महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-011
← द्रोणपर्व-010 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-011 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-012 → |
धृतराष्ट्रेण प्रसङ्गाद्भक्त्युद्रेकेण--श्रीकृष्णचरित्रानुकीर्तनम्।। 1 ।। धृतराष्ट्रेण बहुधा विचिन्त्य सञ्जयम्प्रति युद्धकथनचोदना।। 2 ।।
|
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-11-1x |
शृणु दिव्यानि कर्माणि वासुदेवस्य सञ्जय। कृतवान्यानि गोविन्दो यथा नान्याःपुमान्क्वचित्।। | 5-11-1a 5-11-1b |
संवर्धता गोपकुले बालेनैव महात्मना। विख्यापितं बलं बाह्वोस्त्रिषु लोकेषु सञ्जय।। | 5-11-2a 5-11-2b |
पूतनां शकटं हत्वा केशिनं चैव वाजिनम्। ऋषभं धेनुकं चैव अरिष्टं च महाबलम्।। | 5-11-3a 5-11-3b |
दावान्मुक्त्वा महाबाहुर्धृत्वा गोवर्धनं निगिम्। चाणूरं मुष्टिकं चैव रङ्गमध्ये निहत्य च।। | 5-11-4a 5-11-4b |
प्रलम्बं नरकं जम्भं पीठं चापि महासुरम्। मुरुं चान्तकसङ्काशमवधीत्पुष्करेक्षणः।। | 5-11-5a 5-11-5b |
तथा कंसो महातेजा जरासन्धेन पालितः। विक्रमेणैव कृष्णेन सगणः पातितो रणे।। | 5-11-6a 5-11-6b |
सुनामा रणविक्रान्तः समग्राक्षौहिणीपतिः। भोजराजस्य मध्यस्थो भ्राता कंसस्य वीर्यवान्।। | 5-11-7a 5-11-7b |
बलदेवद्वितीयेन कृष्णेनामित्रघातिना। तरस्वी समरे दग्धः ससैन्यः शूरसेनराट्।। | 5-11-8a 5-11-8b |
दुर्वासा नाम विप्रर्षिस्तथा परमकोपनः। आराधितः सदारेण स चास्मै प्रददौ वरान्।। | 5-11-9a 5-11-9b |
तथा गान्धारराजस्य सुतां वीरः स्वयंवरे। निर्जित्य पृथिवीपालानावहत्पुष्करेक्षणः।। | 5-11-10a 5-11-10b |
अमृष्यमाणा राजानो यस्य जात्या हया इव। रथे वैवाहिके युक्ताः प्रतोदेन कृतव्रणाः।। | 5-11-11a 5-11-11b |
जरासन्धं महाबाहुमुपायेन जनार्दनः। परेण घातयामास समग्राक्षौहिणीपतिम्।। | 5-11-12a 5-11-12b |
चेदिराजं च विक्रान्तं राजसेनापतिं बली। अर्घे विवदमानं च जघान पशुवत्तदा।। | 5-11-13a 5-11-13b |
सौभं दैत्यपुरं खस्थं शाल्वगुप्तं दुरासदम्। समुद्रकुक्षौ विक्रम्य पातयामास माधवः।। | 5-11-14a 5-11-14b |
अङ्गान्वङ्गान्कलिङ्गंश्च मागधान्काशिकोसलान्। वात्स्यगार्ग्यकरूषांश्च पौण्ड्रांश्चाप्यजयद्रणे।। | 5-11-15a 5-11-15b |
आवन्त्यान्दाक्षिणात्यांश्च पार्वतीयान्दशेरकान्। काश्मीरकानौरसिकान्पिशाचांश्च समुद्गलान्।। | 5-11-16a 5-11-16b |
काम्भोजान्वाटधानांश्च चोलान्पाण्ड्यांश्च सञ्जय। त्रिगर्तान्मालवांश्चैव दरदांश्च सुदुर्जयान्।। | 5-11-17a 5-11-17b |
नानादिग्भ्यश्च सम्प्राप्तान्खशांश्चैव शकांस्तथा। जितवान्पुण्डरीकाक्षो यवनं च सहानुगम्।। | 5-11-18a 5-11-18b |
