधिसर्पिर्मधूदकम्।। | 5-82-21a 5-82-21b |
मङ्गल्यान्पक्षिणश्चैव यच्चान्यदपि पूजितम्। दृष्ट्वा स्पृष्ट्वा च कौन्तेयो बाह्यां कक्ष्यां ततोऽगमत्।। | 5-82-22a 5-82-22b |
ततस्तस्यां नहाबाहोस्तिष्ठतः परिचारकाः। सौवर्णं सर्वतोभद्रं मुक्तावैदूर्यमण्डितम्।। | 5-82-23a 5-82-23b |
परार्ध्यास्तरणास्तीर्णं सोत्तरच्छदमृद्धिमत्। विश्वकर्मकृतं दिव्यमुपजह्रुर्वरासनम्।। | 5-82-24a 5-82-24b |
तत्र तस्योपविष्टस्य भूषणानि महात्मनः। उपाजह्रुर्महार्हाणि प्रेप्याः शुभ्राणि सर्वशः।। | 5-82-25a 5-82-25b |
युक्ताभरणवेषस्य कौन्तेयस्य महात्मनः। रूपमासीन्महाराज द्विषतां शोकवर्धनम्।। | 5-82-26a 5-82-26b |
चामरैश्चन्द्ररश्म्याभैर्हेमदण्डैः सुशोभनैः। दोधूयमानैः शुशुभे विद्युद्भिरिव तोयदः।। | 5-82-27a 5-82-27b |
संस्तूयमानः सूत्रैश्च वन्द्यमानश्च वन्दिभिः। उपगीयमानो गन्धर्वैरास्ते स्म कुरुनन्दनः।। | 5-82-28a 5-82-28b |
ततो मुहूर्तमासीच्च वन्दिनां निनदो महान्। रथानां नेमिघोषश्च खुरघोषश्च वाजिनाम्।। | 5-82-29a 5-82-29b |
हादेन गजघण्टानां शङ्खानां निनदेन च। नराणां पदशब्दैश्च कम्पतीव स्म मेदिनी।। | 5-82-30a 5-82-30b |
ततः शुद्धान्तमासाद्य जानुभ्यां भूतले स्थितः। शिरसा वन्दनीयं तमभिवाद्य जनेश्वरम्।। | 5-82-31a 5-82-31b |
कुण्डली बद्धनिस्त्रिंशः सन्नद्धकवचो युवा। अभिप्रणम्य शिरसा द्वास्थो धर्मात्मजाय वै।। | 5-82-32a 5-82-32b |
न्यवेदयद्धृषीकेशमुपयान्तं महात्मने। सोऽब्रवीत्पुरुषव्याघ्रः स्वागतेनैव माधवः।। | 5-82-33a 5-82-33b |
`प्रवेश्यतां समीपं मे किमर्थं प्रविलम्बसे'। आसनं च मधुघ्नाय दीयतां परमार्चितम्। ततः प्रवेश्य वार्ष्णेयमुपवेश्य वरासने।। | 5-82-34a 5-82-34b 5-82-34c |
सत्कृत्य सत्कृतस्तेन पर्यपृच्छद्युधिष्ठिरः।। | 5-82-35a |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि द्व्यशीतितमोऽध्यायः।। 82 ।। |
5-82-2 पाणिध्वनिका हस्तेन तालस्वनं कुर्वते।। 5-82-3 रक्तकण्ठिनो रञ्जकस्वराः।। 5-82-4 झर्झरा झिल्लिकाः। भेर्यो बृहढ्ढक्काः। पणवा मुरजाः। आनकाः पटहाः। गोमुखाः त्रागडाः। आडम्बराश्च क्षुद्रपटहाः। दुन्दुभ्यो ढक्काः।। 5-82-9 भद्रासने चतुःसमासने।। 5-82-10 कषायेण सर्वौषध्यादिकल्केन।। 5-82-12 अक्लिष्टमनुपहतं वसनं यस्य।। 5-82-13 दीप्तं ज्वलदग्निम्।। 5-82-16 सौरान्सूर्योपासकान्।। 5-82-19 प्रदक्षिणं कृत्वेति शेषः।। 5-82-20 स्वस्तिकानालिङ्गनानि। वर्धमानान् शरावान्। नन्द्यावर्तान्सम्पुटिताद्यर्घपात्राणि।। 5-82-21 रुचकं मातुलुङ्गकम्।। 5-82-24 विश्वकर्मकृतं विश्वकर्मप्रणीतेन विधिना निर्मितम्।। 5-82-28 वन्द्यमानः स्तूयमानः। स्तुत्यर्थस्य वदे रूपम्।। 5-82-31 शुद्धान्तं कक्ष्याभ्यन्तरम्।। 5-82-82 द्व्यशीतिततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-081 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-083 |