प्रविश्य मकरावासं यादोगणनिषेवितम्। जिगाय वरुणं सङ्ख्ये सलिलान्तर्गतं पुरा।। | 5-11-19a 5-11-19b |
युधि पञ्चजनं हत्वा दैत्यं पातालवासिनम्। पाञ्चजन्यं हृषीकेशो दिव्यं शङ्खमवाप्तवान्।। | 5-11-20a 5-11-20b |
खाण्डवे पार्थसहितस्तोषयित्वा हुताशनम्। आग्नेयमस्त्रं दुर्धर्षं चक्रं लेभे महाबलः।। | 5-11-21a 5-11-21b |
वैनतेयं समारुह्य त्रासयित्वाऽमरावतीम्। महेन्द्रभवनाद्वीरः पारिजातमुपानयत्।। | 5-11-22a 5-11-22b |
तच्च मर्षितवाञ्शक्रो जानंस्तस्य पराक्रमम्। राज्ञां चाप्यजितं कंचित्कृष्णेनेह न शुश्रुम।। | 5-11-23a 5-11-23b |
यच्च तन्महदाश्चर्यं सभायां मम सञ्जय। कृतवान्पुण्डरीकाक्षः कस्तदन्य इहार्हति।। | 5-11-24a 5-11-24b |
यच्च भक्त्या प्रसन्नोऽहमद्राक्षं कृष्णमीश्वरम्। तन्मे सुविदितं सर्वं प्रत्यक्षमिव चागमम्।। | 5-11-25a 5-11-25b |
नान्तो विक्रमयुक्तस्य बुद्ध्या युक्तस्य वा पुनः। कर्मणां शक्यते गन्तुं हृषीकेशस्य सञ्जय।। | 5-11-26a 5-11-26b |
तथा गदश्च साम्बश्च प्रद्युम्नोऽथ विदूरथः। अगावहोऽनिरुद्धश्च चारुदेष्णः ससारणः।। | 5-11-27a 5-11-27b |
उल्मुको निशठश्चैव झिल्ली बभ्रुश्च वीर्यवान्। पृथुश्च विपृथुश्चैव शमीङ्कोऽथारिमेजयः।। | 5-11-28a 5-11-28b |
एतेऽन्ये बलवन्तश्च वृष्णिवीराः प्रहारिणः। कथंचित्पाण्जवानीकं श्रयेयुः समरे स्थिताः।। | 5-11-29a 5-11-29b |
आहूता वृष्णिवीरेण केशवेन महात्मना। ततः संशयितं सर्वे भवेदिति मतिर्मम।। | 5-11-30a 5-11-30b |
नागायुतबलो वीरः कैलासशिखरोपमः। वनमाली हली रामस्तत्र यत्र जनार्दनः।। | 5-11-31a 5-11-31b |
यमाहुः सर्वपितरं वासुदेवं द्विजातयः। अपि वा ह्येष पाण्डूनां योत्स्यतेऽर्थाय सञ्जय।। | 5-11-32a 5-11-32b |
स यदा तात सन्नह्येत्पाण्डवार्थाय सञ्जय। न तदा प्रतिसंयोद्धा भविता तत्र कश्चन।। | 5-11-33a 5-11-33b |
यदि स्म कुरवः सर्वे जयेयुर्नाम पाण्डवान्। वार्ष्णेयोऽर्थाय तेषां वै गृह्णीयाच्छस्त्रमुत्तमम्।। | 5-11-34a 5-11-34b |
ततः सर्वान्नरव्याघ्रो हत्वा नरपतीन्रणे। कौरवांश्च महाबाहुःकुन्त्यै दद्यात्स मेदिनीम्।। | 5-11-35a 5-11-35b |
यस्य यन्ता हृषीकेशो योद्धा यस्य धनञ्जयः। रथस्य तस्य कः सङ्ख्ये प्रत्यनीको भवेद्रथः।। | 5-11-36a 5-11-36b |
न केनचिदुपायेन कुरूणां दृश्यते जयः। तस्मान्मे सर्वमाचक्ष्व यथा युद्धमवर्तत।। | 5-11-37a 5-11-37b |
अर्जुनः केशवस्यात्मा कृष्णोऽप्यात्मा किरीटिनः। अर्जुने विजयो नित्यं कृष्णे कीर्तिश्च शाश्वती।। | 5-11-38a 5-11-38b |
सर्वेष्वपि च लोकेषु बीभत्सुरपराजितः। प्राधान्येनैव भूयिष्ठममेयाः केशवे गुणाः।। | 5-11-39a 5-11-39b |
मोहाद्दुर्योधनः कृष्णं यो न वेत्तीह केशवम्। मोहितो दैवयोगेन मृत्युपाशपुरस्कृतः। | 5-11-40a 5-11-40b |
न वेद कृष्णं दाशार्हमर्जुनं चैव पाण्डवम्। पूर्वदेवौ महात्मानौ नरनारायणावुभौ।। | 5-11-41a 5-11-41b |
एकात्मानौ द्विधाभूतौ दृश्येते मानवैर्भुवि। मनसापि हि दुर्धर्षौ सेनामेतां यशस्विनौ।। | 5-11-42a 5-11-42b |
नाशयेतामिहेच्छन्तौ मानुषत्वाच्च नेच्छतः। युगस्येव विपर्यासो लोकानामिव मोहनम्।। | 5-11-43a 5-11-43b |
भीष्मस्य च वधस्तात द्रोणस्य च महात्मनः। न ह्येव ब्रह्मचर्येण न वेदाध्ययनेन च।। | 5-11-44a 5-11-44b |
न क्रियाभिर्न चास्त्रेण मृत्योः कश्चिन्निर्वायते। लोकसम्भावितौ वीरौ कृतास्त्रौ युद्धदुर्मदौ।। | 5-11-45a 5-11-45b |
भीष्मद्रोणौ हतौ श्रुत्वा किन्नु जीवामि सञ्जय। यां तां श्रियमसूयामः पुरा दृष्ट्वा युधिष्ठिरे।। | 5-11-46a 5-11-46b |
अद्य तामनुजानीमो भीष्मद्रोणवधेन ह। मत्कृते चाप्यनुप्राप्तः कुरूणामेष सङ्क्षयः।। | 5-11-47a 5-11-47b |
पक्वानां हि वधे सूत वज्रायन्ते तृणान्युत। अनन्तमिदमैश्वर्यं लोके प्राप्तो युधिष्ठिरः।। | 5-11-48a 5-11-48b |
यस्य कोपान्महात्मानौ भीष्मद्रोणौ निपातितौ। प्राप्तः प्रकृतितो धर्मो न धर्मो मामकान्प्रति।। | 5-11-49a 5-11-49b |
क्रूरः सर्वविनाशाय कालोऽसौ नातिवर्तते। अन्यथा चिन्तिता ह्यर्था नरैस्तात मनस्विभिः। अन्यथैव प्रपद्यन्ते दैवादिति मतिर्मम।। | 5-11-50a 5-11-50b 5-11-50c |
तस्मादपरिहार्येऽर्थे सम्प्राप्ते कृच्छ्र उत्तमे। अपारणीये दुश्चिन्त्ये यथाभूतं प्रचक्ष्व मे।। | 5-11-51a 5-11-51b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि एकादशोऽध्यायः।। 11 ।। | |
0 | </text> |
क्षत्रञ्जयः क्षत्रदेवः क्षत्रवर्मा च मानदः। धृष्टद्युम्नात्मजा वीराः के तान्द्रोणादवारयन्।। | 5-10-53a 5-10-53b |
शताद्विशिष्टं यं युद्धे सममन्यन्त वृष्णयः। चेकितानं महेष्वासं कस्तं द्रोणादवारयत्।। | 5-10-54a 5-10-54b |
वार्धक्षेमिः कलिङ्गानां यः कन्यामाहरद्युधि। अनाधृष्टिरदीनात्मा कस्तं द्रोणादवारयत्।। | 5-10-55a 5-10-55b |
भ्रातरः पञ्च कैकेया धार्मिकाः सत्यविक्रमाः। इन्द्रगोपकसङ्काशा रक्तवर्मायुधध्वजाः।। | 5-10-56a 5-10-56b |
मातृष्वसुः सुता वीराः पाण्डवानां जयार्थिनः। तान्द्रोणं हन्तुमायातान्के वीराः पर्यवारयन्।। | 5-10-57a 5-10-57b |
यं योधयन्तो राजानो नाजयन्वारणावते। षण्मासानपि संरब्धा जिघांसन्तो युधां पतिं।। | 5-10-58a 5-10-88b |
धनुष्मतां वरं शूरं सत्यसन्धं महाबलम्। द्रोणात्कस्तं नरव्याघ्रं युयुत्सुं पर्यवारयत्।। | 5-10-59a 5-10-59b |
यः पुत्रं काशिराजस्य वाराणस्यां महारथम्। समरे स्त्रीषु गृध्यन्तं भल्लेनापाहरद्रथात्।। | 5-10-60a 5-10-60b |
धृष्टद्युम्नं महेष्वासं पार्थानां मन्त्रधारिणम्। युक्तं दुर्योधनानर्थे सृष्टं द्रोणवधाय च।। | 5-10-61a 5-10-61b |
निर्दहन्तं रणे योधान्दारयन्तं च सर्वतः। द्रोणाभिमुखमायान्तं के शूराः पर्यवारयन्।। | 5-10-62a 5-10-62b |
उत्सङ्ग इव सम्वृद्धं द्रुपदस्यास्त्रवित्तमम्। शैखण्डिनं शस्त्रगुप्तं के द्रोणादवारयन्।। | 5-10-63a 5-10-63b |
य इमां पृथिवीं कृत्स्नां चर्मवत्समवेष्टयत्। महता रथघोषेण मुख्यारिघ्नो महारथः।। | 5-10-64a 5-10-64b |
दशाश्वमेधानाजहे स्वन्नपानाप्तदक्षिणान्। निरर्गलान्सर्वमेधान्पुत्रवत्पालयन्प्रजाः।। | 5-10-65a 5-10-65b |
विसृष्टा दक्षिणा यस्य गङ्गाजलमवारयत्। गङ्गास्रोतसि यावत्यः सिकता अप्यशेषतः। तावतीर्गा ददौ वीर उशीनरसुतोऽध्वरे।। | 5-10-66a 5-10-66b 5-10-66c |
न पूर्वे नापरे चक्रुरिदं केचन मानवाः। इतीदं चुक्रुशुर्देवाः कृते कर्मणि दुष्करे।। | 5-10-67a 5-10-67b |
पश्यामस्त्रिषु लोकेषु न तं संस्थास्नुचारिषु। जातं चापि जनिष्यन्तं द्वितीयं चापि साम्प्रतम्।। | 5-10-68a 5-10-68b |
अन्यमौशीनराच्छेब्याद्धुरो वोढारमित्युत। गतिं यस्य न यास्यन्ति मानुषा लोकवासिनः।। | 5-10-69a 5-10-69b |
तस्य नप्तारमायान्तं शैब्यं कः समवारयत्। द्रोणायाभिमुखं यत्तं व्यात्ताननमिवान्तकम्।। | 5-10-70a 5-10-70b |
विराटस्य रथानीकं मत्स्यस्यामित्रघातिनः। प्रेप्सन्तं समरे द्रोणं के वीराः पर्यवारयन्।। | 5-10-71a 5-10-71b |
सद्यो वृकोदराज्जातो महाबलपराक्रमः। मायावी राक्षसो वीरो यस्मान्मम महद्भयम्।। | 5-10-72a 5-10-72b |
पार्थानां जयकामं तं तं पुत्राणां मम कण्टकम्। घटोत्कचं महात्मानं कस्तं द्रोणादवारयत्।। | 5-10-73a 5-10-73b |
एते चान्ये च बहवो येषामजितं युधि। त्यक्तारः संयुगे प्राणान्किं तेषामजितं युधि।। | 5-10-74a 5-10-74b |
येषां च पुरुषव्याघ्रः शार्ङ्गधन्वा व्यपाश्रयः।। लोकानां गुरुरत्यर्थं लोकनाथः सनातनः। | 5-10-75a 5-10-75b |
नारायणोरणे नाथो दिव्यो दिव्यात्मकः प्रभुः।। यस्य दिव्यानि कर्माणि प्रवदन्ति मनीषिणः। | 5-10-76a 5-10-76b |
तान्यहं कीर्तयिष्यामि भक्त्या स्थैर्यार्थमात्मनः।। | 5-10-77a |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि दशमोऽध्यायः।। 10 ।। |
5-11-6 विक्रमेणैव अस्त्रं चिना।। 5-11-12 परेण भीमेन।। 5-11-11 एकादशोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-010 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-012 |